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गर्भपात का अधिकारः कानूनी दांव पेच से आगे

कानून से प्राप्त कवच निश्चित रूप से स्वागत योग्य कदम है। लेकिन हमें इसके आगे की यात्रा की जरूरत है। — डॉ. जया कक्कड़

 

हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक फैसले से एकल, अविवाहित महिलाओं के साथ-साथ वैवाहिक बलात्कार की शिकार महिलाओं को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी अधिनियम 1971 के दायरे में लाया गया है, जिससे उनके लिए गर्भावस्था के 24 सप्ताह तक सुरक्षित और कानूनी गर्भपात देखभाल सुनिश्चित हुई है। निःसंदेह यह एक प्रशंसनीय फैसला है लेकिन आगे यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि महिलाओं को वास्तविक व्यवहार में इसका लाभ मिल सके। विवाहित और अविवाहित का भेद मिटाते हुए न्यायालय ने सभी महिलाओं के व्यक्तिगत स्वायत्तता गरिमा और निजता के अधिकारों को जरूरी बताया है। इसी तरह हालांकि वैवाहिक बलात्कार को अभी तक भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध के रूप में मान्यता नहीं है लेकिन अदालत ने महत्वपूर्ण टिप्पणी दी है कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी पर यौन हमला बलात्कार हो सकता है। भारतीय उच्च न्यायालय का यह कदम संयुक्त राज्य अमेरिका की अदालतों की तुलना में अत्यधिक प्रगतिशील और जीवंत है। मालूम हो इसी साल जून के महीने में अमेरिकी अदालत ने गर्भपात से संबंधित प्रतिगामी कानून पारित किए तथा गर्भपात के संवैधानिक अधिकारों को खत्म कर दिया था।

भारतीय महिलाओं को 1971 से ही गर्भपात कराने का कानूनी अधिकार प्राप्त है, रोज विकसित हो रहे विज्ञान की पृष्ठभूमि में इस कानून को 2021 में अद्यतन किया गया था। फिर भी पितृसत्तात्मक मानसिकता और सामाजिक कलंक के कारण महिलाओं को खासकर अविवाहित महिलाओं को कानून से प्राप्त अधिकार का प्रयोग करने में कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। देश में आज भी 60 से 70 प्रतिशत गर्भपात के मामले स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के बाहर ही होते हैं। एक अनुमानित आंकड़े के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग 16 मिलियन गर्भपात में से 12 मिलियन गर्भपात स्वास्थ्य सुविधा के बाहर किए जाते हैं। इनमें भी अधिकांश केस शल्य चिकित्सा के बगैर गोलियों के माध्यम से किए जाते हैं। आमतौर पर यह दवाई पुरुषों द्वारा महिलाओं को दी जाती हैं। अधिकांश महिलाओं के पास सुरक्षित और प्रत्यक्ष स्वास्थ्य देख-रेख, सलाह और समर्थन की पहुंच नहीं है। 8 से 10 प्रतिशत तक सर्जरी अयोग्य लोगों द्वारा की जाती है। यही सब कारण है कि देश में प्रतिवर्ष असुरक्षित और अधूरे गर्भपात के कारण 8 प्रतिशत मातृ मृत्यु होती है, ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी बदतर है।

ऐसे में एक व्यक्ति के रूप में व्यक्तिगत विकल्पों का प्रयोग करने के लिए एक महिला की निर्णयात्मक स्वायत्तता के लिए अदालत की ओर से आई यह मान्यता देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक वर्ष 2021 में महिलाओं के खिलाफ 4078 मामले दर्ज किए गए थे, वास्तविक आंकड़ा और अधिक हो सकता है।

सभी भारतीय महिलाओं को प्रशिक्षित कर्मियों द्वारा गर्भपात की आवश्यकता है। गैर शल्य चिकित्सा और शल्य चिकित्सा के जरिए गर्भपात की जानकारी के साथ-साथ इस बारे में उन्हें मार्गदर्शन और समर्थन की भी जरूरत है, लेकिन यह सिर्फ एक मेडिकल मामला  नहीं है, यह एक सामाजिक मुद्दा भी है। इसलिए सामाजिक सुधार की भी जरूरत है। कानून को लागू करना आवश्यक है लेकिन समाज को साथ लिए बगैर वास्तविक कार्यान्वयन संभव नहीं है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर की एक महिला की याचिका पर महिलाओं की स्वायत्तता को स्पष्ट किया है। महिला ने रिलेशनशिप के टूट जाने के बाद गर्भपात कराने की अनुमति चाही थी। अदालत ने इस मान्यता के साथ फैसला दिया कि कानून को समय के साथ विकसित होना चाहिए। महिला विवाहित हो या अविवाहित यदि यौन रूप से सक्रिय है तो उसके पास गर्भपात करने का अधिकार होना चाहिए। महिलाओं के पास  सामाजिक मानदंडों और मूल्यों से प्रभावित हुए बिना गर्भ निरोधक, बच्चों की संख्या या गर्भपात के बारे में निर्णय लेने का विवेकाधिकार होना चाहिए। 

अदालत ने अंतरंग साथी हिंसा की संभावना और सहमति से संबंध में गैर सहमति वाले यौन संबंध की संभावना को भी स्वीकार किया है। विवाह नामक संस्था की रक्षा के नाम पर पुरुषों द्वारा जबरदस्ती छोड़ देने और एक गलत संस्कृति में भी यौन हिंसा को समझने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।  भारतीय दंड संहिता 1860 के अनुसार या निर्धारित किया गया था कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध जिसकी उम्र 15 वर्ष से कम नहीं है, बलात्कार नहीं है। इस आधार पर जिन महिलाओं ने यौन उत्पीड़न करने वाले पतियों के वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ संघर्ष किया, वे सब इस फैसले से अपने को सही और राहत महसूस कर रही हैं।

हालांकि वर्तमान में वैवाहिक बलात्कार को आईपीसी की धारा 375 के अपराधों के तहत बलात्कार की परिभाषा के दायरे से बाहर रखा गया है। उच्चतम न्यायालय ने इस पर सुनवाई हो रही है लेकिन अभी तक इसे संज्ञेय अपराध नहीं बनाया गया है। मानव अधिकार कार्यकर्ताओं का सुझाव है, कि यदि किसी महिला को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत समान रूप से स्वायत्तता और गरिमा की गारंटी दी जाती है तो वैवाहिक बलात्कार को संज्ञेय अपराध कहा  जाना चहिए। ज्ञात हो कि न्यायमूर्ति वर्मा समिति ने सिफारिश की थी, यौन उल्लंघन के खिलाफ बचाव के रूप में वैवाहिक संबंधों की अनुमति नहीं दी जा सकती।

पुनः फैसले में कहा गया है  प्रजनन अधिकारों का दायरा महिलाओं के बच्चा पैदा करने या ना करने के अधिकार तक ही सीमित नहीं है। प्रजनन अधिकारों में वास्तव में गर्भनिरोधक और जन स्वास्थ्य के बारे में शिक्षण, और जानकारी तक पहुंचने का अधिकार, यह तय करने का अधिकार कि क्या और किस प्रकार के गर्भनिरोधको का प्रयोग करना है, या चुनने का अधिकार कि क्या और कब और कितने बच्चा पैदा करने का अधिकार आदि सब शामिल है।

बेहतर स्वास्थ्य ढांचा के साथ उचित देखभाल की बात अदालत ने की थी लेकिन दूसरा पक्ष यह है देश में प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञों के लगभग 80 प्रतिशत पद रिक्त हैं कुछ गिनती के धनाठ्य लोग महंगी निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधा पा लेते हैं। लेकिन 55 प्रतिशत से अधिक गरीब लोगों को कोई सुविधा नहीं मिल पाती। वर्ष 2015 में आई लेसेंट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सालाना 16 मिलियन गर्भपात होते हैं इसका मतलब है कि 8 से 10 मिलियन महिलाओं को स्वास्थ्य के खतरों का सामना करना पड़ता है। 

कानून से प्राप्त कवच निश्चित रूप से स्वागत योग्य कदम है। लेकिन हमें इसके आगे की यात्रा की जरूरत है। हमें देखभाल की बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करने की क्षमता विकसित करने की जरूरत है ताकि गर्भपात सेवाएं मांग पर सुलभ हो और गरीबों तथा वंचितों के लिए मुफ्त हो। साथ ही साथ पुरुष प्रधान भारतीय समाज की मानसिकता में बदलाव के लिए जागरूकता फैलाई जाए ताकि महिला के अधिकार के प्रति व्यवहार वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक और करुणामय हो।          

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