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घटती आमदनी के बीच बढ़ते दाम

हालिया मूल्यवृद्धि ऐसे समय में हुई है जब अधिकांश लोगों की आय में भारी कमी आई है। अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के दो विकल्प हैं, लोगों की व्यय करने योग्य आय में वृद्धि हो या फिर अप्रत्यक्ष करों में कमी लाकर कीमतें कम की जाए ताकि लोग अधिक सामान खरीद सकें। — संजय कुमार

 

पेट्रोलियम के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दाम ने सरकार एवं जनता दोनों के लिए बड़ी चुनौती प्रस्तुत कर दी है। मंदी से प्रभावित एक बहुत बड़े समूह, जिसकी आमदनी पहले ही कम हो गई थी, को अब वर्तमान में पेट्रोलियम पदार्थों में यह महंगाई के रूप में अन्य उपभोक्ता व्यय में कटौती करने को मजबूर कर दी है। हालांकि पिछले 2 हफ्ते से देश में पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में लगभग स्थिरता देखी गई है, लेकिन लगातार घटती जा रही आमदनी के बीच बढ़े हुए दाम मुसीबत के सबब बन गए हैं।

भारत में पेट्रोलियम पदार्थों के खुदरा मूल्यों के निर्धारण का गणित बड़ा ही रोचक है। भारत के कुल पेट्रोलियम उत्पादों की आवश्यकता में से लगभग 85 प्रतिशत की आपूर्ति आयात से होती है। इन उत्पादों के भारतीय खुदरा मूल्यों के चार प्रमुख अवयव हैं- पहला, कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत, दूसरा- रुपए की डालर में कीमत, तीसरा- केंद्रीय कर और चौथा- राज्य सरकारों द्वारा इन उत्पादों पर लगाया गया कर। इसके अतिरिक्त रिफायनिंग, ढुलाई, डीलरों का मुनाफा आदि अलग से है। इन वस्तुओं के खुदरा मूल्य का बड़ा हिस्सा केंद्र और राज्य सरकारों का कर होने के कारण राहत की उम्मीद सरकारों से बढ़ती जा रही है। दूसरी तरफ आर्थिक संकट के कारण जहां सरकारों के राजस्व में भारी कमी आई है, उनसे खर्च बढ़ाने की उम्मीद भी बढ़ गई है। इस कारण से राजस्व में कमी लाने वाले निर्णयों से सरकार आनाकानी कर रही हैं। केंद्र की तुलना में राज्यों की राजकोषीय स्थिति और भी चिंताजनक है, क्योंकि राजस्व के विकल्प उनके पास बहुत कम है। गौर करने की बात यह है कि भारत की संघीय शासन प्रणाली में पेट्रोलियम उत्पादों पर कर को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है, जिसके कारण इन उत्पादों पर कर लगाकर राजस्व अर्जित करने की स्वायत्तता राज्य एवं केंद्र दोनों सरकारों के पास है। इस प्रकार इन पदार्थों पर कर सरकारों के लिए अतिरिक्त राजस्व का उपाय करने के गिने-चुने विकल्पों में से एक है। अलग-अलग राज्यों द्वारा अलग-अलग मात्रा में कर लगाने के कारण विभिन्न राज्य में पेट्रोलियम पदार्थों की खुदरा कीमतें भी अलग-अलग रहती हैं।

पूर्व में जब कच्चे तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजारों में रिकॉर्ड स्तर पर नीचे चली गई थी तो भारत में दोनों स्तर की सरकारों ने इस कर को बढ़ाकर इनकी खुदरा कीमतों को नीचे आने से रोका था ताकि उनके राजस्व में वृद्धि हो सके। इसका एक दूसरा मतलब यह भी निकाला गया था कि जब तेल के कच्चे मूल्य में अप्रत्याशित वृद्धि होगी तो करों में कमी लाकर उपभोक्ताओं को राहत दी जाएगी। परंतु लग रहा है कि दो स्तर पर कर लगने के कारण अब इसमें कटौती का निर्णय संघीय ढांचे में आपसी प्रतिस्पर्धा या राजनीतिक कीमतों से ही निर्धारित होगा।

मालूम हो कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, जिसका उपयोग मुद्रास्फीति से संबंधित नीति निर्धारण में होता है, में पेट्रोलियम पदार्थों की हिस्सेदारी केवल 2.4 प्रतिशत होने के कारण महंगाई के आंकड़ों में तत्काल वृद्धि दिखाई नहीं भी दे सकती है। एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय उपभोक्ता अपने औसत पारिवारिक खर्च का लगभग 5.6 प्रतिशत पेट्रोल डीजल पर खर्च करते हैं। समय के साथ जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था में विविधता आई है तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव के झटकों का प्रत्यक्ष असर समग्र आर्थिक विकास पर कम हो रहा है। परंतु तेल के मूल्य में वृद्धि अन्य वस्तुओं के मनोवैज्ञानिक एवं वास्तविक दोनों रूप से अपेक्षित मूल्य में वृद्धि के रूप में भी अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति अर्थात महंगाई को बढ़ावा देती है। इसका असर मांग में कमी के रूप में भी दिख सकता है जो अर्थव्यवस्था के विकास में बाधक होगा।

पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए जाने वाले कर अप्रत्यक्ष करों की श्रेणी में आते हैं जो देश की वर्तमान कर संरचना में कम आय वाले लोगों से प्रत्यक्ष करों की तुलना में आनुपातिक रूप से अधिक कर राशि होती है। इस प्रकार इनका बोझ निम्न मध्यम आय वाले लोगों पर सीधा होता है, जिससे उनकी व्यय योग्य आय कम हो जाती है। यह वही समूह है जो सरकारी नीतियों में खुद को हमेशा उपेक्षित महसूस करता रहा है, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अमीरों के ऊपर इन मूल्य वृद्धि का असर ना के बराबर है। वही गरीबों की चिंता समय-समय पर सरकारी योजनाओं में स्पष्ट रूप से दिखती है।

वर्तमान में जब दोनों स्तर की सरकारें राजस्व के लिए विकल्प के अभाव में पेट्रोलियम पर लगाए जाने वाले करों से होने वाली आय पर बहुत हद तक निर्भर हैं, तो ऐसे में देखना रोचक होगा कि विभिन्न राज्य सरकार और केंद्र की सरकार करों में कटौती के दबाव में क्या निर्णय लेती हैं। राज्य एवं केंद्र दोनों स्तर की सरकारें अपने लिए अधिकतम संभव कर लगाने के मौकों की तलाश में रहती है। वही कच्चे तेल की मूल्य वृद्धि के बाद करों में कटौती की लोकप्रिय मांग पर ‘पहले आप-पहले आप’ वाली सुस्ती दिखाती हैं। 

हालिया मूल्यवृद्धि ऐसे समय में हुई है जब अधिकांश लोगों की आय में भारी कमी आई है। अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के दो विकल्प हैं, लोगों की व्यय करने योग्य आय में वृद्धि हो या फिर अप्रत्यक्ष करों में कमी लाकर कीमतें कम की जाए ताकि लोग अधिक सामान खरीद सकें। बहरहाल जनता दोनों स्तर की सरकारों से आशान्वित है कि घटती कमाई के मद्देनजर सरकारें करों में कटौती कर आम जनता को राहत पहुंचाने के लिए सार्थक कदम उठाए।

लेखक पत्रकार है।

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