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खाद्य तेल नीति, आयात पराश्रयता एवं बढ़ता रोग भार

देश में जिस प्रकार विगत 5 वर्षो में दलहनों के उत्पादन संवर्द्धन हेतु जिस प्रकार के ध्येयनिष्ठ प्रयत्न किए गये थे। उसी ध्येयनिष्ठतापूर्वक तिल, सरसों, मूंगफली आदि के उत्पादन को बढ़ावा देने पर देश का पुनः स्वास्थ्यकारक तेलों अर्थात तिल, सरसों व मूंगफली आदि के तेलों में स्वावलम्बी बनाया जा सकेगा। — प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा

 

देश में पारम्परिक खाद्य तेलों में 1990 से पॉम ऑइल आदि सस्ते आयातित तेलों के सम्मिश्रण की छूट के कारण एवं खाद्य तेलों के आयात प्रोत्साहन की नीति से देश खाद्य तेलों में आयातों पर आश्रित हो गया है और जनता के रोग भार में भी अत्यधिक वृद्धि हो गयी है। देश में खाद्य तेलों में आज सरसों, तिल व मूंगफली आदि के पारम्परिक खाद्य तेलों का स्थान  लगभग 50 प्रतिशत पॉम ऑइल व 25 प्रतिशत सोयाबीन  तेल ने स्थान ले लिया है। खाद्य पदार्थों में मिलावट एक संज्ञेय व दंडनीय अपराध है। नब्बे के दशक में खाद्य तेलों में आयातित सस्ते पॉम ऑइल आदि के सम्मिश्रण की छूट का शासकीय आदेश भी ऐसा आपराधिक ही मिलावट को बढ़ावा देने वाला आदेश ही कहा जा सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से विदित हो रहा है कि, पॉम ऑइल हृदयरोग, कैंसर, रक्त के थक्के बनने जैसी कई बीमारियों का जनक है। सोयाबीन तेल भी कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में हुए ताज़ा अनुसंधानों के अनुसार मस्तिष्क में अनुवांशिकीय अपक्षय कारक पाया गया है। आर्थिक दृष्टि से भी पॉम ऑइल व सोयाबीन जैसे तेलों ने गाँव-गाँव में विद्यमान छोटे-छोटे तेल निकालने के संयंत्रों को चौपट कर लाखों को रोजगार प्रदान करने वाले सूक्ष्म व लघु उद्यमों को ही उजाड़ दिया है व उनके स्थान पर बड़े-बड़े साल्वेंट एक्सट्रैक्शन संयंत्रों को ही पनपाया है। तेलों के आयात प्रोत्साहन की इस नीति ने खाद्य तेल निर्यातक देश को स्वाधीनता के बाद खाद्य तेलों में आयतों पर पराश्रित कर दिया। आज देश को अपने वार्षिक उपभोग के 60-70 प्रतिशत तक तेल का लगभग 80,000 करोड रुपयों की कीमत पर वार्षिक आयात करना पड़ रहा है।

तेल निर्यातक भारत आयातों पर पराश्रित

स्वाधीनता के समय भारत खाद्य तेल का निर्यातक देश रहा है। उसके बाद भी मध्य सत्तर के दशक तक भारत खाद्य तेलों में लगभग स्वावलम्बी रहा है। देश में चली काले धन व जमाखोरी की जनक आर्थिक नीतियों से आवश्यक पदार्थो की बनावटी कमी के दौर में भी, मध्य सत्तर के दशक तक भारत तेलों में पूर्ण स्वावलम्बी रहा। उसके बाद से लीवर जैसी विदेशी व अन्य वनस्पति घी उत्पादक कंपनियों व विदेशी तेल उत्पादकों के हित में सीमित आयात के नाम पर अपनायी खाद्य तेलों के आयात प्रोत्साहन की नीति के बाद भी देश मध्य सत्तर के दशक से अस्सी के दशक तक भी खाद्य तेलों में 90-95 प्रतिशत तक स्वावलम्बी बना रहा। खाद्य तेलों के उदार आयात की आत्मघाती नीति के बाद भी देश के कृषकों व असंगठित क्षेत्र की खाद्य तेल घाणियों व विकेन्द्रित उत्पादन के फलस्वरूप नब्बे के दशक के प्रारम्भ में भी 1991-94 के बीच देश खाद्य तेलों में पुनः पूर्ण स्वावलम्बी बन गया था। 

स्वाधीनता के बाद से ही लीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां, घी के नाम पर डालडा के नाम से व अन्य भी ब्रांडों में कई कम्पनियाँ हइड्रोजनीकृत वनस्पति घी लेकर आयी थीं। इससे देश में बड़े पैमाने पर देशी घी में मिलावट का मार्ग भी खुल गया और खाद्य तेलों का स्थान भी वनस्पति घी ने लेना आरम्भ कर दिया। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने से तब वनस्पति घी का भारी विरोध होने लगा व इसे कई बार प्रतिबंधित करने की भी  मांग उठी। भारी जनाक्रोश के चलते इस पर प्रतिबन्ध हेतु एक समिति भी बनी व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक को जनाक्रोश शांत करने हेतु इस पर प्रतिबन्ध के लिए जनमत संग्रह तक कराना पड़ा था। लेकिन, वनस्पति घी उत्पादकों ने इस पर प्रतिबन्ध का निर्णय लागू नहीं होने दिया। वनस्पति घी के उत्पादन में बेहतर लाभार्जन हेतु तब सरकार ने वनस्पति घी में मूंगफली व सरसों आदि के खाद्य तेलों का उपयोग प्रतिबंधित कर इसमें आयातित सस्ते पामोलीन के उपयोग तक अनुमोदन कर दिया था। ऐसा करके तो सरकार ने देशी घी व शुद्ध खाद्य तेलों को रसोई घरों से बाहर कर इन नकली घी उत्पादकों के लाभखोरी का मार्ग ही प्रशस्त किया। परिणामतः देश के किसानों के लिए तिलहन की खेती अलाभप्रद हो गयी एवं पशुपालन भी प्रभावित होने लगा। बड़ी संख्या में परिवार व खाद्य पदार्थ उत्पादक शुद्ध तेल की तुलना में सस्ते पामोलिन से बने स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद वनस्पति का उपयोग करने को बाध्य हुए। इसके बाद 1990 से देश में सरसों के तेल व घरेलू खाद्य तेलों में 80 प्रतिशत तक पाम ऑइल के सम्मिश्रण अर्थात मिलावट खाद्य की अनुमति दे दी। वर्ष 1994 में नरसिंहराव की अल्पमत सरकार द्वारा विश्व व्यापार संगठन के समझौतों को अनुमोदन कर खाद्य तेलों को खुली आयात सूची में लाकर खाद्य तेलों पर आयात शुल्क को घटाकर 65 प्रतिशत कर दिया जो अंततः घटाकर 15 प्रतिशत तक कर दी गयी।  

हाल ही में सरकार ने सरसों के तेल में पाम ऑइल आदि के सम्मिश्रण को प्रतिबंधित कर दिया है। लेकिन, देश में खाद्य तेलों के उत्पादन में वृद्धि कर आपूर्ति बढ़ाने के लिए ताड़ (ऑयल पाम) की खेती के प्रोत्साहन की नीति घोषित कर दी है। इससे देश में पारंपरिक खाद्य तेलों का चलन और भी कम हो जायेगा। पहले ही सरसों, तिल एवं मूंगफली आदि के पारंपरिक तेलों का चलन और भी कम हो जायेगा। पहले ही इन पारंपरिक तेलों का उपभोग लगभग एक चौथाई रह गया है। सस्ते पाम ऑयल के कारण किसान इन पारंपरिक तिलहनों की खेती से हतोत्साहित होगा। परिणामस्वरूप अनेक रोगों के कारक पाम ऑयल पर अधिकांश जनता निर्भर हो जायेगी। पिछले वर्ष सरकार ने सरसों के तेल में 80 प्रतिशत तक पामोलीन आदि के मिलावट की 1990 से चली आ रही नीति को तो अब बदलकर, इस प्रकार के सम्मिश्रण पर तो रोक लगाकर एक स्वागत योग्य कदम उठाया है। अगले चरण में अब सरसों, तिल व मूंगफली आदि के पारम्परिक स्वस्थ तेलों को बढ़ावा देने हेतु इन पारम्परिक तिलहनों की खेती को भी दलहन की भांति ही बढ़ावा देना चाहिए। अन्यथा एक बार देश में ऑयल पाम के पेड़ों को बड़े पैमाने पर लगा देने के बाद हमारी अगली पीढ़ियां स्थायी रूप से रोग कारक आम ऑयल पर ही आश्रित हो जायेगी। 

स्वास्थ्य के लिए संकट

आज जब देश में कुल खाद्य तेलों के उपभोग में 50 प्रतिशत अंश पाम-ऑइल व 25 प्रतिशत अंश सोयाबीन तैल का हो जाने से पारम्परिक तेलों का अंश घटकर 25 प्रतिशत रह गया है। ऐसे में देश में हृदयावरोध, कैंसर, यकृत व गुर्दा रोगों एवं मस्तिष्क में अपक्षय आदि की समस्याएं तेजी से बढ़ रहीं हैं। विश्व के रोगभार में 21 प्रतिशत अंश आज भारत का हो गया है। पाम-ऑइल में आधे से अधिक संतृप्त फेट्टी एसिड (सेचुरेटेड फेट्टी एसिड) के होने से वह हृदयावरोध बढ़ाता हैं। पाम-ऑइल को उबाले जाने पर उससे ग्लाइसीडिल ईस्टर एसिड बनते हैं। ये यकृत, गुर्दे के रोग उत्पन्न करने के साथ ही कैंसर कारक भी पाये गये है। चूहों में कैंसर के प्रयोगों के बाद वैज्ञानिकों का कथन है कि इनसे मानव में कैंसर की पूरी संभावनाएं दिखाई देती हैं। 

सोयाबीन तेल पर 2015 में हुए प्रयोगों के अनुसार ये मस्तिष्क पर अनुवांशिकीय अपक्षय कारक सिद्ध हुआ है। यह करीब 100 विषाणुओं अर्थात जींस को अवरुद्ध करता है। यह ऑक्सीटॉसिन उत्पादक वंशाणुओं (ऑक्सीटोसीन हार्मोन प्रोडूसिंग जीन) को भी अक्षम बना देता है। चूहों को सोयाबीन तेल खिलाने पर उनमें ऑक्सीटोसीन हार्मोन की उत्पत्ति अवरुद्ध होकर घट गई। ऑक्सीटोसीन हार्मोन स्नेह का हार्मोन होता है। यह मनुष्य व पशुओं में अभिभावकों व शिशुओं में पारम्परिक स्नेह का हार्मोन माना जाता है। 

निष्कर्ष

पाम-ऑइल व सोयाबीन के तेल के आयात व उत्पादन को बढ़ावा देने और देश में तेल उत्पादक ताड़ अर्थात ऑइल पाम की खेती को प्रोत्साहित किए जाने के स्थान पर पारम्परिक तिलहनों की खेती व इन्ही तिलहनों से तेल निष्कर्षण के सूक्ष्म व लघु उद्यमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। देश में जिस प्रकार विगत 5 वर्षो में दलहनों के उत्पादन संवर्द्धन हेतु जिस प्रकार के ध्येयनिष्ठ प्रयत्न किए गये थे। उसी ध्येयनिष्ठतापूर्वक तिल, सरसों, मूंगफली आदि के उत्पादन को बढ़ावा देने पर देश का पुनः स्वास्थ्यकारक तेलों अर्थात तिल, सरसों व मूंगफली आदि के तेलों में स्वावलम्बी बनाया जा सकेगा।                

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