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जनजागरण से ही पर्यावरण में सुधार संभव

पर्यावरण के सुरक्षित रहने पर ही मनुष्य सुरक्षित रह सकेगा। मनुष्यों को प्लास्टिक से दूरी बनानी ही होगी। खानपान का तरीका भी बदलना पड़ेगा। पशुओं व पक्षियों को जीवित रखने और प्राकृतिक आपदाओं के कहर को कम करने के लिए पौधारोपण को बढ़ावा देना ही होगा। — डॉ. सूर्य प्रकाश अग्रवाल

 

भारत में पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या निरंतर गहराती जा रही है। विड़म्बना यह है कि कोई भी राजनीतिक दल बेसिर पैर के मुद्दे पर निरन्तर आंदोलनरत है, वे कभी भी पर्यावरण प्रदूषण की इस समस्या पर न तो कोई धरना प्रदर्शन करते है और न ही विधानसभा व संसद में बहस की मांग करते है। समय-समय पर राजनीतिक दलों द्वारा जारी चुनावी घोषणा पत्रों में भी पर्यावरण का कोई जिक्र तक नहीं होता है। जनसामान्य में भी प्रदूषण के प्रति जागरुकता के लिए कोई अभियान नहीं चलाया जाता है।

देश में प्रदूषण की समस्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। देश के विकास व औद्योगिकरण के लिए कुछ पेडों की कटाई का विरोध भी राजनीति का शिकार हो जाता है। इससे नये-नये प्रोजेक्ट टल जाते है और सरकार कुछ नहीं कर पाती है। इसका एक उदाहरण मुम्बई में मैट्रो के कारशेड़ निर्माण के लिए पेड़ों को काटने का विरोध है जो बाद में सुप्रीम कोर्ट पंहुच गया। कोर्ट ने मुम्बई की आरए कालोनी में पेड़ काटने पर रोक लगाने का आदेश देने के साथ ही मामले को पर्यावरण पीठ के समक्ष भेज दिया परन्तु तब तक जितने पेड़ काटने जरुरी थे उतने पेड़ काटे जा चुके थे।

वर्तमान में जलवायु परिवर्तन का खतरा निरंतर बढ़ता ही जा रहा है और जल, जंगल, जमीन को संरक्षित करने की जरुरत कहीं अधिक बढ़ गई है। शहरी क्षेत्रों में वृक्षों को काटने की नौबत न आये तो अच्छा है, परन्तु विकास तो जमीन पर ही होगा और उसके लिए पेड़ काटने ही पड़ेंगे। परन्तु पर्यावरण व विकास के बीच संतुलन स्थापित करने की जरुरत है। जितने पेड़ विकास के नाम पर काटे जायें उससे दुगुने पेड़ तत्काल ही लगा भी दिये जायें। विकास की चिन्ता करते समय पर्यावरण की भी चिन्ता करनी चाहिए। जंगल बचाने व बढ़ाने पर कहीं ज्यादा चिन्ता की जानी चाहिए। बिगड़ते पर्यावरण और उसके भयानक परिणामों पर ध्यान देते हुए समाज में जागरुकता बढ़ाने की अत्यन्त आवश्यकता है।

अनियोजित विकास की दौड़ में हरियाली की बलि दी जा रही है। देश के कई शहर एक प्रकार से कंक्रीट के जंगल बन गये है। गत 20-25 वर्षों में भारत के कई बडे़ शहरों में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई है तथा शहरों में हरियाली बहुत कम होती जा रही है। इंड़ियन साईंस इंस्टीट्यूट के शेधकर्ताओं ने उपग्रह जनित सेंसर का प्रयोग करके भारत के चार शहरों में शहरीकरण की दर देखी। उनके उल्लेखनीय कार्य से ज्ञात हुआ कि 1992 में भोपाल में पेड़ों से ढ़का रकबा 66 प्रतिशत था जो 2019 तक गिरकर 22 प्रतिशत रह गया। अहमदाबाद में 20 वर्षो में पेड़ों से ढ़का रकबा 46 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत रह गया। शहरी निर्मित क्षेत्र में 1990 और 2010 के बीच 132 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 2030 तक अहमदाबाद में पेड़ों से ढ़का रकबा 3 प्रतिशत ही रह जायेगा। हैदराबाद में 20 वर्षों में पेड़ों से ढ़का रकबा 2.71 प्रतिशत से गिरकर 1.66 प्रतिशत हो गया है। शहरी निर्मित क्षेत्र में 1999 और 2009 के बीच 400 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2024 तक हैदराबाद क्षेत्र में पेड़ों से ढ़का रकबा 1.84 प्रतिशत होने की उम्मीद है। 1.40 करोड़ की जनसंख्या वाले कोलकाता में 20 वर्षो में 23.4 प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया है। शहरी निर्मित क्षेत्र में 1990 और 2010 के बीच 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 2030 तक कोलकाता क्षेत्र में पेड़ों से ढ़का रकबा 3.37 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है।

सरकारों के तमाम आग्रहों के बावजूद पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की घटनाएं निर्बाध रुप से जारी है। पॉलीथिन एवं अन्य रुपों में सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग ख्ुले आम किया जा रहा है। लगभग प्रत्येक राज्य में ही नदियों से गैर कानूनी तरीके से बालू का उठान जारी है। अमेरिका तो पर्यावरण की अपेक्षा अमेरिका के हितों को संरक्षण देता है। चीन भी अपने कोयले से चलने वाले प्लांटों को बंद करने के लिए तैयार नहीं है।

कुल मिलाकर गत 30 वर्षो में जलवायु परिवर्तन ने जंगलो की आग ने उल्ल्ेखनीय वृद्धि की है। ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी (सीएसआईआरओ) के नए शोध में खुलासा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ही विश्व में अनेक देशों के जंगलों में आग लग रही है। इस संस्था ने गत 32 वर्षो में 3,24,000 वर्ग किलोमीटर जंगल में आग की गतिविधि का विश्लेषण किया। इसकी रिपोर्ट के अनुसार 2002-2019 के बीच और 1988-2001 की तुलना में सालाना जलाए जाने वाले जंगल का औसत क्षेत्र 800 प्रतिशत अधिक था। 2019-20 के दौरान ऑस्ट्रेलिया में करीब 1,86,000 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल जलकर राख हो गये। इसी अवधि में ब्राजील के अमेजन में भी बड़े क्षेत्र को आग ने अपनी चपेट में ले लिया था। 2018-2020 में भी पश्चिमी अमेरिका और ब्रिटिश कोलंबिया के जंगलों में भीषण आग लग गई थी। वनों की निगरानी करने वाली संस्था ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार 4 जनवरी से 12 अप्रैल 2021 के बीच 100 दिन में सिर्फ भारत में जंगलों में आग के 15,170 मामले सामने आ चुके है जो पिछले वर्ष की तुलना में कही अधिक है। इनमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड़, झारखंड़, असम और बिहार को आग से प्रभावित शीर्ष पांच राज्यों में बताया गया है।

भारत तथा विश्व के अन्य देशों को जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए अभी अथक प्रयास करने पड़ेंगे, जिसमें सरकारों के साथ साथ जनजागरुकता एवं जनभागीदारी की आवश्यकता पड़ेगी। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्त करना चाहते है। परन्तु देश के विभिन्न शहरों में कचरे व कूड़े के पहाड़ निरन्तर आकाश को छूते ही जा रहे है। प्रकृति में जीव, जन्तु, पशु व पक्षियों का भी स्थान होता है। इन पर भी मनुष्य के साथ-साथ बुरा प्रभाव पड़ता जा रहा है। मनुष्य को सभी जीवों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा। पशुओं व पक्षियों की उपस्थिति पर्यावरण में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। लोगों को पशु व पक्षियों के प्रति सोचना चाहिए। उनके लिए दाना व पानी का भी प्रबंध करना चाहिए। पशु व पक्षियों के प्रति मनुष्य को अपना व्यवहार बदलना होगा तभी पर्यावरण सुरक्षित रह पायेगा। पर्यावरण के सुरक्षित रहने पर ही मनुष्य सुरक्षित रह सकेगा। मनुष्यों को प्लास्टिक से दूरी बनानी ही होगी। खानपान का तरीका भी बदलना पड़ेगा। पशुओं व पक्षियों को जीवित रखने और प्राकृतिक आपदाओं के कहर को कम करने के लिए पौधारोपण को बढ़ावा देना ही होगा। आगे आने वाली सन्तानों को पेड़, पौधे, पशु व पक्षियों का महत्व उन्हें बताना होगा।   

डॉ. सूर्य प्रकाश अग्रवाल सनातन धर्म महाविद्यालय मुजफ्फरनगर 251001 (उ.प्र.), के वाणिज्य संकाय के संकायाध्यक्ष व ऐसोसियेट प्रोफेसर के पद से व महाविद्यालय के प्राचार्य पद से अवकाश प्राप्त हैं तथा स्वतंत्र लेखक व टिप्पणीकार है।

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