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युद्ध रोकने की रणनीति पर सक्रिय भारत

‘‘आज का युग युद्ध का नहीं है। फिलवक्त के इस युद्ध के कारण दुनिया मुसीबतों में घिरती जा रही है और सबके लिए खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा की आवश्यकताओं का मार्ग कठिन होता जा रहा है, यह वक्त समाधान तलाशने का है।’’ — अनिल तिवारी

 

अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष एक प्राकृतिक नियम है। चार्ल्स डार्विन ने अपनी पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज’ के तीसरे अध्याय में इसकी विस्तृत व्याख्या की है। यह अस्तित्व का संघर्ष सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तनों के साथ-साथ युद्ध का स्वरूप धारण कर लेता है और युद्ध हमेशा दुनिया को पीछे ले जाता रहा है। विश्व बंधुत्व और ‘वसुधैवकुटुंबकम’ जैसे आदर्श का हिमायती भारत अहिंसा और भाईचारा का प्रबल पक्षधर रहा है। यही कारण है कि हाल ही में हुई उज्बेकिस्तान की बैठक में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को संदेश दिया है कि ‘‘आज का युग युद्ध का नहीं है। फिलवक्त के इस युद्ध के कारण दुनिया मुसीबतों में घिरती जा रही है और सबके लिए खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा की आवश्यकताओं का मार्ग कठिन होता जा रहा है, यह वक्त समाधान तलाशने का है।’’

पिछले लगभग 200 दिनों से चल रहे यूक्रेन-रूस युद्ध का निकष यह है कि यूक्रेन के डॉनबास इलाके में जिन खेतों में गेहूं की फसल लहराया करती थी, अब वहां गोलियों की गड़गड़ाहट सुनाई देती है। यह क्षेत्र यूक्रेन द्वारा उत्पादित गेहूं का 8 प्रतिशत हिस्सेदारी रखता है। सिर्फ 4 करोड़ की आबादी वाला यह देश 40 करोड़ लोगों के लिए अनाज पैदा करता है। यूक्रेन द्वारा खाद्य पदार्थों के निर्यात के लिए जिन बंदरगाहों का इस्तेमाल किया जाता है वहां सुरंग और बंकर बना दिए गए हैं। 21 सितंबर को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के खिलाफ जीत के लिए 3 लाख अतिरिक्त सैनिक तैनात करने की घोषणा की। उसी दिन फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन, इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड, वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन, वर्ल्ड बैंक, ग्रुप और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने साझा बयान जारी किया। यह संयुक्त बयान पूरी वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के बाधित होने के नतीजे से आगाह करने वाला था। रूस-यूक्रेन युद्ध से खाद्य, पोषण, ईंधन और उर्वरक की आपूर्ति जिस तरह बाधित हुई है उससे दुनिया का कोई भी देश अछूता नहीं है। सिर्फ रसायनिक खाद ही की बात करें तो इसकी कीमतें साल भर में 200 गुना तक बढ़ चुकी है।

युद्ध शुरू होने के तत्काल बाद ही असर के रूप में आपूर्ति श्रृंखला में बाधा के कारण वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में वृद्धि अर्थात महंगाई को बढ़ावा, भारत सहित विश्व के कई देशों में मिला है। खासकर ऊर्जा और खाद्यान्न की उपलब्धता और कीमत को लेकर कई तरह की परेशानियां उत्पन्न हुई है। आपूर्ति में यह बाधा ऐसे समय में आई जब अर्थव्यवस्था में महामारी के कारण मांग पहले से ही काफी हद तक प्रभावित थी। महामारी से उत्पन्न संकट के दौर में विश्व भर में आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए राजकोषीय खर्चों में वृद्धि के साथ-साथ कम ब्याज दर रखने का प्रयास किया जा रहा था, जिससे कि मांग में कृत्रिम वृद्धि दर्ज की जा सके। इसका भी असर कुछ हद तक महंगाई को बढ़ावा देने में रहा है। इनके कारण ईंधन और खाद्यान्न की आपूर्ति वैश्विक स्तर पर काफी प्रभावित हुई है। वस्तुओं की उपलब्धता के लिए नए समीकरण बनते रहे हैं। फलस्वरुप वस्तुओं सेवाओं के मूल्यों में भी अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की जा रही है।

वर्ष 2022 के फरवरी महीने में शुरू हुए युद्ध के कारण एक तरफ रूस और यूक्रेन की ओर से गोलियां और ग्रेनेड दागे जा रहे थे, वहीं दूसरी ओर कारोबारी प्रतिबंधों के जरिए शह और मात का अमानवीय खेल शुरू हो गया था। युद्ध के कुछ दिनों के भीतर ही यूरोपीय कमीशन ने रूस के साथ बैंकों को सोसायटी फॉर वर्ल्ड वाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल्स टेलीकम्युनिकेशन से अलग कर दिया। यह बैंकिंग सुविधाओं को हासिल करने वाली मैसेजिंग सर्विस है। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक में रूस पर प्रतिबंधों की बौछार लगा दी और उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों का सीधा असर उसके कारोबार पर पड़ा, क्योंकि रूस की आमदनी का 40 प्रतिशत हिस्सा निर्यात से आता है। इसलिए तेल एवं गैस की आपूर्ति सबसे पहले बाधित हुई। उस पर लगे प्रतिबंधों की वजह से तेल टैंकरों व जहाज को क्रेडिट गारंटी व बीमा नहीं मिल पाया, यहां तक कि जर्मनी जो गैस के लिए सबसे ज्यादा रूस पर निर्भर था, उसने यूरोप की सबसे बड़ी गैस पाइपलाइन आरडी स्ट्रीम टू के परिचालन पर रोक लगा दी। दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी सेल ने रूस के स्वामित्व वाली गैस कंपनी के साथ कारोबार बंद कर दिया। युद्ध, कारोबारी संबंधों को कैसे तहस-नहस कर देता है इसकी नुमाइश ब्रिटिश पेट्रोलियम ने युद्ध में रूस की सरकारी तेल कंपनी रोसनेफ्ट में अपनी हिस्सेदारी बेचकर चौकाया। कोरोना संकट के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेजी की उम्मीद की जा रही थी, वह यदि आज अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है तो उसके पीछे युद्ध जनित ऊर्जा संकट अहम है।

युद्ध शुरू होने के बाद 21 देशों ने खाद्य वस्तुओं के निर्यात से जुड़े 30 प्रतिबंध लगाए। यू.एन.ओ. के मुताबिक रूस और यूक्रेन गेहूं के वैश्विक कारोबार में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रखते हैं, 60 प्रतिशत सूरजमुखी के तेल और जौ के कुल निर्यात में 30 प्रतिशत हिस्सा रूस और यूक्रेन का होता है। सोमालिया जैसे कुछ देश गेहूं के लिए पूरी तरह यूक्रेन पर निर्भर है। लाइट की एक रिपोर्ट के अनुसार रूस की आक्रामकता की एक बड़ी वजह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में रूस का सबसे अहम स्थान है। यह देश दुनिया को तेल, गैस एवं उर्वरकों के साथ ही कई जिंसों का निर्यात करता है। रूस, बेलारूस और यूक्रेन तीनों मिलकर वैश्विक बाजारों में उर्वरक के कुल कारोबार में एक तिहाई के हिस्सेदार हैं। भारत अपनी जरूरत का करीब 25 फ़ीसदी यूरिया, 90 फ़ीसदी फास्फेट और 100 प्रतिशत पोटाश आयात करता है। भारत की उर्वरक जरूरतों का भी बड़ा हिस्सा इन देशों से आता है। खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में भारत ने जैसी आत्मनिर्भरता हासिल की है वैसे ही ऊर्जा और उर्वरक उत्पादन में अन्य देशों पर निर्भरता कम करने के प्रयास तेज करने होंगे। खासतौर पर फास्फेट और पोटाश आधारित उर्वरकों के आयात के विकल्प मजबूत करने होंगे। यदि भारत, राजस्थान, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में मौजूद फास्फेट भंडार से उर्वरक बनाने के काम को गति देता है तो निश्चित रूप से इसके दीर्घकालिक लाभ होंगे।

हालांकि भारत ने रूस से कम दर पर तेल और गैस आयात करने की कोशिश की है। वही खाद्यान्न के निर्यात को अपनी आंतरिक जरूरतों के हिसाब से प्रबंधित करने के प्रयास भी किए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक विकास के लिए महत्वपूर्ण यह है कि ऊर्जा जरूरतों के लिए पेट्रोलियम उत्पादों पर निर्भरता को सीमित किया जाए। ऐसा देश में सीमित उपलब्धता के कारण भारत की पेट्रोलियम जरूरतों के लिए आयात पर अत्यधिक निर्भरता को देखते हुए कहा जा सकता है। किसी भी वैश्विक उथल-पुथल का असर पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य पर पड़ता ही है, तो एक सफल राष्ट्र के लिए ऊर्जा और ईंधन के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। देर से ही सही अब पेट्रोलियम और गैस के अतिरिक्त ऊर्जा के अन्य स्रोतों को बढ़ावा देने के प्रयास हो रहे हैं, तो ऐसे नीतिगत प्रयास सकारात्मक संकेत देते हैं। इसके लिए जरूरी तकनीक और आधारभूत संरचना बढ़ाने के प्रयासों को और अधिक गति देने की जरूरत है।

भारत के लिए दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है - एक बड़ी और बढ़ती आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना। खाद्यान्न उत्पादन और खाद्यान्नों की संचित उपलब्धता के लिए भारत कुछ हद तक वर्तमान में आयात और निर्यात के प्रबंधन पर भी निर्भर है। इसमें अनाज के अलावा खाद्य तेलों, दालों की मांग आपूर्ति में सामंजस्य बैठाना शामिल है। आने वाले समय में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण और इसके लिए भी तकनीक के विकास और उपयोग को बढ़ावा देने की जरूरत है। साथ ही नीतिगत प्रयास से मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में उत्पादन और उत्पादकता दोनों के बढ़ाने की जरूरत है। अब जबकि भारत के बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तेजी से बढ़ने के अनुमान लगाए जा रहे हैं तो आने वाले दशक में आधारभूत संरचना के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और तकनीकी विकास पर ध्यान देने की भी जरूरत है। इससे एक सफल राष्ट्र के निर्माण को गति मिलेगी, जो आर्थिक रूप से मजबूत हो सके, ताकि उस पर वैश्विक घटनाओं का असर कम पड़े।

लेकिन रूस यूक्रेन युद्ध के परिणामों पर नजर टिकाए दुनिया उस पक्ष को भूल गई है, जिसमें असंख्य शरणार्थी जिंदगियों को ढ़ोते हुए इधर-उधर भटक रहे हैं। इस संवेदनशील और परा आश्रित मानव पूंजी में निरंतर वृद्धि हो रही है, जिसके लिए युद्ध के साथ-साथ खाद्य संकट जलवायु सुरक्षा सहित बहुत से आंतरिक कारण जिम्मेदार रहे हैं। इसे लेकर यूएनएससीआर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आह्वान कर रहा है कि सभी एक साथ मिलकर मानव त्रासदी से निपटने और हिंसक टकराव को सुलझाने के स्थाई समाधान ढूंढें, लेकिन ऐसा तो हो नहीं रहा है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समरकंद में पुतिन के साथ बातचीत के दौरान स्पष्ट रूप से कहा कि ‘यह युग युद्ध का नहीं है।’

कुछ देश हालांकि शुरू में आलोचना भी कर रहे थे कि भारत खुलकर रूस की निंदा नहीं कर रहा है। बाद में उन्हें समझ में आया कि निंदा करने से कुछ हासिल नहीं होगा। लेकिन भारत जो खुलकर रूस से बात कर सकता है, वह स्थिति भी नहीं रहेगी। आखिरकार कोई होना चाहिए जो जरूरत पड़ने पर उससे बात कर सके। भारत में अपनी उपयोगिता इसी रूप में दुनिया को समझायी है। भारत लगातार इन मसलों पर अन्य देशों के साथ भी बात करता रहा है और भारत की बेबाक डिप्लोमेसी का परिणाम था कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी भारत के रुख को स्वीकार किया।

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