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कैसे स्वच्छ होगी हवा?

स्वच्छ वायु प्राण वायु है यह सब की पहली और आखिरी जरूरत है। इससे किसी भी प्रकार का समझौता लोगों के जीवन से समझौता होगा और ग्लासगो में प्रधानमंत्री के द्वारा दिए गए पांच अमृत तत्वों का मंतव्य भी यही है। — अनिल तिवारी

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया को ‘वन वर्ल्ड, वन ग्रिड’ के सूत्र के साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए जिन पांच अमृत तत्वों का जिक्र किया है, उसके पीछे भारत की दूरदर्शी सोच दिखाई देती है। प्रधानमंत्री ने विश्व बिरादरी को यह भरोसा दिलाया है कि भारत सन 2070 तक नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल कर लेगा। भारतीय पक्ष का दावा है कि यह केवल कोरा विचार नहीं है बल्कि इसके लिए एक कार्य योजना है, जिसकी रूपरेखा भी तैयार की जा चुकी है। लेकिन पुरानी परिपाटी को देखते हुए लाख टके का सवाल है कि विकसित राष्ट्रों के दबाव और मनमानी तथा देश के भीतर कार्यप्रणाली की गति में सरकारी लापरवाही फाइलों के मकड़जाल के बीच क्या यह संभव है?

प्रधानमंत्री ने कान्फ्रेंस आप पार्टिज (कॉप-26) में विकासशील देशों की ओर से ग्लोबल क्लाइमेट जस्टिस का विजन स्पष्ट करते हुए पंचामृत की धारणा का उल्लेख किया, जिसका पहला बिंदू है कि भारत 2030 तक अपनी गैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगाबाइट तक पहुंचा देगा। दूसरा, भारत 2030 तक अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा आवश्यकताएं नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करेगा। तीसरा, भारत अब से लेकर 2030 तक कुल प्रोजेक्टेड कार्बन उत्सर्जन में एक बिलियन टन की कमी करेगा। चौथा, 2030 तक भारत अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन इंटेंसिटी को 45 प्रतिशत से भी कम पर ले आएगा और पांचवा, सबसे महत्वपूर्ण कि 2070 तक भारत नेट जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेगा।

आज जलवायु परिवर्तन से जो खतरा पूरे विश्व पर मंडरा रहा है उसको बढ़ावा देने में विश्व की 20 आर्थिक शक्तियों का अहम योगदान है। हालांकि ग्लास्गो सम्मेलन से अमेरिका, चीन, रूस जैसे बड़े देशों ने दूरी बनाए रखी, फिर भी भारत जैसे देश चाहते हैं कि ऐतिहासिक रूप से जिन देशों ने ज्यादा प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जन किया है उन्हें प्रयास भी उसी हिसाब से करना चाहिए। विश्व के प्रमुख विकसित राष्ट्रों ने पहले तो प्रकृति का गलत तरीके से दोहन करके विकास अर्जित कर लिया और जब बारी पिछड़े और विकासशील राष्ट्रों के विकास यात्रा की आई तो उन्होंने अलग तरह का विलाप शुरू कर दिया है। विकसित राष्ट्र न सिर्फ जलवायु परिवर्तन के खतरे का ठीकरा पिछड़े और विकासशील राष्ट्रों के सिर पर फोड़ना चाहते हैं बल्कि पूर्व के सम्मेलनों में निर्धारित मदद के लक्ष्य से भी लगातार भाग रहे है।

विश्व बिरादरी के बड़े नेताओं को मुड़कर अतीत के पन्ने पलटने होंगे जिससे कि वे हिसाब लगा सके कि जिस विकास का बिगुल उन्होंने बजाया है उसका आधार क्या था और वह कितना हानिकारक था? आज सवाल है कि क्या महंगी गाड़ियों में चलना विकास का मापदंड होना चाहिए? विकसित राष्ट्रों द्वारा विकासशील और गरीब राष्ट्रों को सिर्फ बाजार समझ लेना किस विकास का पैमाना हो सकता है? विकासशील देशों को जबरदस्ती विकास प्रतिमानों को मानने के लिए बाध्य करना कहां तक उचित है?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मौजूदा जलवायु संकट अमीर जनित जलवायु संकट है। हम जानते हैं कि दुनिया में 70 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का जिम्मेदार सिर्फ दुनिया की 100 बड़ी कंपनियां है। विकसित देशों की इन कंपनियों की करतूत का खामियाजा समाज के सबसे हाशिए पर खड़े लोगों और समुदायों को उठाना पड़ रहा है। बावजूद सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाले विकसित देश इस मसले पर विकासशील देशों के हितों की बलि चढ़ाने की ताक में जुटे हुए हैं। भारत पर विकसित देशों का दबाव इस कदर है कि पिछले साल क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर भारत की तैयारियों पर दाद दे रहा था, पर अब उसके सुर अचानक से बदल गए हैं और उनकी हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत अत्यधिक अपर्याप्त की श्रेणी में चला गया है। पेरिस समझौते के अनुरूप अब तक भारत द्वारा हासिल लक्ष्य सही दिशा में पाये गये है लेकिन विकसित देश अपनी ऐतिहासिक और वर्तमान जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं। कोपेनहेगन सम्मेलन में 100 बिलियन डालर का क्लाइमेट फंड विकसित देशों द्वारा दिया जाना तय हुआ था, लेकिन अब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। यह विकसित देशों की बेईमानी और गैर-न्यायपूर्ण जलवायु कूटनीति का उदाहरण है।

वहीं दूसरी तरफ देश के अंदर की कार्य संस्कृति की बात करें तो भारत में हवा की गुणवत्ता सुधारने के लिए सरकार द्वारा 2019 में नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम शुरू किया गया था। यह कार्यक्रम देशव्यापी था और इसकी समय सीमा 2 साल तय की गई थी। यह अभियान पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की निगरानी में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के तहत न सिर्फ बड़े शहरों में बल्कि राज्य स्तर पर छोटे शहरों की भी जिला स्तर पर निगरानी की बात कही गई थी। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मानना था कि इस योजना से वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेवार जहरीले पदार्थों में 20 से 30 प्रतिशत की कमी आएगी। आज 2 साल पूरे होने को हैं लेकिन अगर हम इस कार्यक्रम की समीक्षा करें तो पाएंगे कि सरकार के स्तर पर किए गए सारे प्रयास सरकारी फाइलों में ही सिमट कर रह गए। जमीन पर न तो ऐसा कोई प्रभावी कार्यक्रम दिखा, न ही उसके प्रभाव को आंकने के लिए कोई वैज्ञानिक साक्ष्य उपलब्ध है। प्रदूषण के नए स्रोतों का कोई डाटा भी सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह है कि सरकारी संसाधन खर्च हो रहे हैं, पर नतीजा सिफर ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा 132 शहरों को चिन्हित किया गया है, इन शहरों को स्वयं कुछ पता नहीं है कि उनके यहां वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोत और कारण क्या है। इन शहरों के पास यह भी जानकारी नहीं है कि उनके यहां किस स्रोत के उपयोग से कितना कार्बन उत्सर्जन हो रहा है।

राजधानी दिल्ली में बीते दशक में प्रदूषण पर एक ग्यारह तथ्यात्मक अध्ययन हो चुके हैं। कुछ अध्ययनों की रिपोर्ट भी आई और इनमें प्रदूषण रोकने के उपाय भी बताए गए, लेकिन सरकारी चाल-ढाल ऐसी निकली कि परिणाम आज भी जस के तस हैं। जब-जब दिल्ली की हवा जहरीली होती है यहां के मुख्यमंत्री अनाप-शनाप बयान और उल-जल्लू कार्यवाही करने लगते हैं। कभी पराली का हवाला देकर सभी पड़ोसी राज्यों के सिर दोष मढ़ देते है। इनके हास्यास्पद कार्यवाही का एक नमूना यह भी कहा जा सकता है कि जब दिल्ली का दम जहरीली हवा से घुट रहा है तो मुख्यमंत्री बेरोजगार नौजवानों को धुंए भरी सड़क चौराहों पर जहर उगलती असंख्य कारों के बीच कुछ दिहाड़ी देकर खड़ा कर दिए हैं और दावा कर रहे हैं कि इससे प्रदूषण का स्तर कम हो जाएगा। हाथ में रेड लाइट ऑन, गाड़ी का इंजन आफ, का स्लोगन लिए सैकड़ों नौजवान अपनी जिंदगी को खतरे में डाले हुए सड़क चौराहों पर खड़े हैं। क्या यही वैज्ञानिक तरीका है प्रदूषण से निजात पाने का?

कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि हमें अभी भी समझ नहीं है कि शहरों में वायु प्रदूषण की वास्तविक स्थिति क्या है? प्रथम श्रेणी के शहरों के साथ-साथ दूसरे और तीसरे श्रेणी के शहरों की तरफ किसी की नजर ही नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री की ग्लासगो में की गई उद्घोषणा और उसके अनुरूप बनाई गई कार्ययोजना पर काम होता है और भारत ग्रीन एनर्जी के उत्पादन को 500 गीगाबाइट तक पहुंचा देता है तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि उद्योग और परिवहन के लिए स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल होने लगेगा, तो उससे वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में निश्चित ही मदद मिलेगी। लेकिन राज्यों के लिए इसे अपनाना आसान नहीं होगा। झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में अभी भी बड़े पैमाने पर प्रदूषित ऊर्जा स्रोतों पर ही निर्भरता है। इसे देखते हुए लगता नहीं कि यह परिवर्तन भी इतनी आसानी से हो पाएगा। यह समयबद्ध तरीके से तभी संभव हो पाएगा जब एलमुनियम, केमिकल, सीमेंट, स्टील, कपड़ा, उद्योग, उर्जा और गैस रोड ट्रांसपोर्ट और भवन निर्माण आदि से भी होने वाले प्रदूषण को भी ध्यान में रखा जाएगा। अगर इन उद्योगों से फैलने वाले प्रदूषण को नियंत्रित कर लिया गया तो निश्चित रूप से भारत स्वच्छ हवा का लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा। लेकिन वादों से इतर सरकार के स्तर पर जो प्रयास हैं वह दयनीय है। सरकार अभी तक वायु प्रदूषण के स्रोत तथा चुनौतियों का फ्रेमवर्क भी नहीं बना सकी है, जबकि प्रदूषण के खिलाफ अब युद्ध स्तर पर कार्यवाही की जरूरत है। नई तकनीक के जरिए वायु प्रदूषण के खतरों को रोकने के लिए नए कानून की भी आवश्यकता है, यह तभी संभव होगा जब नीति निर्माता बुद्धिजीवियों अकादमिक संस्थानों औद्योगिक समूहों तकनीकी संस्थानों और समाज के जागरूक लोगों के साथ मिलकर कार्य योजना पर काम करें। स्वच्छ वायु प्राण वायु है यह सब की पहली और आखिरी जरूरत है। इससे किसी भी प्रकार का समझौता लोगों के जीवन से समझौता होगा और ग्लासगो में प्रधानमंत्री के द्वारा दिए गए पांच अमृत तत्वों का मंतव्य भी यही है।   

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