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एमएसएमई की परिभाषा में विवादास्पद बदलाव

एमएसएमई की परिभाषा में विवादास्पद बदलाव
सरकार द्वारा एमएसएमई की परिभाषा को बदलकर, सीमा को प्लांट एवं मशीनरी से बदलकर ‘टर्न ओवर’ के आधार पर करने का प्रस्ताव काफी दिनों से आधिकारिक हलकों से चल रहा था। लेकिन इसके विरोध के चलते, सरकार ने परिभाषा प्लांट एवं मशीनरी में निवेश और ‘टर्न-ओवर’ दोनों के आधार पर करना तय किया और इस हेतु 1 जून 2020 को एक अध्यादेश जारी कर सूक्ष्म, लघु और माध्यम उद्यमों के लिए निम्न परिभाषा निश्चित की है - 1. सूक्ष्म उद्यम वह है जिसमें संयंत्र और मशीनरी अथवा उपस्कर में एक करोड़ रूपए से अधिक का निवेश नहीं होता है, तथा उसका करोबार पांच करोड़ से अधिक नहीं होता है। 2. लघु उद्यम वह है जिसमें संयंत्र और मशीनरी अथवा उपस्कर में पांच करोड़ रूपए से अधिक का निवेश नहीं होता है, तथा उसका करोबार 50 करोड़ से अधिक नहीं होता है। 3. मध्यम उद्यम वह है जिसमें संयंत्र और मशीनरी अथवा उपस्कर में 50 करोड़ रूपए से अधिक का निवेश नहीं होता है, तथा उसका करोबार 250 करोड़ से अधिक नहीं होता है।
इस अधिसूचना को 1 जुलाई 2020 से लागू कर दिया गया है।
चूंकि कई उद्यम ऐसे रहते हैं, जहां संयंत्र, मशीनरी एवं उपस्कर तो कम होते हैं, लेकिन उनकी टर्नओवर काफी ज्यादा होती है। ऐसे में इस प्रकार के भारी कारोबार करने वाले उद्यम भी एमएसएमई की श्रेणी में आ जाते थे। इसलिए ‘निवेश’ और ‘कारोबार’ दोनों के समिश्रण से उस समस्या का समाधान तो हो गया है। लेकिन वर्तमान अध्यादेश के अन्य प्रावधानों के चलते यह विवादों के घेरे में है। लघु उद्योगों के कई संगठन इस अध्यादेश का पुरजोर विरोध भी कर रहे हैं।
इन संगठनों की पहली आपत्ति इस बात को लेकर है कि एमएसएमई की इस परिभाषा में विदेशी पूंजी प्राप्त उद्योगों को अलग नहीं किया गया है। देशीय लघु उद्यमों का मानना है कि ऐसे में बड़े विदेशी निवेशक लघु उद्यमों का स्थान हस्तगत कर लेंगे। उदाहरण के लिए यदि कोई विदेशी उद्यमी 50 करोड़ रुपए तक के निवेश और 250 करोड़ तक कारोबार के साथ मध्यम श्रेणी के उद्यम के लाभ हस्तगत कर सकेंगे और भारतीय उद्यमों को नुकसान होगा। 
नए अध्यादेश पर दूसरी आपत्ति यह है कि इस अध्यादेश में पूर्व के एमएसएमई अधिनियम (2006) के अनुरूप मैन्युफैक्चरिंग और सेवा उद्यमों में भेद नहीं किया गया है। गौरतलब है कि एमएसएमई अधिनियम, 2006 के अनुसार सूक्ष्म उद्यमों में सेवा क्षेत्र में संलग्न उद्यमों की निवेश की सीमा मात्र 10 लाख रूपए थी, जबकि मैन्युफैक्चरिंग में यह 25 लाख रूपए थी। लघु सेवा उद्यमों में निवेश की सीमा 2 करोड़ रूपए, मध्यम सेवा उद्यमों में यह 5 करोड़ रूपए ही थी। समझना होगा कि लघु मैन्युफैक्चरिंग उद्यम उनमें रोजगार सृजन के अवसरों के नाते जाने जाते हैं। समझना होगा कि सेवा क्षेत्र में रोजगार सृजन की संभावनाएं मैन्युफैक्चरिंग से बहुत कम होती है। इसलिए जब विषय रोजगार के लिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने का हो तो सेवा क्षेत्र के उद्यमों को मैन्युफैक्चरिंग के समकक्ष रखना सही नहीं होगा। इसलिए ट्रेडिंग और असेम्बलिंग आदि सेवाओं को मैन्युफैक्चरिंग से भिन्न माना जाना ही सही होगा, अन्यथा मैन्युफैक्चरिंग के लिए प्रोत्साहन घटेगा।
नए अध्यादेश के संदर्भ में तीसरी अपत्ति यह है सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की परिभाषा को बदलने के संदर्भ में जहां लघु उद्यमों में निवेश (संयंत्र और मशीनरी अथवा उपस्कर में निवेश) की सीमा को 5 करोड़ से दुगना कर 10 करोड़ रूपए की गई है, लेकिन मध्यम श्रेणी के उद्यमों के लिए यह 10 करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ (5 गुणा अधिक) कर दी गई है। यानि ऐसा प्रतीत होता है कि बड़े उद्यमों को भी एमएसएमई की श्रेणी में लाने का यह प्रयास है। इससे अभी तक के एमएसएमई का लाभ अब अपेक्षाकृत बहुत बड़े उद्यमों को भी मिलने वाला है। यह कुछ अटपटा और अजीब लगता है। इस अध्यादेश का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जो ध्यान में आ रहा है कि एमएसएमई में विदेशी निवेश प्राप्त उद्यमों को भी शामिल रखा गया है। लघु उद्यमों के संगठनों की मांग है कि विदेशी निवेश प्राप्त उद्यमों को एमएसएमई परिभाषा शामिल नहीं किया जाना चाहिए।
एक अन्य आपत्ति यह है कि जब ‘टर्न ओवर’ यानि कारोबार का प्रश्न आता है तो उसमें से निर्यात के कारोबार को हटाकर देखा जाएगा। इस बात का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि यदि कोई बड़ा उद्यमी (या निर्यातक) जिसका संयंत्र और मशीनरी अथवा उपस्कर में तो निवेश कम है, लेकिन बड़ी मात्रा में निर्यात करता है तो वह देश के एमएसएमई के समकक्ष आ सकता है। उदाहरण के लिए यदि कोई फर्म 1000 करोड़ रूपए का निर्यात करती है और 250 करोड़ रूपए का कारोबार देश में करती है, लेकिन संयंत्र और मशीनरी में निवेश 50 करोड़ रूपए या कम है तो भी वह एमएसएमई की परिभाषा में आ जाएगी। यह भी अत्यंत अटपटा है।
हमें देखना होगा कि फर्मों को उसके आकार और कुल कारोबार के अनुसार ही वर्गीकृत किया जाना चाहिए। किसी भी हालत में निर्यात अथवा किसी और बहाने से बड़ी फर्मों को एमएसएमई की श्रेणी में लाया जाना, लघु उद्यमों को प्रश्रय देने के औचित्य को ही समाप्त कर देगा। यानि कहा जा सकता है कि सरकार को वर्तमान नोटिफिकेशन पर नए सिरे से विचार कर सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्यमों को सही प्रकार से परिभाषित करना चाहिए, ताकि लघु उद्यमों को बढ़ावा देकर देश में रोजगार, वितरण में समानता, विकेन्द्रीकरण आदि के लक्ष्यों को भलीभांति प्राप्त किया जा सके।

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