भारत चीन की तुलना में ऐसे शक्तिशाली देश के रूप में उभरेगा, जिससे एशिया ही नहीं बल्कि विश्व में भी भारत की छवि मजबूत देश के रूप पर होगी। — स्वदेशी संवाद
बीते 3 सालों में भारत ने प्रतिकूल हालात के बीच बेहतरी के प्रयास मद्धिम नहीं पड़ने दिए। कोरोना महामारी में लाखों लोगों को लील लिया। लाकडाउन से अर्थव्यवस्था एक तिमाही में तो पूरी तरह गोता ही लगा गई। 1947 में देश विभाजन के बाद पहली दफा हुआ जब अपने ही देश में बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। शहरों में कार्य कर रहे कामगार बड़ी तादाद में अपने गांव घर की ओर पैदल ही चल पड़ने को विवश हुए। धार्मिक तनाव भी कुछ कम नहीं रहे। अभी समूचा उत्तर भारत गर्म हवाओं की गिरफ्त में है। वैश्विक बाजार में तेल और खाद पदार्थों के उछाल खाते दामों ने गरीब के लिए हालात और भी खराब और असहनीय कर दिए हैं।
बहरहाल भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा परिदृश्य में हल्के पड़े हालात के बीच हमारे आस पास ऐसे तत्वों का जमावड़ा हो चुका है जो भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत ज्यादा प्रभाव डालेंगे अगले दशक के दौरान अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर से आवाम का स्तर बेहतर होगा और वैश्विक पटल पर एशिया की धमक बढ़ना तय है। तकनीकी उन्नयन, ऊर्जा उपयोग में बदलाव और भू राजनीतिक स्थितियों में परिवर्तन से तमाम अवसर उभरते हुए दिख रहे हैं, जिनसे छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान निकालना संभव होगा लेकिन भारत में विद्वेष की राजनीति पर चौकस रहना होगा।
वर्ष 1991 से उदारीकरण की राह पर निकली भारत की अर्थव्यवस्था को उल्लास और निराशा दोनों का ही सामना करना पड़ा है। कभी तो यह चीन अपनी उद्यमशीलता के चलते सुपर पावर के रूप में उभरते देश की अर्थव्यवस्था की तरह दिखलाई पड़ी तो कभी अपनी बेतहाशा आबादी के चलते युवाओं में आशा का संचार भरने में विफल रही, कभी विशुद्ध पश्चिमी जगत सरीखी दिखी जहां वोडाफोन और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पनपने के हालात बने। भारत ने अधिकांश बड़े देशों से बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन निराशा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। भारत उस बड़े विनिर्माण केंद्र के रूप में अभी स्थापित नहीं हुआ जिसने एशिया को समृद्ध करने में खासी भूमिका निभाई, ना ही ऐसी बड़ी कंपनियां ही बना सका जो विकास के लिए पूंजी के प्रवाह को सुगम कर पाती। इसके बिखरे बाजारों और असंगठित क्षेत्र की कंपनियों ने जरूर कुछ अच्छे रोजगार सृजन किए। लेकिन महामारी से उभरते भारत में वृद्धि के कुछ नए रुझान दिखलाई पड़ने लगे हैं। ऐसा पहले नहीं देखा गया था। घरेलू स्तर पर कोई भी तकनीकी उन्नयन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तकनीक की लागत घटने से भारत को एक राष्ट्रीय ‘तकनीक प्रवाह’ तैयार करने में मदद मिली। सरकार प्रायोजित डिजिटल सेवा आरंभ की गई जिससे साधारण भारतीय इलेक्ट्रानिक पहचान, भुगतान और कर प्रणालियों के साथ ही बैंक भुगतान से परिचित हो सका। इन प्लेटफार्म का त्वरित उपयोग हमारी विशाल और अकुशल नगद आधारित असंगठित अर्थव्यवस्था को 21वीं सदी में ले जा रहा है। माहौल इस कदर उत्साहजनक है कि अमेरिका और चीन के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में आकार ले रही है। वैश्विक रुझान भी सबसे बड़े कारोबारी संकुलों का निर्माण में मददगार है। एक दशक के भीतर ही भारत में आईटी सेवा उद्योग आकार में 2 गुना हो चुका है, जिससे समूचे विश्व में सॉफ्टवेयर कामगारों के अभाव के बीच भारतीय मेधा कारगर भूमिका में है। पश्चिम की कंपनियां हर साल 500000 नए इंजीनियर आखिर कहां से जुटा पाती? नवीनीकृत ऊर्जा निवेश में भी बढ़ोतरी हुई है।
भारत सोलर प्रतिष्ठापन में विश्व के तीसरे स्थान पर जा पहुंचा है। हरित हाइड्रोजन में अग्रणी भूमिका में पहुंच चुका है। तमाम देशों की फर्म चीन पर आपूर्ति श्रृंखला के रूप में अपनी निर्भरता कम करना चाहती हैं, ऐसे में आकर्षक विनिर्माण गंतव्य के रूप में भारत उभरा है। इस मामले में भारत द्वारा क्रियान्वित की जा रही 26 बिलियन डालर की योजना से मदद मिल रही है। पश्चिमी देशों की सरकारें भारत के साथ रक्षा और तकनीक के क्षेत्र में सहयोग करने की इच्छुक हैं। भारत कम समय में 950 मिलियन लोगों को डिजिटल कल्याणकारी प्रणाली के माध्यम से 36 महीनों में 200 बिलियन डालर की सहायता कर चुका है। इन तमाम बदलावों से विनिर्माण क्षेत्र की कायाकल्प होने के हालात एकदम से नहीं बनेंगे क्योंकि दक्षिण कोरिया चीन जैसे देशों ने बड़े विनिर्माण केंद्र बनाने में सफलता बहुत पहले हासिल कर ली है। अति मौसमी स्थितियों जैसी गंभीर समस्याओं से उनका ज्यादा वास्ता नहीं रह गया है। लेकिन इतना जरूर है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2022 में विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है।
आर्थिक वृद्धि इतना धन उपार्जित कर लेती है कि देश के मानव संसाधनों खासकर अस्पतालों स्कूलों में अच्छे निवेश कर सकें सच मानिए तो भारत ने चीन और अमेरिका दोनों से ही फायदा उठाया है। देश में भी एक के बाद एक सरकारों ने तेजी से आर्थिक सुधारों को दिशा में प्रयास किया है। डिजिटल पहचान योजना और नई राष्ट्रीय कर प्रणाली के बारे में एक दशक या उससे पहले से भी सोचा जाने लगा था। मोदी सरकार के लिए भी हालात साजगार रहे। इस सरकार ने तकनीकी उन्नयन की दिशा में बढ़कर काम किया। प्रत्यक्ष लाभ अंतरण की दिशा में उल्लेखनीय काम हुआ। असंगठित अर्थव्यवस्था को कम करने के लिए फैसले को अंजाम देने में तत्परता दिखाई गई। केंद्र सरकार ने सौर ऊर्जा खरीद को प्राथमिकता दी वित्तीय सुधारों से नई फार्म खोलने और खराब प्रदर्शन कर रही फर्मों को दिवालिया घोषित करने में आसानी हुई। मोदी की राजनीति में मजबूत स्थिति से आर्थिक विकास का सिलसिला बनाए रखने में मदद मिली। आज स्थिति यह है कि भारत के विपक्ष तक को भी लगता है कि 2024 के चुनाव के बाद भी मोदी सत्ता में बने रह सकते हैं।
लेकिन एक खतरा यह भी है कि अगले 10 दशक में दबदबा कहीं एक तंत्र में ना ढल जाए। हालांकि कंपनियों को ज्यादा चिंता नहीं है क्योंकि उन्हें अभी उम्मीद है कि मोदी तनाव को नियंत्रित रख सकते हैं। हिंसा और मानवाधिकार की बिगड़ती स्थिति से पश्चिमी बाजारों में भारत की पहुंच पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का अंदेशा आ सकता है, वहीं भारतीय जनता पार्टी के धार्मिक और भाषाई आग्रहों से भी विशाल देश की स्थिरता पर प्रश्न चिन्ह है। विदेशी मुद्रा के बरक्श राष्ट्रीय नव-उत्थान के प्रति भाजपा का आग्रह प्रतिभागी संरक्षणवाद की तरफ अर्थव्यवस्था को धकेल सकता है। भाजपा सिलिकॉन वैली से ब्लैक चेक तो चाहती है लेकिन भारत में प्रतिस्पर्धा करने वाली विदेशी फर्मों को लेकर ज्यादा चिंता में रहती है। सब्सिडी का दौर मिल बांट कर खाने वाले पूंजीवाद का सबब न बन जाए। अगर ऐसा होता है तो यह सब कारण भारत की प्रगति की राह में अवरोध ही होंगे। आने वाले वर्षों में भारत के लिए 7 से 8 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करना बेहद महत्वपूर्ण है इसी से बड़ी संख्या में भारतीय गरीबी के दलदल से उभर सकेंगे। एक विशाल बाजार उभरेगा और वैश्विक कारोबार के लिए आधार तैयार होगा। भारत चीन की तुलना में ऐसे शक्तिशाली देश के रूप में उभरेगा, जिससे एशिया ही नहीं बल्कि विश्व में भी भारत की छवि मजबूत देश के रूप पर होगी। संजोग, उत्साहजनक स्थितियों और व्यावहारिक फैसलों से अगले दशक में भारत के समक्ष नया अवसर होगा और भारत एवं मोदी सरकार के लिए बेहद साजगार हालात होंगे, इतना कि उन्हें कुछ खास नहीं करना पड़ेगा, सब कुछ अपने आप होता चला जाएगा।
(द इकोनॉमिस्ट से साभार)