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राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगडी जी का ‘स्वदेशी चिंतन’ 

‘स्वदेशी’ केवल भारत के आर्थिक संकट और विदेशी आर्थिक साम्राज्यवाद की गुलामी का उत्तर नहीं, ढह गई साम्यवादी और ढहती जा रही पूंजीवादी व्यवस्था के पश्चात समस्त संसार के लिए एक ‘तीसरा विकल्प’ है। - डॉ. युवराज कुमार

 

स्वदेशी जागरण अभियान के महानायक एवं राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगडी जी के समग्र व्यक्तितव को समझना कोई सरल और सहज कार्य नहीं है। इसके लिए चाहिए स्वदेशी मंत्र, स्वदेशी यंत्र से अनुप्राणित किसी कर्मयोगी का साधना अभियान। श्रद्धेय श्री दत्तोपंत ठेंगडी (दत्तात्रेय बापूराव ठेंगड़ी) का जन्म 10 नवम्बर, 1920 को आर्वी, जिला वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ था। इनके पिता श्री बापूराव दाजीबा ठेंगड़ी, जो सुप्रसिद्ध अधिवक्ता थे तथा माता श्रीमती जानकी बाई ठेंगडी, जो आध्यात्मिक अभिरूची से सम्पन्न, भगवान दतात्रेय की परम भक्त थी। परिवार में एक छोटा भाई श्री नारायण ठेंगड़ी और एक छोटी बहन श्रीमती अनुसूया थी।   

दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की शिक्षा का सफ़र एल.एल.बी. तक रहा। उन्होंने यह उपाधि मॉरिश कॉलेज, नागपुर से वर्ष 1941 में प्राप्त की थी। तत्पश्चात वर्ष 1942 से (14 अक्टूबर 2004) देहावसान तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में देश को अपनी सेवायें दी। ठेंगड़ी जी बाल्यकाल से ही संघ शाखा में जाया करते थे। ठेंगडी जी हिदी, बंगाली, संस्कृत, मलयालम, अंग्रेजी तथा मराठी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। ठेंगड़ी जी में नेतृत्व की अपार क्षमता थी। वह अपने प्रारंभिक काल में ही वानर सेना आर्वी तालुका कमेटी के 1935 में अध्यक्ष रहे। 1935-36 में मुंसिपल हाईस्कूल ‘आर्वी विद्यार्थी संघ के अध्यक्ष रहे। 1935-36 में ही मुंसिपल हाई स्कूल ‘गरीब छात्र फंड’ समिति के सचिव रहे। 1936 में ‘आर्वी गोवारी झुग्गी झोपड़ी मंडल’ के संगठक रहे। 1936-1938 में ‘हिंदुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन सेना’, नागपुर के प्रोबेशनर रहे।

ठेंगड़ी जी अपने जीवन काल में संघ के संघ प्रेरित संस्थाओं में कार्यरत रहे। संघ के स्वाभाविक विकास क्रम में विभिन्न संस्थाओं का तथा रचनाओं का गठन और संचालन करने में ठेगडी जी की अहम् भूमिका रही है। ठेंगड़ी जी जिनके संस्थापक रहे उनमें - अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (9 जुलाई, 1949), भारतीय मजदूर संघ (23 जुलाई, 1955 - भोपाल), भारतीय किसान संघ (4 मार्च, 1971 - कोटा), स्वदेशी जागरण मंच (22 नवंबर, 1991 - नागपुर), सामाजिक समरसता मंच (14 अप्रैल, 1983), सर्वपंथ समादर मंच (14 अप्रैल, 1991 - मुंबई) प्रमुख रहे। इसके साथ ही ‘अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद’ (9 जुलाई, 1949) एवं ‘भारतीय विचार केन्द्रम’ (7 अक्तूबर, 1982 - थिरुवानन्तपुरम) के मार्गदर्शक रहे। ठेंगडी जी का सभी संस्थाओं में राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार सिद्धांत अधिष्ठान देने में योगदान प्राथमिक रहा है। इनके अलावा अनेकों फेडरेशन, एसोसिएशन, परिषदें, फोरम, यूनियन, मंडल, समाज के संरक्षक, सदस्य एवं प्रतिष्ठापना प्रमुख रहे। ठेंगडी जी 1964 से 1976 तक राज्यसभा सदस्य रहे और इन्होने ‘भारतीय जनता पार्टी’ के गठन में विशेष भूमिका भी निभाई।

ठेंगड़ी जी की लेखन में भी विशेष रूचि थी, जिससे अपने विचारों को आम कार्यकर्त्ता एवं भारतीय नागरिकों तक पहुंचा पायें। ठेंगडी जी ने हिंदी, अंग्रेजी एवं मराठी भाषा में अनेकों पुस्तकें, लेख, भाषण एवं प्रस्तावना लिखी। हिंदी भाषा में उन्होंने ‘एकात्म मानव दर्शन’, ‘कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर’, ‘प्रचार तंत्र’, ‘राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का आधार’, ‘शिक्षा में भारतीयता का परिचय’, ‘हमारे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर’, ‘जागृत किसान’, ‘राष्ट्र-चिंतन’, ‘हिंदू मार्ग’ (थर्ड वे का अनुवाद), ‘राष्ट्रीय श्रम दिवस’, ‘कार्यकर्त्ता’, ‘राष्ट्रीयकरण या सरकारीकरण’ इत्यादि पुस्तकें लिखी। अंग्रेजी भाषा में ‘प्रोसपेक्टिव’, ‘मॉर्डनिजेशन विदआउट वेस्टर्नाइजेशन’, ‘कंज्यूमर विदआउट सॉवरजेन्टी’ ‘थर्ड वे’, फोकस ऑन सोशियल इकोनोमिक प्रोब्लमस’, ‘कम्प्यूटराईजेशन’, ‘वाई भारतीय मजदूर संघ’ और मराठी भाषा में ‘चिंतन पाथेय’, ‘वक्तृत्वाची पुर्वतयारी’ एवं ‘एरणीवरचे घाव’ पुस्तकों के लेखक रहे है। ठेंगडी जी ने अन्य प्रमुख पुस्तकों में प्रस्तावना भी लिखी जिनमे ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन’, ‘स्वदेशी व्यूज ऑफ ग्लोबलाइजेशन’, ‘हिन्दू इकोनॉमिक्स’, ‘राजकीय नेतृत्व’, ‘श्रम समन्वय विचार’, ‘कल्पवृक्ष’ इत्यादि शामिल रही है। 

इसके अलावा देश के प्रति अपनी जिम्मेवारी को निभाते हुए दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर साउथ अफ्रीका के डरबन में थर्ड वे विश्व हिंदू सम्मेलन में अपना विषय रखा। 6-8 अगस्त, 1993 को विश्व शांति के लिए वैश्विक आर्थिक व्यवस्था पर में वाशिंगटन डी.सी. में ठेंगडी जी ने अपना भाषण दिया। 

टूटती पूंजीवादी व्यवस्था और समाप्त हो गए कम्युनिज्म के बाद निश्चित रूप से संपूर्ण विश्व को किसी आर्थिक विकल्प की आवश्यकता पड़ेगी। कौन देगा यह विकल्प? इसी को स्वदेशी के रूप में ठेकड़ी जी ने प्रस्तुत किया। ‘स्वदेशी’ केवल भारत के आर्थिक संकट और विदेशी आर्थिक साम्राज्यवाद की गुलामी का उत्तर नहीं, ढह गई साम्यवादी और ढहती जा रही पूंजीवादी व्यवस्था के पश्चात समस्त संसार के लिए एक ‘तीसरा विकल्प’ है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो धर्म है और सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर जो स्वधर्म है, भौतिक और आर्थिक स्तर पर वही स्वदेशी है। स्वधर्म, स्वदेश, स्वदेशी, स्वभाषा, स्वशासन एक दूसरे से संबंध और समव्याप्त है। इनमें से किसी एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यह अमेरिका के आर्थिक साम्राज्यवाद और विकासशील देशों के आर्थिक शोषण को एक सफल और सार्थक चुनौती है।

श्रद्धेय ठेंगड़ी जी ने बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का व्यापार, निवेश सम्बन्धी उपक्रमों का व्यापार तथा कृषि समझौता, डंकेल प्रस्तावों का व्यापक अध्ययन करने के पश्चात् विकसित देशों के साम्राज्यवादी षडयंत्रों से राष्ट्र को सावधान किया और कहा कि ‘‘विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, पश्चिमी देशों के शोषण के नये हथियार है, जिनके माध्यम से साम-दाम-दंड-भेद का उपयोग करते हुए विकासशील तथा अविकसित देशों का शौषण करना चाहते है।’’ दत्तोपंत जी ने ‘‘डंकेल प्रस्ताव को गुलामी का दस्तावेज माना’’ और इस आर्थिक साम्राज्यवादी अर्थात् आर्थिक गुलामी के खिलाफ व्यापक जन-आन्दोलन खड़ा किया। 

इस आंदोलन को ठेंगडी ने स्वतंत्रता का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम कहा और इस संग्राम को चलाने के लिए 22 नवम्बर 1991 को नागपुर में ‘स्वदेशी जागरण मंच’ की स्थापना की। स्वदेशी आन्दोलन, कम समय में ही राष्ट्रव्यापी आन्दोलन बन गया। वास्तव में स्वदेशी आन्दोलन के माध्यम से श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने वैश्विक आन्दोलन का सफल नेतृत्व किया। स्वदेशी जागरण मंच ने विदेशी साम्राज्यवाद को जबरदस्त चुनौती दी। इसका परिणाम कोरोना काल में बखूबी देखा जा सकता है, बिना वैश्विक सहायता के भारत स्वाभिमान के साथ अपने सम्मान को बचाया भी और इस आपदा को अवसर में बदलकर विश्व के समक्ष एक उदहारण भी बना। 

वास्तव में अब ‘स्वदेशी’ भारत में लड़ा जाने वाला एक ‘धर्मयुद्ध’ है, जो स्वात्म की अभिव्यक्ति का अनुष्ठान है। ‘स्वदेशी’ भारत का रक्षा कवच है और उसका विरोध भारत पर आक्रमण है। अब यह निर्णय करने का समय है कि आप किसके पक्ष में खड़े है - अपने राष्ट्रधर्म की रक्षा के साथ या उस पर आक्रमण करने वालों के साथ। क्योंकि स्वदेशी किसी देश का केवल अर्थतंत्र ही नहीं, अध्यात्म भी है। केवल रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं, जीवन का दृष्टिकोण और स्वराष्ट्र की पहचान भी स्वदेशी है। स्वदेशी देश की प्राणवायु है। स्वराज और स्वाधीनता की गारंटी है। स्वदेशी के अभाव में राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्वतंत्रता सर्वथा असंभव है।   

 

संदर्भ
1.    ठेंगड़ी द. बा. (2011), ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक कार्यकर्ता अधिष्ठानः व्यक्तिमत्त्वः व्यवहार’, भारतीय विचार साधना पुणे प्रकाशन, पुणे। 
2.    ठेंगड़ी, दत्तोपंत, (1997), ‘नई चुनौतियाँ’, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली।
3.    शुक्ल, भानुप्रताप, (संपा. देवेश चन्द्र), (1998) ‘स्वदेशी चेतना’, अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली। 
4.    डोगरा, अमर नाथ (संपा.) (2015), ‘दत्तोपंत ठेंगडी जीवन दर्शन’, (खण्ड-1), सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली।
5.    ठेंगड़ी, दत्तोपंत, (1997), ‘भारतीयता और समाजवाद’, रामनरेश सिंह प्रकाशक, कानपूर। 
6.    ठेंगड़ी, दत्तोपंत, (1997), ‘डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा’, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ। 
7.    ठेंगड़ी, दत्तोपंत एवम शेषाद्री हो. वे., (1991), ‘बाबा साहब अम्बेडकर’, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ।

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