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भारतीय अर्थव्यवस्थाः एक वास्तविक परख

अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौतियों को देखते हुए हम आंकड़ों के पीछे भागने की बजाय सभी को साथ लेकर आर्थिक विकास सुनिश्चित कर सकते हैं। अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए हमें अति आत्मविश्वास के खोल से बाहर निकलकर वास्तविकता से जूझना होगा तथा विभिन्न क्षेत्रों में निवेश को बढ़ाना होगा। — के.के. श्रीवास्तव

 

ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को पछाड़ चुका भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। मजबूत बुनियादी ढांचा के साथ सेवा क्षेत्र में आए उछाल के चलते उद्योग जगत ने सकारात्मक रफ्तार पकड़ी है, लेकिन इन सबके बीच ओमीक्रॉन जैसे कोरोना संक्रमण की वापसी, लगातार बढ़ती महंगाई और यूक्रेन के खींचते युद्ध के कारण अर्थव्यवस्था की रफ्तार में कमी के संकेत भी दिखने लगे हैं। नवीनतम ओईसीडी अनुमानों के अनुसार चालू वित्त वर्ष के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था के 6.9 प्रतिशत की दर से बढ़ने की संभावना है। लेकिन बाहरी मांग में लगातार आ रही नरमी के कारण आने वाले दिनों में यह दर 5.7 प्रतिशत हो सकती है, क्योंकि कैलेंडर वर्ष 2023 के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था के केवल 2.2 प्रतिशत की दर से बढ़ने का अनुमान किया गया है। दरअसल वैश्विक विकास जिस गति से धीमा हो रहा है, मुद्रास्फीति की दर लगातार बढ़ रही है। हालांकि मुद्रास्फीति की दर 2023 में 8.2 प्रतिशत से घटकर 6.6 प्रतिशत तक रह सकती है, लेकिन अनुमान तभी आगे स्थायी होंगे यदि कोरोना फिर से सिर नहीं उठाएगा, यूक्रेन युद्ध आगे नहीं बढ़ेगा और ऊर्जा की कीमतें और अधिक नहीं बढ़ेगी। भारत पर इसका सीधा असर पड़ रहा है। केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहे हैं। मालूम हो कि अप्रैल से जून तिमाही के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जोकि बाजार और आरबीआई की अपेक्षा से कम थी। अगली कुछ तिमाहियों में भी विकास दर और धीमी रहने की उम्मीद है। इसका मुख्य कारण कोरोना रिकवरी के बाद निर्यात के बदले पैटर्न और सेवाओं के लिए मांग का ठहर जाना था। इस क्रम में आपूर्ति श्रृंखला की समस्याएं, दीर्घकालिक पुनर्गठन, ऊर्जा सहित कमोडिटी की कीमतों में बढ़ोतरी तथा भू राजनीतिक तनाव भी महत्वपूर्ण कारक रहे हैं। इन परिस्थितियों में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। यह सोंचकर कि निजी क्षेत्र से निवेश नहीं आ रहा है, बात नहीं बनेगी। हालांकि मार्गन स्टेनली की भविष्यवाणी से कुछ सांत्वना मिलती है कि भारत 2022-23 में एशिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बनेगा, लेकिन आंकड़ों के पीछे छुपकर चलना व्यर्थ की कवायद है। 

भारत, ब्रिटेन को पछाड़कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है, लेकिन यह कल्पना है। तुलनात्मक दृष्टि से ब्रिटेन के औसत नागरिक को जो नागरिक सुविधाएं उपलब्ध है, भारत अब भी उस में बहुत पीछे है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत 194 देशों में 144वें स्थान पर है। एशिया में ही भारत 33वें स्थान पर है। प्रति व्यक्ति आय में सबसे अमीर देश भारत की तुलना में 60 गुना अधिक है। आर्थिक असमानता के संदर्भ में विश्व असमानता रिपोर्ट से पता चलता है कि सिर्फ 10 प्रतिशत भारतीयों ने कुल आय का 57 प्रतिशत अर्जित किया और 77 प्रतिशत राष्ट्रीय संपत्ति के मालिक यही लोग थे। टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार नीचे के 50 प्रतिशत ने केवल 13 प्रतिशत आय अर्जित की। आईएमएफ का अनुमान है कि 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति आय लगभग 2200 डालर होगी लेकिन अगर हम असमानता की डिग्री ध्यान रखते हैं और प्रति व्यक्ति आय की तुलना में सिर्फ 10 प्रतिशत की आय को बाहर कर देते हैं तो वास्तव में यह 1000 डालर ही रह जाती है। पता चलता है कि कपड़ा उद्योग में यदि कोई न्यूनतम वेतन पाने वाला सीईओ का वेतन अर्जित करना चाहता है तो उसे वहां पहुंचने में 950 साल लगेंगे।

ऑक्सफैम के हालिया अनुमानों से पता चलता है कि लगभग 60 मिलियन भारतीय केवल स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी के कारण गरीबी में चले गए हैं। महामारी के कारण बहुत से लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीने को मजबूर हुए हैं। भारत पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में भी 180 देशों की सूची में सबसे नीचे है।

आजादी के बाद भारत ने बहुत कुछ हासिल किया है। इसका मकसद यह कतई नहीं है कि हम उस प्रगति को कम करके आंक रहे हैं, बल्कि यह सावधान करने की बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते आर्थिक आधार पर घमंड करने की बजाय हमें अपने वास्तविक तकलीफों को दूर करने और एक मध्यम आय वाले राष्ट्र के रूप में गिने जाने के लिए अगले 25 वर्षों में न्यूनतम 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ने की जरूरत है। क्रय शक्ति समानता की दृष्टि से भारत 2022 में विश्व सकल घरेलू उत्पाद में 7.24 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ दुनिया में तीसरे स्थान पर है यह अच्छी बात है, फिर भी यह सुनिश्चित करने के लिए अर्थव्यवस्था को आगे तेजी से बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए हमें खपत और निवेश दोनों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, खासकर ऐसे में जबकि वैश्विक मांग के हमारे बचाव में आने की संभावना कम है।

हमारा निर्यात पहले से ही धीमा हो चुका है और निकट भविष्य में इसके अभी कमजोर रहने की संभावना है। सरकार भी कड़े राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मदद करने के लिए निजी कैपेक्स की आवश्यकता होती है। वित्तमंत्री इस बात से भी खफा थी कि कारपोरेट कर की कम दर और उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन के बावजूद निजी क्षेत्र पर्याप्त निवेश संख्या देने में विफल रहा है। आरबीआई के अनुसार वर्ष 2022 में निजी निवेश वर्ष 2013 और वर्ष 2020 की तुलना में कम रहा है।

महामारी के कारण लगे प्रतिबंधों के चलते जो कमी आई थी उसमें अब धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। व्यापार में गतिशीलता बढ़ी है, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था ने वर्ष 2000 के उच्च विकास वाले वर्षों में देखे गए निवेश स्तरों को अभी नहीं छूपाया है। जाहिर सी बात है कि जब तक निजी कंपनियां अर्थव्यवस्था में मांग को नहीं देखती तब तक वह नई रकम लगाने को इच्छुक नहीं होती हैं। देश में घरेलू मांग के मोर्चे पर अभी भी अनिश्चितता है। कुछ वैश्विक बाधाओं के कारण नए निवेश के माध्यम से आपूर्ति में वृद्धि अतिरिक्त बाधाएं पैदा कर रही हैं। पहले से ही संचित माल को पहले नीचे चलाने की जरूरत है। कई बड़े व्यापारिक ब्लॉक अभी भी पहले आयात के आंकड़ों तक नहीं पहुंच पाए। सरपट दौड़ती हुई मुद्रास्फीति, भू राजनीतिक तनाव, विकास की उम्मीदों में कटौती और कई अन्य कारक अर्थव्यवस्था की धुंधली तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। मांग कम होने के कारण नरमी की भी संभावना बनी हुई है। नरमी जारी रहेगी तो आय भी कम होगी। निजी कंपनियां निवेश के लिए उत्साह नहीं दिखाएंगी। बल्कि यूं कहें कि अर्थव्यवस्था पर एक तरह से नकारात्मक प्रभाव डालेंगे। इस दृष्टि से अगर हम अपने पारंपरिक उद्योगों की चुनौतियों को देखें तो तस्वीर और भी निराशाजनक हो जाती है। 

ताजा पूंजीगत व्यय में उछाल आंशिक रूप से नए परिवर्तनों के उभरने पर निर्भर करता है, जिन्हें ऋण देने वाली संस्थाओं द्वारा वित्त पोषित किया जाना चाहिए। पीएलआई योजना एक सकारात्मक कदम है। निजी निवेशक अभी भी ऐसी परियोजनाओं के पहले सेट पर आर.ओ.आई. का अनुमान लगा रहे हैं। इसके अलावा पहले पूंजीगत व्यय चक्र जिंस सुपर साइकिल के दौरान बड़े दांव लगाने वाले दिग्गजों द्वारा संचालित थे लेकिन 2011 के बाद से जिंसों के पतन के कारण इन दिग्गजों की अब ग्रीन फील्ड परियोजनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है, केवल समेकन और अधिग्रहण ही इनके द्वारा किए जा रहे हैं। कुछ क्षेत्रों में व्यवधानों ने निवेश निर्णय को कठिन बना दिया है। विदेशी पूंजी की अब पारंपरिक विनिर्माण में कम दिलचस्पी है, वह दूरसंचार बीएफएसआई खुदरा प्रौद्योगिकी आदि जैसे क्षेत्रों में निवेश करना चाहते हैं। हमें कैपेक्स को आमंत्रित करने के लिए प्रौद्योगिकी और प्रतिभा में और भूमि या मशीनरी पर कम निवेश करने की आवश्यकता है। हमें अपने नीति परिवेश को तदनुसार बदलना होगा। 

अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौतियों को देखते हुए हम आंकड़ों के पीछे भागने की बजाय सभी को साथ लेकर आर्थिक विकास सुनिश्चित कर सकते हैं। अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए हमें अति आत्मविश्वास के खोल से बाहर निकलकर वास्तविकता से जूझना होगा तथा विभिन्न क्षेत्रों में निवेश को बढ़ाना होगा।

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