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आजादी का अमृत महोत्सव: उत्तर पूर्व भारत के गुमनाम शहीद (भाग-1)

भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में असम, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड, और सिक्किम जैसे राज्यों के स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है जबकि उनके विद्रोह ने अंग्रेजों की कमर ही तोड़कर रख दी थी। — विनोद जौहरी

 

आजादी का अमृत महोत्सव एक पावन अवसर है, हम उन सभी गुमनाम स्वतंत्रता सैनानियों को याद करें जिन्होंने देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में असम, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड, और सिक्किम जैसे राज्यों के स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है जबकि उनके विद्रोह ने अंग्रेजों की कमर ही तोड़कर रख दी थी। जो जानकारी उपलब्ध हुई है, उसके आधार पर संक्षेप में उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने का प्रयास स्वदेशी पत्रिका ने किया है।  

1. श्री मनिराम देवान

मनिराम दत्त बरुआ (17 अप्रैल, 1806 - 26 फरवरी, 1858), असम के एक सामंत थे जिन्हें 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजों ने फाँसी दे दी। उन्होंने असम में पहला चाय बगान स्थापित किया था। वे मनिराम देवान के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। यह वर्ष 1857 का दौर था, भारत में अंग्रेजों के खिलाफ सिपाही क्रांति प्रारम्भ हो चुकी थी। इसी क्रांति ने मनिराम को प्रेरणा और शक्ति दिए। इसके बाद उन्होंने उत्तर-पूर्व में अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने अहोम के राजाओं और सैनिकों के साथ मिलकर अंग्रेजों से बदला लेने की तैयारी कर ली। मनिराम ने अहोम जनजाति के सभी मुखिया से वादा किया कि वे अगर उनकी संपत्ति वापस दिलाने में उनकी मदद करेंगे और अग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ेंगे तो उन्हें आर्थिक लाभ मिलेगा। सभी तैयारियां हो चुकी थीं लेकिन इसी बीच अंग्रेज़ी शासन को मनिराम के मनसूबों की भनक लग गई। इसी के साथ मनिराम को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फांसी दे दी गयी। 

2. श्री यू कियांग नंगबाह

यू कियांग नंगबाह का जन्म जोवाई के तपेप्पले में का रिमाई नंगबाह के घर हुआ था। वह मेघालय के एक मात्र ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जिनको 30 दिसंबर 1862 को पश्चिम जयंतिया हिल्स जिले में गॉलवे शहर में इवामुसियांग में सार्वजनिक रूप से ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर लटका दिया था। वर्ष 2001 में, भारत सरकार ने उनके पुण्यस्मरण में डाक टिकट जारी किया गया था। वह एक शांतिपूर्ण किसान थे, जो अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रेरित हुए। जब उन्होंने देखा कि अंग्रेजों ने अपने साथी लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया, अनुचित कराधान लगाया और उनकी धार्मिक परंपराओं को बाधित किया। उनको जयंतिया प्रतिरोध का नेता चुना गया और उन्होंने अंग्रेजों पर हमलों का नेतृत्व किया। वह सब जयंतिया पहाड़ियों में फैल गए। अंग्रेजों द्वारा विद्रोह को कुचलने के लिए अतिरिक्त सेना को बुलाना पड़ा। अंत में, नंगबाह को उनकी एक टीम ने धोखा दिया और अंग्रेजों ने उनको कब्जे में ले लिया। उन्हें 30 दिसंबर 1862 को पश्चिम जयंतिया हिल्स जिले के जोवाई शहर के इवामुसियांग में फांसी दी गई थी। फाँसी पर खड़े होकर, उनके अंतिम शब्द कहे गए थेः “यदि मेरा चेहरा पूर्व की ओर मुड़ता है तो मेरी मातृभूमि विदेशी जुए से सौ साल बाद मुक्त हो जाएगी।” इस वीर योद्धा के सम्मान में वर्ष 1967 में जोवाई में एक सरकारी कॉलेज भी खोला गया था। 2001 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया था।

3. श्री ताजी मिडरें और पोंज डेले

पूर्वी अरुणाचल प्रदेश के निचले दिबांग घाटी जिले के 25 परिवारों के एक गांव एलोप में पोंज डेले और ताजी डेले की वीर गाथाएँ प्रसिद्ध हैं। पोंज डेले और ताजी डेले ने तीन बेबेजिया मिश्मी अभियानों - 1900, 1914 और 1919 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दिसंबर 1917 में ताजी को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उसके बाद असम के तेजपुर ले जाया गया, जहां 1918 में उनको गिरफ्तार कर तेजपुर जेल में फाँसी पर लटका दिया गया था, जबकि 1919 में अंतिम अभियान में पोंगे की मृत्यु हो गई थी। इडु मिश्मी जनजाति के बसे हुए गांव वाले आज भी याद करते हैं कि डेढ़ सौ साल से भी पहले इसके दो निवासियों ने अंग्रेजों से बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी।  

4. श्री कुशल कोंवार

श्री कुशल कोंवर का जन्म 21 मार्च 1905 में हुआ था। कुशल जी का जन्म असम के गोलाघाट जिले में हुआ था। वह एक शाही परिवार से थे। अहोम साम्राज्य के शाही परिवार से होने पर उनको कोंवार कुल नाम दिया गया। जिसे बाद में उन्होंने छोड़ भी दिया था। कुशल जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बेजबरुआ स्कूल से हासिल की। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद कुशल जी ने 1918 में गोलाघाट के गवर्नमेंट हाई स्कूल में आगे की शिक्षा प्राप्त की। 1919 में जब ब्रिटिश सरकार ने जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंजाम दिया, उस दौरान कुशल केवल 17 वर्ष के थे। इसका प्रभाव जलियांवाला बाग तक ही सीमित नहीं था। इसका असर पूरे भारत में देखने को मिला था। इस हत्याकांड के विरोध में असहयोग आन्दोलन की शुरूआत हुई और इस आन्दोलन का प्रभाव असम तक पहुंचा और कुशल और अन्य युवा सेनानी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से उतरे। 10 अक्टूबर 1942 में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले कार्यक्रताओं ने सरूपथर की रेलवे की पटरी से स्लीपरों हटा दिए थे जिसकी वजह से वहां से गुजरने वाली सैन्य रेल गाड़ी पटरी से उतर गई। जिसमें हजारों की तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए। पुलिस ने इलाके को तुरंत घेर लिया और इस घटना को अंजाम देने वालों को ढ़ूंढना शुरू किया। इस घटना के लिए कुशल को आरोपी माना गया था। जबकी इस घटना में उनका कोई हाथ नहीं था। लेकिन फिर भी कुशल को रेलवे की तोड़फोड़ का मुख्य आरोपी माना गया और उनको इसके लिए गिरफ्तार किया गया। 5 नवंबर 1942 में उन्हें गोलाघाट लाया गया और वहां की जोरहाट जेल में बंद कर दिया गया। जेल में जब उनकी पत्नी प्रभावती उनसे मिलने गई तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि उन्हें गर्व है कि भगवान ने देश के लिए सर्वोच्चय बलिदान के लिए हजारों लोगों में से उन्हें चुना। फांसी से पहले जेल में बचे उनके शेष समय के दौरान उन्होंने अपना समय गीता पढ़कर बिताया। कुशल ने लगभग 112 दिन जेल में बिताए। 15 जून 1943 को शाम 4ः30 बजे कुशल कोंवर को फांसी दी गई।

5. श्री शूरवीर पसल्था

शूरवीर पसल्था खुआंग चेरा मिज़ो के पहले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। 1890 में ब्रिटिश सैनिकों को आगे बढ़ाने का विरोध करने की कोशिश करते हुए उन्हें मार दिया गया था। ऐज़ोल के पास चांगसिल में हुई गोलीबारी में खुआंगचेरा के साथ एक अन्य मिजो योद्धा, न्गुरबांग की मौत हो गई थी। आजादी की लड़ाई में मातृशक्ति जिन्होंने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष किया - बुकी, लल्हलुपुई, रोथंगपुई, वन्नुईथांगी, लल्थेरी, दरबिली, नेहपुईथांगी, पाविबाविया नु, दारी, थांगपुई, पकुमा रानी और ज़वलचुआई जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं है।

6. सुश्री भोगेश्वरी फुकनानी

भोगेश्वरी देवी फुकन (1872-1942) भारत की एक क्रांतिकारी महिला थीं जिन्होंने 1942 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय 70 वर्ष की वृद्धावस्था में असम में नौगाँव जिले के बेहरामपुर कस्बे में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। फुकनानी का जन्म वर्ष 1885 में असम के नागांव जिले के बरहामपुर में हुआ था। नागांव 20वीं सदी में राष्ट्रवादी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। फुकानानी, एक साधारण गृहिणी, एक पत्नी और आठ बच्चों की मां थी। जिन्हें राष्ट्रवाद के लिए दृढ़ विश्वास था। भोगेश्वरी फुकनानी ने अपने बच्चों को भारत की आजादी के आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था। 1942 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान करने का फैसला किया, तब वह साठ साल की थीं। यह आंदोलन असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों से अलग था। भोगेश्वरी फुकनानी ने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का नेतृत्व किया था। एक अंग्रेजी कप्तान ने रतनमाला के हाथों से राष्ट्रीय ध्वज छीनकर उसका अनादर किया था, जिसके बाद फुकानानी ने उस कप्तान को उसी ध्वज-पोल से मारा था। मार खाने के बाद कप्तान से वो अपमान सहन नहीं किया गया जिसके बाद उसने फुकनानी को गोली मार दी। गोली लगने के बाद फुकानानी ने अपना दम तोड़ दिया लेकिन अपने पीछे बहादुरी और देशभक्ति की विरासत छोड़ गई।

7. श्री मातमोर जमोह

वह एक क्रांतिकारी नेता थे जो ब्रिटिश वर्चस्व के विरुद्ध थे। इसलिए उन्होंने उन ब्रिटिश अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया, जो लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करते थे। सियांग नदी के बाएं किनारे पर सुंदर और शांत कोम्सिंग गांव स्थित है जहां मातमोर जामोह ने 31 मार्च, 1911 अंग्रेज़ अफसर नोएल विलियमसन की हत्या कर दी, जब वह राजा एडवर्ड सप्तम की मृत्यु का संदेश आदिवासी प्रमुखों तक पहुंचा रहा था। उनके एक अनुयायी ने अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी सियांग जिले में पांगी में एक डॉ ग्रेगरसन की हत्या कर दी। सेलुलर जेल में जहां उन्हें आत्मसमर्पण करने के बाद भेजा गया था, उनकी मृत्यु हो गई। 

क्रमशः.....(अगले अंक में)

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