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कांग्रेस के लिए दिल्ली दूर है अभी

हालांकि भारत जोड़ो यात्रा ने लगभग मरणासन्न कांग्रेस को नया मकसद दिया पर लोग अब भी इसे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के चुनावी विकल्प के तौर पर नहीं देख रहे हैं। यहां तक कि एक राष्ट्रीय विपक्षी गठबंधन भी अभी दूर की कौड़ी ही लग रहा है। 14 राज्यों के 75 जिलों से गुजरते हुए लगभग 3500 किलोमीटर की पदयात्रा से राहुल गांधी की छवि में बेशक सुधार आया है लेकिन दिल्ली का तख्त ओ ताज अभी भी उनकी पहुंच से काफी दूर है।
- के.के. श्रीवास्तव

 

पिछले साल पांच राज्यों के चुनाव में अपमानजनक हार के बाद कांग्रेस पार्टी ने पदयात्रा के माध्यम से खुद को फिर से मजबूत करने का प्रस्ताव रखा था ताकि आम आदमी के साथ टूटते रिश्ते को फिर से कायम किया जा सके। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 14 राज्यों के 75 जिलों का भ्रमण करते हुए 135 दिनों की यात्रा पूरी कर ली है। यात्रा के दौरान उन्होंने हर जगह यह संदेश दिया कि भारतीय जनता पार्टी देश में नफरत का बीज बो रही है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ही इस चुनौती को बेअसर कर सकती है तथा मोहब्बत के साथ समाज के हर वर्ग को एक साथ जोड़ सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस पदयात्रा ने भीड़ को आकर्षित किया तथा कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं को कुछ उत्साहित भी किया। कांग्रेस पार्टी के इस अभियान से राहुल गांधी की छवि में भी बहुत हद तक सकारात्मकता ही है। प्रतिदिन 20 किलोमीटर पैदल चलना चलते हुए आम लोगों के गले लगना तथा उनसे मिलकर उनकी बातों को ध्यान से सुनना जैसी गतिविधियां लोगों को अच्छी लगी। सोशल मीडिया के सम्यक प्रयोग तथा बड़े स्तर पर यात्रा को जमीनी बनाने के कौशल को लेकर संगठन में भी चर्चा बड़ी है। पार्टी का कह सकते हैं कि पुनर्वास तो हुआ लेकिन पार्टी के नाते उठने वाले महत्वपूर्ण सवालों के जवाब अभी भी आने बाकी है।

बीते 8 सालों में ज्यादातर आलोचकों यहां तक कि पार्टी के कट्टर समर्थकों ने भी इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी के भविष्य को लेकर तमाम उम्मीदें तज दी थी। केवल चुनावी पराजय के वजह से नहीं बल्कि इसलिए भी कि जिस तरह खराब तैयारी के साथ लड़खड़ा ती हुई चुनावी राजनीति में कांग्रेसी उतरती है, गुटीय झगड़ों को काबू में नहीं कर पाती, शीर्ष नेतृत्व उनीदा रहता है और सबसे अहम की जनता की नब्ज सही नहीं पहचान पाती। कांग्रेस के कई शीर्ष नेता जिनमें राहुल के कुछ करीबी विश्वासपात्र भी थे पार्टी छोड़ कर चले गए। मध्य प्रदेश हो या कर्नाटक चुनाव जीतकर भी पार्टी सत्ता गंवा बैठी। पंजाब दिल्ली और मेघालय जैसे राज्यों में उसे आम आदमी पार्टी और तृणमूल पार्टी के लिए जगह खाली करनी पड़ी।

यात्रा ने पार्टी को उसकी संगठिनिक सुस्ती से झकझोरा है लेकिन लोगों को अब भी भरोसा नहीं है कि कांग्रेस के पास आखिरी अवरोध यानि चुनावी बलिवेदी को पार करने की कुब्बत है।

यात्रा से इस बात के भी कोई संकेत नहीं मिलते इस यात्रा का मंतव्य क्या था? क्योंकि इस यात्रा को चुनावी यात्रा के रूप में भी जोड़ कर किसी ने नहीं देखा क्योंकि चुनाव जीतने के लिए एक स्पष्ट चुनावी एजेंडा, केंद्रित नेतृत्व, समर्पित संगठन, प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और निश्चित रूप से पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता होती है। अगर पार्टी इस यात्रा को इस एजेंडे पर सही साबित करने की कोशिश करती है तो उसमें संदेह होता है। वैसे भी सपना देखना और फिर उस सपने को मूर्त रूप देना दो अलग-अलग चीजें हैं। चुनावी हार जीत तो वैसे भी एक दूसरे तरह का खेल है।इसमें कोई संदेह नहीं कि 2019 में मोटे तौर पर 119 मिलियन लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था लेकिन यह पर्याप्त नहीं है विशेष रूप से आप और तृणमूल कांग्रेस की नई चुनौतियों के सामने वास्तव में कांग्रेस मुक्त विपक्ष के बारे में दबी हुई बातें अभी हवा में है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले 2023 में 9 राज्यों के चुनाव होने हैं। ऐसे में राहुल गांधी की हाल में खत्म हुई यात्रा एक भव्य पुरानी पार्टी को देर से ही सही उत्प्रेरित करने की जगह कुछ घमंडी महत्वाकांक्षा वाली परियोजना ही प्रतीत होती है।

सच है कि लोगों में सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर असंतोष है जैसा कि भारत जैसे एक विशाल और विविध लोकतंत्र में बहुत स्वाभाविक भी है, लेकिन सत्तारूढ़ शासन के प्रति यह असंतोष छिटपुट ही है। पीड़ादायक आवाज को धैर्य पूर्वक सुनना एक बात है लेकिन ऐसी शिकायतों को एक कड़े राजनीतिक अभियान में पिरो कर उस आधार पर चुनाव जीतना एक कठिन काम है। वर्तमान में कांग्रेस ऐसे कार्यों को कर पाने में विफल ही दिखती है। क्योंकि यात्रा के दौरान भी विशेष रूप से आमंत्रित किए जाने के बावजूद सहयात्री के रूप में विपक्षी दलों ने लगभग शामिल होने से इनकार कर दिया। एनडीए को सत्ता से हटाने के लिए केंद्र में कांग्रेस के पास एक शक्तिशाली यूपीए होना चाहिए। अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि इस दिशा में कोई कदम उठाया जा रहा है। इस तरह के प्रयासों के अभाव में संयुक्त भाजपा और खंडित विपक्ष के सामने सत्तारूढ़ एनडीए को 2024 में फिलहाल कोई चुनौती नहीं दिखाई देती है। यदा-कदा जो थोड़े बहुत असहमति के स्वर स्वर दिखाई देते हैं वह भी भाजपा के राष्ट्रवाद के मुकाबले बहुत ही कमजोर है।

उदयपुर चिंतन शिविर में संगठन को अधिक लोकतांत्रिक और युवा बनाने सहित संरचनात्मक सुधारों की बात की गई। भाजपा सरकार का काम भले ही अभी जमीन पर उतना नजर नहीं आ रहा है लेकिन जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं का जोश भरा हुआ है। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी कांग्रेस के जरिए विपक्षी एकता को अमलीजामा पहनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनकी सारी मेहनत दिनभर चले अढ़ाई कोस वाली ही है।

हालांकि कांग्रेस पार्टी 2024 की चुनौती से निपटने के लिए खुद को दो मुख्य मुद्दों पर तैयार कर रही है पहला संगठन को पुनर्जीवित करना और सक्रिय करना तथा दूसरा उस विचारधारा का प्रचार करना जिसमें पार्टी हमेशा से दृढ़ता से विश्वास करती रही है। अभी हाल ही में पार्टी को संबोधित करते हुए पार्टी के अध्यक्ष खड़गे ने कहा भी था कि संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की जिम्मेवारी कांग्रेस पर है। प्रत्येक भारतीय को यह महसूस करना चाहिए कि कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील और उदार भारत के सपनों को साकार करने का माध्यम रही है। कांग्रेस पार्टी को सभी भारतीयों को साथ लेकर इसके लिए आवाज उठानी चाहिए तथा कड़ी मेहनत करनी चाहिए। कहने के लिए तो यह विचार बड़े ही अच्छे हैं लेकिन इसे क्रियान्वित कैसे किया जाए इसके लिए अब भी कांग्रेस के पास कोई रोडमैप नहीं है।

सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस पार्टी का मुकाबला एक ऐसी राष्ट्रवादी पार्टी से है जिसमें नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के नेतृत्व में भाजपा एक बहुत ही फिट, आक्रामक, जुझारू और चुनाव जीतने वाली मशीन की तरह है। भाजपा ने हाल ही में 200 सीटों में लगभग 130000 मतदान केंद्रों की पहचान की है जहां बीजेपी या तो कभी नहीं जीती है या बहुत कम अंतर से हारी है।भाजपा ने तय किया है कि ऐसे प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में एक पूर्णकालिक प्रभारी होगा जो अगले लोकसभा चुनाव तक वही रहेगा। भाजपा हमेशा चुनाव के लिए तैयारी की अवस्था में रहती है। सभी केंद्रीय मंत्रियों को निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए जाएंगे। उसके बाद उन्हें केंद्र के प्रमुख कार्यक्रमों के वितरण और प्रसार की निगरानी करने का काम सौंपा जाएगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लाभ लक्षित लोगों तक पहुंच रहा है अथवा नहीं। बीजेपी के अनुशासित संगठनात्मक तंत्र में चुनाव की तैयारियां हमेशा हरी बत्ती के मोड में होती है। राहुल गांधी का मुकाबला एक ऐसी सशक्त पार्टी से है जिसकी डिक्शनरी में हार मानना नहीं है। ऐसे में पदयात्रा से उत्साहित कांग्रेस पार्टीचुनाव में अपने पक्ष में कितने लोगों को सक्रिय कर पाती है यह तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन मौजूदा संकेत यही बता रहे हैं कि राहुल गांधी के लिए दिल्ली की यात्रा अभी न सिर्फ लंबी है बल्कि कठिन भी है।

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