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भारतीय रुपए में वैश्विक व्यापार निपटान की राह आसान

रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था को सबसे पहले बढ़े हुए व्यापार और एफडीआई प्रवाह के माध्यम से वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी एकीकरण को बढ़ाएगा। - अनिल तिवारी

 

भारतीय रिजर्व बैंक ने घोषणा की है कि भारत का अंतरराष्ट्रीय व्यापार भारतीय रुपए में भी होगा। निर्णय के अनुसार भारतीय निर्यातकों और आयातकों को व्यापार के लिए डालर की अनिवार्यता नहीं रहेगी। दुनिया का कोई भी देश भारत से सीधे बिना अमेरिकी डालर के व्यापार कर सकता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के इस कदम से भारतीय रुपए को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में एक करेंसी के लिए स्वीकार करवाने की दिशा में मदद मिलेगी। इससे भारत के वैश्विक उद्देश्यों को साधने के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक मजबूती मिलेगी। इस तंत्र को लागू करने से पहले बैंकों को आरबीआई के विदेशी मुद्रा विभाग से पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता भी होगी। ऐसे में इसके तात्कालिक प्रभाव का भी आकलन करना आवश्यक होगा।

रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था को सबसे पहले बढ़े हुए व्यापार और एफडीआई प्रवाह के माध्यम से वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी एकीकरण को बढ़ाएगा। भारत अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और कई देशों के लिए एक महत्वपूर्ण व्यापारिक भागीदार भी। वर्ष 2021-22 में दुनिया के साथ भारत का कुल व्यापार 1 ट्रिलियन से अधिक का था, जो निर्यात के साथ वित्तीय वर्ष में पहली बार 400 बिलियन डॉलर का आंकड़ा पार कर गया था। भारत विदेशी निवेश के लिए एक पसंदीदा गंतव्य के रूप में उभरा है। इससे व्यापार और निवेश के प्रवाह में भी वृद्धि होगी।

दूसरा, रुपए का अंतरराष्ट्रीयकरण वित्तीय बाजारों के विकास को बढ़ावा देगा। एडीबी के एक अध्ययन के अनुसार अंतरराष्ट्रीय साक्ष्य बताते हैं कि व्यापार निपटान के संदर्भ में मुद्रा अंतर्राष्ट्रीयकरण का वित्तीय बाजार के विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मुद्रा अंतर्राष्ट्रीयकरण में एक इकाई की वृद्धि से वित्तीय बाजार के विकास में निजी ऋण के मामले में 0.2 प्रतिशत अंक और शेयर बाजार के कुल मूल्य के मामले में 0.7 प्रतिशत अंक की वृद्धि होने की संभावना है।

तीसरा, रुपए का अंतरराष्ट्रीयकरण वित्तीय संस्थानों के लिए मुद्रा बेमेल को कम करने में सहायक होगा। चौथा, भारत उच्च व्यापार घाटे का सामना कर रहा है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार व्यापार घाटा पिछले वर्ष के 102.63 बिलियन डालर की तुलना में बढ़कर 192.21 बिलियन डालर तक पहुंच गया है। इस तेजी से बढ़ती वृद्धि का प्राथमिक कारण प्रमुख वस्तुओं के आयात विशेष रूप से कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि है। यह अनुमान लगाया गया है कि प्रमुख आयातो के लिए रुपए का उपयोग करने से व्यापार घाटे को कम करने में मदद मिलेगी।

पांचवा, रुपए के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए नीतिगत निर्णय अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ भारत के व्यापार को बढ़ाने में एक लंबा रास्ता तय करेगा। नेपाल और भूटान के साथ भारत के अंतरराष्ट्रीय लेनदेन को पहले भी रुपए का उपयोग करके आधिकारिक तौर पर संचालित करने की अनुमति दी गई थी। भौगोलिक निकटता कारणों के अलावा इस ने भारत को इन दोनों देशों के लिए सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में उभरने में भी मदद की थी। यह कदम अब रुपए को सभी दक्षिण एशियाई देशों के साथ अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन में आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल करने की अनुमति देगा, और क्षेत्र में भारत की प्रमुख स्थिति को बहाल करने में मदद करेगा।

लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत के प्रमुख व्यापारिक साझेदार अंतरराष्ट्रीय व्यापार निपटान के लिए रुपए को स्वीकार करते हैं अथवा नहीं। डॉलर को दुनिया की सबसे मजबूत मुद्राओं में से एक के रूप में मान्यता दी गई है और इसे दुनिया के लगभग सभी देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार लेनदेन के लिए पसंद की मुद्रा के रूप में स्वीकार किया गया है।

इस क्रम में हमें अमेरिकी डालर के वैश्विक मुद्रा के रूप में स्वीकृति और उसके दबदबे को समझने की सख्त जरूरत है। इंटरनेशनल स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन लिस्ट के अनुसार दुनिया भर में कुल 185 मुद्राएं हैं, लेकिन सभी देशों के केंद्रीय बैंकों में जमा कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 64 प्रतिशत अमेरिकी डालर है। दुनिया के संपूर्ण व्यापार का 85 प्रतिशत व्यापार आज भी डालर में होता है। संसार के समस्त कार्यों में डालर की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत के आसपास है। यही कारण है कि अमेरिकी डालर दुनिया की सबसे स्वीकारी मुद्रा बनी हुई है।

वैसे तो अर्थशास्त्र का एक सामान्य नियम है कि अगर किसी देश की मुद्रा मजबूत होती है तो उसकी अर्थव्यवस्था पर कई एक नकारात्मक असर पड़ता है, लेकिन अमेरिका के मामले में इसका उलट होता है। जैसे ही अमेरिकी डॉलर मजबूत होता है वैसे ही तमाम वैश्विक निवेशक अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वापस लौट आते हैं। डालर के मजबूत होने से उनका आयात सस्ता हो जाता है जिससे सामान्य उपभोग की चीजें सस्ती हो जाती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का 70 प्रतिशत हिस्सा उपभोग पर आधारित है। हालांकि दुनिया को कई बार इसका नुकसान भी उठाना पड़ता है, जैसे वर्ष 2008 में अमेरिका की स्थानीय नीतियों के कारण आई मंदी ने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। इसके बाद चीन और रूस जैसे देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डालर के वर्चस्व को तोड़ने की आवश्यकता पर जोर दिया था।।

बाद में चीन और रूस ने अपना आपसी व्यापार अपनी अपनी मुद्रा में शुरू कर दिया। रूस के केंद्रीय बैंक के अनुसार वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में रूस और चीन के बीच व्यापार में डालर की हिस्सेदारी पहली बार 50 प्रतिशत के नीचे चली गई जो कि वर्ष 2015-16 में 90 प्रतिशत थी। रूस यूक्रेन युद्ध के बाद जब रूस पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए तब भी चीन रूस का व्यापार यथावत जारी रहा। हाल के वर्षों में जब हमारा सामना कोविड-19, विश्व आपूर्ति श्रृंखला में बाधा और रूस यूक्रेन युद्ध के बाद पैदा हुई आर्थिक उथल-पुथल से हुआ तब भारत के नीति निर्माताओं ने भी देश के आर्थिक हितों के संबंध में सोचने पर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वैश्विक अर्थव्यवस्था में किसी भी रूप में एकाधिकारी प्रवृत्ति या किसी भी आपूर्ति के लिए एक देश पर निर्भरता भारत के या किसी भी देश के दीर्घकालिक हितों के प्रतिकूल है। किसी देश की मुद्रा की कीमत के निर्धारण में उसके आयात निर्यात के आकार, अर्थव्यवस्था का प्रबंधन और वैश्विक आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का हाथ होता है। हाल में डालर की तुलना में रुपया भले ही कमजोर हुआ है लेकिन अन्य मुद्राओं की अपेक्षा सबसे कम गिरा है। जापानी येन, चीनी युआन सहित अन्य मुद्राओं की तुलना में रुपया मजबूत ही हुआ है। अभी एक अमेरिकी डालर के बदले 138 जापानी येन मिल रहा है जबकि 2018 में 110 येन मिलते थे। वहीं 2007 में एक यूरो के बदले 1.6 डालर मिलता था जबकि आज एक यूरो 1 रूपये के बराबर हो गया है। भारतीय रुपए की मजबूती का कारण भारत में राजनीतिक स्थिरता, भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्वों का मजबूत होना और मुद्रास्फीति के बावजूद भारत में लगातार मांग का बने रहना है। भारत आज विश्व की सर्वाधिक तेजी के साथ रिकवरी करने वाली अर्थव्यवस्था में शामिल है। यह कहा जा सकता है कि आगामी वर्षों में जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा और निर्यात में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी वैसे वैसे भारतीय रुपया भी मजबूत हो सकता है।

अब आरबीआई के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने निर्णय को वैश्विक स्तर पर लागू करवाने की होगी। इसके लिए उसे बड़े पैमाने पर भारतीय बैंकों की वैश्विक उपस्थिति सुनिश्चित करनी होगी। कारोबारी देश के केंद्रीय बैंकों से समायोजन करना होगा। रुपए में लेनदेन के लिए देश के आयातकों और निर्यातकों को किसी भी व्यवसायिक बैंक में खाता खोलना होगा। फिर रुपए का मूल्य वास्तविक बाजार मूल्य पर निर्धारित करते हुए उस देश की मुद्रा में सीधे हस्तांतरित किया जा सकेगा। इसका तात्कालिक लाभ भारत को ईरान रूस के साथ उन देशों के साथ व्यापार में भी मिलेगा जिनके पास या तो अमेरिकी डॉलर नहीं है या जो अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण व्यापार नहीं कर पा रहे हैं। भारत अपनी आवश्यकताओं का 90 प्रतिशत तेल और गैस आयात करता है इसलिए रुपए में व्यापार से भारत लाभ की स्थिति में होगा। कुल मिलाकर भारतीय रिजर्व बैंक के इस निर्णय से भारत की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता और लगातार बढ़ रहे कद के कारण रुपए को अंतर्राष्ट्रीय करेंसी के रूप में स्थापित करने में मदद मिल सकती है। 

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