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भारतीय अर्थव्यवस्थाः सावधानी के साथ आशावाद

आज दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में नकारात्मकता के कुहासे के बीच भारत की स्थिति एक चमकते सितारे की है। लेकिन आने वाले दिनों में विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए हमें अभी और प्रयास करने की जरूरत है। - के.के. श्रीवास्तव

 

नीति आयोग के अनुसार वर्ष 2047 तक यानी कि भारत की आजादी के जब 100 साल पूरे होंगे, भारत 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा। वर्तमान में यह 3.7 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। वर्ष 2030 तक भारत, जापान और जर्मनी को पछाड़कर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। एस. एंड पी. का अनुमान है कि भारत की नाम मात्र की जीडीपी जो 2022 में 3.4 ट्रिलियन डॉलर थी, बढ़कर 2030 तक 7.3 ट्रिलियन डॉलर की होने जा रही है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था वर्ष 2023 से 2030 तक 9 प्रतिशत, वर्ष 2030 से 2040 के बीच प्रतिवर्ष औसतन 9.5 प्रतिशत तथा 2040 से 2047 के बीच 8.8 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ती रहे। लेकिन इसके लिए हमें व्यापक सुधार करने होंगे। अर्थव्यवस्था का निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के लिए आवश्यक परिस्थितिकी तंत्र बनाने के लिए प्रासंगिक कार्य क्षेत्र और रणनीति की भी पहचान करनी होगी जिसमें मानव पूंजी का निर्माण, पोषण और भारत की विशाल बाजार क्षमता का लाभ उठाना तथा निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार शामिल करना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि भारत अपनी आजादी के 100 वर्षों के भीतर यह सब कर लेता है तो भारत को विकसित राष्ट्र का तमगा मिल जाएगा।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुसार अगले 5 वर्षों में वैश्विक आर्थिक विकास में भारत का योगदान बढ़कर 18 प्रतिशत होगा। उम्मीद है कि वर्ष 2023 और 2024 में भारत और चीन संयुक्त रूप से दुनिया की आधी वृद्धि में योगदान देंगे, जिसमें भारत की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत से अधिक की होगी।

वर्तमान में लचीली घरेलू मांग और बड़े सार्वजनिक पूंजी व्यय दोनों के कारण भारत की आर्थिक वृद्धि मजबूत बनी हुई है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुसार वर्ष 2024 के लिए भारत की विकास दर 6.3 प्रतिशत रहने की संभावना है। जनसंख्या लाभांश, डिजिटलीकरण आदि के कारण भारत स्थिर गति से बढ़ रहा है। हालांकि अधिक संरचनात्मक सुधार किए जाते, एफडी मानदंडों को आसान बनाया जाता, श्रम बल को कुशल तकनीक से लैस किया जाता और वित्तीय प्रणाली को और मजबूत किया जाता तो विकास की गति और अधिक बढ़ सकती है।

हालांकि वित्तमंत्री ने घरेलू मैक्रो-फंडामेंटल के मजबूत होने तथा उनमें लगातार सुधार का दावा करते हुए आशावाद की एक गुलाबी तस्वीर पेश की है लेकिन हम वैश्विक अनिश्चितताओं और मौसम संबंधी मुद्दों से होने वाली गिरावट के जोखिम को कम नहीं आंक सकते। एस. एंड पी. ने भी तेज डिजिटल परिवर्तन और तेजी से बढ़ते मध्यम वर्ग से भारत को आगे ले जाने की उम्मीद जताई है। उसका मानना है कि वर्ष 2030 तक केवल अमेरिका और चीन के बाद जर्मनी और जापान को पछाड़कर भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, लेकिन निकट भविष्य के परिदृश्य के बारे में भी हमें चौकस रहना होगा।

यह सच है कि कॉर्पोरेट बैलेंस शीट, आवासीय संपत्तियों की मांग, निवेश की बढ़ती मांग जैसे संकेतक समान स्तर पर हैं लेकिन एक सच यह भी है की आय वृद्धि लगातार धीमी रही है, इससे निजी उपभोग और निवेश की वृद्धि भी निचले स्तर पर आई है। महंगाई पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हम 20वीं सदी के महान अर्थशास्त्री कीन्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मित्तव्ययिता के विरोधाभास से पीड़ित है? क्योंकि कम विकास वाली अर्थव्यवस्था में लोग डर के मारे कम खर्च करते हैं इससे आय कम होती है और खर्च भी कम होता है लेकिन इससे एक प्रकार का ऐसा दुष्चक्र उभरता है जिससे पार पाना काफी कठिन होता है।

वर्तमान में भारत में न केवल खपत कम है बल्कि बचत भी कम है। उच्च मुद्रास्फीति की उपस्थिति में वास्तविक आय लगातार गिर रही है। तीन बेडरूम वाले घर, एसयूबी गाड़ियों की मांग बढ़ी है लेकिन मोटरसाइकिल और अन्य दो पहिया वाहनों की मांग उतनी मजबूत नहीं है। वास्तविक आय के अभाव में लोग जो भी खर्च कर रहे हैं वह शायद ऋण के कारण कर रहे हैं। यह अच्छा संकेतक नहीं है। यदि हम अपने अल्पावधि का ध्यान नहीं रखते हैं तो जैसा कि कींस ने कहा था दीर्घावधि में हम सभी मृत हैं। इसलिए अनुमानित 6 प्रतिशत से अधिक की विकास दर पर इतराने वाली बात को गंभीरता से लेना होगा। अनुमानित विजन दस्तावेज को परखने की जरूरत है। हमें इसके लिए हर साल समीक्षा करनी होगी, तभी हम 47 तक लक्ष्य पर पहुंचेंगे और विकसित राष्ट्र कहलाएंगे।

पिछले कुछ समय से वैश्विक आर्थिक वृद्धि धीमी हो गई है। 2021 की महामारी ने सबको हिला कर रख दिया। यूक्रेन पर रूस द्वारा आक्रमण के कारणआपूर्ति श्रृंखलाएं ध्वस्त हो गई और आर्थिक नेटवर्क एक तरह से बाधित हो गया। इसके चलते आवश्यक उपभोक्ता सामान के दाम में भारी उछाल आ गया। अधिकांश केंद्रीय बैंकों को बेंचमार्क ब्याज दरें बढ़ानी पड़ी इससे आर्थिक गतिविधियां तो धीमी हुई ही बाजारों में भी अस्थिरता आ गई। अब इसराइल और हमास का संघर्ष सबको सकते में डाल रखा है। इसके कुछ कारक निश्चित रूप से भारत पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे विश्व बैंक ने पहले ही इसकी आशंका जाता दी है।

अमेरिकी केंद्रीय बैंक अमेरिकी बांड बढ़ा रहा है इसका मतलब है कि एफपीआई फंड भारत से बाहर जा सकता है। इससे रुपए की सराहना बढ़ेगी इसके परिणाम स्वरुप आयत की उच्च लागत, प्रतिकूल भुगतान संतुलन और घरेलू कीमतों पर दबाव बढ़ेगा। इसी तरह इजराइल हमास युद्ध अन्य मध्य पूर्वी देशों को अपनी चपेट में ले लेता है तो तेल की कीमतों पर अनिश्चितता होगी।

भारत के लिए अनुमानित 6 प्रतिशत से अधिक की विकास दर दुनिया में सबसे अधिक है। हमें याद रखना होगा और विजन दस्तावेज भी कहता है कि हमें अब और 2047 के बीच औसतन 8 प्रतिशत के दर से बढ़ने की जरूरत है ताकि भारतीयों के व्यापक समूह के लिए समृद्धि सुनिश्चित की जा सके।

निश्चित रूप से अल्पकालिक परिप्रेक्ष्य में हमें कई बाधाओ से पार पाना है, जिनमें से कई निश्चित रूप से आयातित है। सुस्त वैश्विक मांग के कारण हमारा निर्यात लड़खड़ा रहा है। एक संकेतक यह है कि जहां श्रम बल भागीदारी दर ऊपर की ओर बढ़ी है वही एक महत्वपूर्ण हिस्सा स्वरोजगार के रूप में उभरा है। इसका एक मतलब यह भी है कि अर्थव्यवस्था श्रम बल में प्रवेश करने वाले नए लोगों के लिए पर्याप्त उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा करने में सक्षम नहीं हो पा रही है। यह इस तथ्य से भी पता चलता है कि मनरेगा के तहत काम की मांग महामारी से पहले के स्तर से अब भी अधिक बनी हुई है। ग्रामीण मांग दबाव में है। यह महामारी की दूसरी लहर से प्रभावित होने के बाद अब तक ठीक से उबार नहीं पायी है। वर्ष 2023-24 की पहली तिमाही में बे-मौसम बारिश के कारण फसल को काफी नुकसान हुआ उत्पादन कम हुआ और उनकी आय में भी कमी आई है।

ऐसे में हमें सावधानी और आशावाद के साथ दिवाली मनाने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हम अपने प्रतिद्वंद्वी चीन सहित कई अन्य देश से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन यह अभी भी पर्याप्त नहीं है। खासकर तब जब हमारा 2047 तक विकसित देशों की कतार में शामिल होने का बड़ा लक्ष्य तय है।

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