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पर्यावरण का भारतीय दर्शन

मानव-कृत संस्कृति का निर्माण मानव मन, बुद्धि एवं अहं से होता है। — विनोद जौहरी

 

पिछले दिनों लगातार वर्षा, बाढ़, तबाही के समाचार टेलीविजन और समाचार पत्रों में छाए रहे। केवल भारत में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व  विशेषकर अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में अत्यधिक तापमान, दावानल के खौफनाक मंज़र मुख्य समाचार बने हुए हैं। शायद प्रकृति मानव जाति के अत्याचारों से रुष्ट है, इसलिए विकराल रूप धारण करके बार बार हमको चेतावनी दे रही है। विकास के नाम पर जंगलों की कटाई, नदियों के प्रवाह को मोड़ना और अवरुद्ध करना, जीवाश्म ईंधन का अतिरेक प्रयोग, प्लास्टिक से भरपूर कचरा, रसायनिक खाद, समुद्र और नदियों के केचमेंट एरिया (फाट) का अतिक्रमण ही जीवन की धारा बन चुकी है।  

आधुनिक उत्पादन और उपभोग एवं अधिकतम धनार्जन की तकनीक ने पृथ्वी के वनों-पर्वतों को नष्ट कर दिया है। खनिज पदार्थों को प्राप्त करने हेतु अमर्यादित विच्छेदन कर पृथ्वी के मर्मस्थलों पर चोट पहुँचाने के कारण पृथ्वी से जलप्लावन और अग्नि प्रज्ज्वलन, धरती के जगह-जगह फटने और दरारें पड़ने के समाचार हमें प्राप्त होते रहते हैं। खानों में खनन करते समय इसी प्रकार की दुर्घटनाओं ने न जाने कितने लोगों की जानें ही नहीं ली अपितु उन क्षेत्रों के सम्पूर्ण पर्यावरण का विनाश कर उसे बंजर ही बना दिया है। इसी कारण वातावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा में अतिशय वृद्धि हो रही है। इससे तापमान अनपेक्षित मात्रा में बढ़ता जा रहा है, जो पर्यावरण के लिए संकट का सूचक है।

पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होने की दिशा में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन आयोजित होते हैं और इस बार “कॉप 26” सम्मेलन इंग्लैंड के ग्लासगो में 31 अक्तूबर से 13 नवंबर 2021 को आयोजित किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉप 26 को संबोधित करते हुए भारत की ओर से पांच वादे किए।

  1.     भारत, 2030 तक अपनी गैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक पहुंचाएगा।
  2.     भारत, 2030 तक अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा की जरूरत अक्षय ऊर्जा से पूरी करेगा।
  3.     भारत अब से लेकर 2030 तक के कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक बिलियन (अरब) टन की कमी करेगा।
  4.     2030 तक भारत, अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता (इन्टेंसिटी) को 45 प्रतिशत से भी कम करेगा। 
  5.     वर्ष 2070 तक भारत, नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करेगा। नेट जीरो का तात्पर्य उत्पादित ग्रीनहाउस गैस की मात्रा और वातावरण से निकाली गई मात्रा के बीच संतुलन से है।  

इस परिद्रृश्य में यह आवश्यक है की हम पर्यावरण और प्रकृति के भारतीय दर्शन को समझें और उसके अनुरूप व्यवहार करें। पर्यावरण का सीधा-सरल अर्थ है प्रकृति का आवरण। कहा गया है कि ‘परितः आवरणं पर्यावरण’ प्राणी जगत को चारों ओर से ढकने वाला प्रकृति तत्व, जिनका हम प्रत्यक्षतः एवं अप्रत्यक्षतः जाने या अनजाने उपभोग करते हैं तथा जिनसे हमारी भौतिक, आत्मिक एवं मानसिक चेतना प्रवाहित एवं प्रभावित होती है, यह पर्यावरण भौतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक तीन प्रकार का कहा गया है। स्थलीय, जलीय, मृदा, खनिज आदि भौतिक, पौधे, जन्तु, सूक्ष्मजीव एवं मानव आदि जैविक एवं आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि सांस्कृतिक तत्वों की परस्पर क्रियाशीलता से समग्र पर्यावरण की रचना और परिवर्तनशीलता निर्धारित होती है। प्रकृति के पंचमहाभूत- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर-भौतिक एवं जैविक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। वेदों में मूलतः इन पंचमहाभूतों को ही दैवीय शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। मानव-कृत संस्कृति का निर्माण मानव मन, बुद्धि एवं अहं से होता है। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने प्रकृति के पाँच तत्वों के स्थान पर आठ तत्वों का उल्लेख किया है -

‘‘भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धि रेवच। 
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।’’

(श्रीमद्भागवद् गीता अध्याय-7/4)

पर्यावरण-सन्तुलन से तात्पर्य है जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थितियों के बीच पूर्ण सामंजस्य। इस सामंजस्य का महत्त्व वेदों में विस्तारपूर्वक वर्णित है। कल्याणकारी संकल्पना, शुद्ध आचरण, निर्मल वाणी एवं सुनिश्चित गति क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की मूल विशेषताएँ मानी जाती हैं और पर्यावरण-सन्तुलन भी मुख्यतः इन्हीं गुणों पर समाश्रित है। वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है।  

वेदों में पर्यावरण से सम्बन्धित अधिकतम ऋचाएँ यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद में भी पर्यावरण से संबंधित सूक्तों की व्याख्या उपलब्ध है। अथर्ववेद में सभी पंचमहाभूतों की प्राकृतिक विशेषताओं और उनकी क्रियाशीलता का विशद् वर्णन है। आधुनिक विज्ञान भी प्रकृति के उन रहस्यों तक बहुत बाद में पहुँच सका है जिसे वैदिक ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व अनुभूत कर लिया था। 

यजुर्वेद में पृथ्वी को ऊर्जा (उर्वरता) देने वाली तप्तायनी तथा धन-सम्पदा देने वाली वित्तायनी कहकर प्रार्थना की गई है कि वह हमें साधनहीनता/दीनता की व्यथा और पीड़ा से बचाए -  

‘तप्तायनी मेसि वित्तायनी मेस्यनतान्मा नाथितादवतान्मा व्यथितात्।’
(यजुर्वेद 5/9)

अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में क्षिति-पृथ्वी तत्व का मानव जीवन में क्या महत्व है तथा वह किस प्रकार अन्य चार प्रकृति तत्वों के संग, समायोजनपूर्वक क्रियाशील रहकर, उन समस्त जड़-चेतन को जीवनी शक्ति प्रदान करती है, जिनको वह धारण किए हुए है, की विशद व्याख्या उपलब्ध है। अथर्ववेद में पृथ्वी को, अपने में सम्पूर्ण सम्पदा प्रतिष्ठित कर, विश्व के समस्त जीवों का भरण-पोषण करने वाली कहा गया है। ‘विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतों निवेशनी’ - (अथर्ववेद 12/16) जब हम पृथ्वी की सम्पदा (अन्न, वनस्पति, औषधि, खनिज आदि) प्राप्त करने हेतु प्रवास करें तो प्रार्थना की गई है कि हमें कई गुना फल प्राप्त हो परन्तु चेतावनी भी दी गई है कि हमारे अनुसंधान और पृथ्वी को क्षत-विक्षत (खोदने) करने के कारण पृथ्वी के मर्मस्थलों को चोट न पहुँचे। अथर्ववेद में पृथ्वी से प्रार्थना की गई है- 

‘वतते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदति रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम।।’ 

- (अथर्ववेद 12/1/35)

अथर्ववेद के अनुसार पृथ्वी का हृदय केन्द्र-बिन्दु आकाश में माना गया है जहाँ से उसको शक्ति मिलती है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। व्योमरूपी आकाश द्यौ (द्युलोक-अतंरिक्ष से परे अपरिमित) को पिता तथा पृथ्वी को माता माना गया है। पृथ्वी को गगन चारों ओर से अपने आलिंगन में आवोष्टित किए हुए है। इसी कारण से जब हम अन्तरिक्ष में व्याप्त इस आवरण (ओजोन परत) को हानिकारक उत्सर्जित गैसों से छिन्न करते हैं तो पृथ्वी का हृदय उच्छेदित होता है।वेदों में अग्नि (पावक) तत्व को सर्वाधिक शक्तिशाली एवं सर्वव्यापक माना गया है। उसे समस्त जड़-चेतन में ऊर्जा, चेतना तथा गति प्रदान करने वाला एवं नव सृजन का उत्प्रेरक माना गया है। 

अथर्ववेद में कहा गया है - 

“यस्ते अप्सु महिमा यो वनेषुप य औषधीषु पशुप्वप्स्वन्तः। 
अग्रे सर्वास्तन्वः संरभस्व ताभिर्न एहिद्रविणोदा अजस्त्र।।“

हे अग्निदेव आपकी महत्ता जल में (बडवाग्रि रुप में) औषधियों व वनस्पतियों में (फलपाक रूप में), पशु व प्राणियों में एवं अन्तरिक्षीय मेघों में (विद्युत रूप में) विद्यमान हैं। आप सभी रूप में पधारें एवं अक्षय द्रव्य (ऐश्वर्य) प्रदान करने वाले हों। यजुर्वेद के अनुसार यही अग्नि द्युलोक (अन्तरिक्ष में भी ऊपर परम प्रकाश लोक) में आदित्य (सूर्य) रूप में सर्वोच्च भाग पर विद्यमान होकर, जीवन का संचार करके धरती का पालन करते हुए, जल में जीवनी-शक्ति का संचार करती है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति एवं समस्त ग्रह नक्षत्र मंडल सहित पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के जिस तथ्य को आधुनिक विज्ञान आज केवल लगभग 200 वर्ष पूर्व ही समझ पाया है, उस भौगोलिक और सौर मंडल के रहस्यपूर्ण तथ्य को हमारे वैदिक ऋषि हजारों वर्ष पूर्व अनुभूत कर चुके थे। अथर्ववेद में ऋषियों ने कहा है - 

मल्वं विभ्रती गुरुभद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः। 
वरोहण पृथिवी संविदाना सूकराय कि जिहीते मृगाय।। 

(अथर्ववेद 12/1/48)

अर्थात गुरुत्वाकर्षण शक्ति के धारण की क्षमता से युक्त, सभी प्रकार के जड़-चेतन को धारित करने वाली, जल देने के साथ मेघों से युक्त सूर्य की किरणों से अपनी मलीनता (अंधकार) का निवारण करने वाली पृथ्वी सूर्य के चारो ओर भ्रमण करती हैं।

ऋग्वेद में स्पष्टतया व्यंजित हैः ‘उतो स मह्यं इदुंभिः युक्तान् षट् सेषिधत्।’ वायु में जीवनदायिनी शक्ति है। इसलिए, इसकी स्वच्छता पर्यावरण की अनुकूलता के लिए परम अपेक्षित है। वेदों में वायु की स्तुति की गई है, जिससे जीवों का निरन्तर सम्यक् विकास होता रहेः. यजुर्वेद (36.18) में ’मित्रस्याहं भक्षुसा सर्वाणि भूतानि समीक्षे’ का संकल्प व्यक्त है। अर्थात्, सभी प्राणियों के प्रति सहृदयता का परिचय देना ही जीवन का सही लक्षण है।

जल जीवन का प्रमुख तत्त्व है। इसलिए, वेदों में अनेक सन्दर्भों में उसके महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। ऋग्वेद (1.23.248) में ’अप्सु अन्तः अमृतं, अप्सु भेषजं’ के रूप में जल का वैशिष्ट्य बताया गया है। अर्थात्, जल में अमृत है, जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं। आवश्यकता है जल की शुद्धता-स्वच्छता को बनाए रखने की। अथर्ववेदीय पृथ्वीसूक्त में जलतत्त्व पर विचार करते हुए उसकी शुद्धता को स्वस्थ जीवन के लिए नितान्त आवश्यक माना गया है। ‘शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु’। (अथर्ववेद, 12.1.30) निस्सन्देह, जल-सन्तुलन से ही भूमि में अपेक्षित सरसता रहती है, पृथ्वी पर हरीतिमा छायी रहती है, वातावरण में स्वाभाविक उत्साह दिखाई पड़ता है एवं समस्त प्राणियों का जीवन सुखमय तथा आनन्दमय बना रहता है -

वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सानो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि
(अथर्ववेद, 12.1.52)

जल के साथ-साथ सभी ऋतुओं को अनुकूल रखने का वर्णन भी वेदों में मिलता है।  

तत्त्वदर्शी ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असन्तुलन की समस्या उत्पन्न ही नहीं हो सकती। इनमें हुए अवांछनीय परिवर्तनों के कारण आज जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण की समस्याएँ चारों ओर व्याप्त हैं। वेद का स्पष्ट निर्देश है कि लोग प्रकृति के प्रति सदा पूर्ण श्रद्धा रखें और आनन्दमय जीवन व्यतीत करने के निमित्त उससे पर्यावरण की अनुकूलता प्राप्त करते रहें।  

(लेखक पूर्व अपर आयकर आयुक्त  है।)
 

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