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आत्मनिर्भर भारत बनाम मुफ्त राजनीति

‘मुफ्त राजनीति’ से सत्ता तक पहुँचने का यह रास्ता किसी के लिए भी हितकर नहीं हो सकता, बल्कि अंत में विनाशक ही साबित होगा। — डॉ. युवराज कुमार

 

भारत आज विश्व में एक शक्तिशाली, सम्मानजनक एवं आत्मनिर्भर देश के रूप में पहचाना जाता है। जिसके पीछे हमारी सफल रणनीतियां, निर्णय तथा स्वदेशी से स्वालंबन एवं आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना निश्चित रूप से रही है। लेकिन कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में ‘मुफ्त राजनीति’ अर्थात ‘मुफ्त में देने की राजनीति’ या ‘फ्रीबी की राजनीति’ का प्रवेश हो चुका है। अगर यह कहे की ‘मुफ्त राजनीति’ जनमत को प्रभावित कर, ‘सत्ता को हथियाने’ का एक हथियार बन गया है तो गलत नहीं होगा। आज ‘मुफ्त राजनीति’ फैलती ही जा रही है और दीमक का स्वरूप लेने को तैयार है। वास्तव में वर्तमान ‘मुफ्त राजनीति’ लोकतंत्र की आर्थिक नीव को कमजोर कर, भुखमरी का मार्ग तैयार कर रही है। 

भारत में विभन्न राज्यों की सरकारों ने ‘मुफ्त की राजनीति’ के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। जिनमे आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, झारखंड, पंजाब एवं दिल्ली शामिल है। इसमें सरकारे सत्ता प्राप्त करने के लिए मुफ्त में पानी, बिजली, यातायात इत्यादि लोकलुभावन सुविधाओं को मुफ्त में देने का लालच देकर सत्ता हासिल कर लेती है। सुविधाओं की ‘व्यवस्था करना’ एवं ‘मुफ्त बाँटना’ दोनों में काफी बड़ा अंतर है लेकिन सरकारे जानते हुए भी जानबूझकर इसका फायदा उठाना चाहती है और लोगों को भ्रमित कर, मुफ्त में देने की इस ‘रेवड़ी संस्कृति’ को कल्याणकारी व्यवस्था का नाम देकर, अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करती है।

‘मुफ्त राजनीति’ से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की बात करे तो राज्य तथा सरकारों के कर्तव्यों का भारतीय संविधान के अध्याय 4 में अनुच्छेद 36 से 51 के अंतर्गत ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों’ का वर्णन किया गया है। सरकारों को अपने दायित्व तथा कर्तव्यों को इसी सीमा के अंतर्गत कल्याणकारी नियम तथा व्यवस्था करके निर्वाह करना चाहिए। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 282 के अनुसार संघ एवं राज्य विधानमंडल किसी भी सार्वजानिक उद्देश्य के लिए कोई ‘अनुदान’ दे सकता है। वास्तव में अनुच्छेद 282 का उपयोग और दुरुपयोग सभी केंद्र एवं राज्य प्रायोजित योजनाओं के लिए किया गया है, जिस पर फिर से विचार करना होगा। क्योकि मूल रूप से ‘मुफ्त राजनीति’ को सहारा या बढ़ावा यही से मिलता है।  

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कभी-कभी कोई भी मुफ़्त उपहार एक स्वस्थ और मजबूत कार्यबल का निर्माण कर सकता है, जो किसी विकास रणनीति का हिस्सा हो सकता है। जैसे, मनरेगा पर खर्चा, खाद्य राशन योजना सब्सिडी, शिक्षा पर जाने वाली सब्सिडी इत्यादि। लेकिन हमें ‘मूल्यवान वस्तुओं’ और ‘सार्वजानिक वस्तुओं’ में अंतर करना आवश्यक है। साथ ही यह जानना जरुरी नहीं कि मुफ्त में प्राप्ति कितनी सस्ती है, बल्कि यह जानना जरुरी है कि भविष्य में अर्थव्यवस्था, जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक सामंजस्य के लिए कितनी महंगी होगी। इसलिए भविष्योन्मुखी बनने की आवश्यकता है।  

आज अधिकांशतः विशेषकर वे लोग जो ‘मुफ्त की राजनीति’ को स्वीकार कर रहे है, जिन्हें कल्याणकारी नीतियों और मुफ्त की राजनीति में अंतर दिखाई नहीं दे रहा है और न ही उसका दूरगामी परिणाम। वे लोग सरकार द्वारा जो भी मुफ्त में दिया जा रहा है उसे कल्याणकारी व्यवस्था के अंतर्गत समझकर स्वीकार करते जा रहे है। यह अनभिज्ञता देश के ‘आत्मनिर्भर भारत’ की संकल्पना को प्रभावित तो करेगी ही, साथ ही देश के भविष्य को भी कंगाली तक ले जा सकती है। वर्तमान में इस ‘मुफ्त की राजनीति’ के दुष्परिणाम श्रीलंका, वेनेज़ुएला, अर्जेंटीना इत्यादि देशों में उदाहरण के रूप में जगजाहिर है, जिनकी हालत बद से बदत्तर हो गई है। इन सब देशों से भारतीय राजनीति को सबक लेने की आवश्यकता है।

भारत के प्रधानमत्री मोदी जी ने जुलाई, 2022 इस ‘मुफ्त राजनीति’ को “रेवड़ी संस्कृति” का नाम देकर इसको देश के लिए खतरा तक बताया है। क्योंकि जहां ‘मुफ्त की राजनीति’ देश की अर्थव्यवस्था को पंगु बनाकर, व्यक्ति को निक्कमा और नाकारा बनाएगी, वहां यह आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना, स्वदेशी से स्वालंबन, स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर भारत के विजन में बाधा उत्पन्न कर करेगी।

भारत में जिन राज्यों ने ‘मुफ्त की राजनीति’ को अपनाया था, अब यह उनके गले की हड्डी भी बनती जा रही है। क्योंकि लुभावने वायदे के अनुरूप मुफ्त देने की प्रथा को निभाने के लिए इन पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। उदाहरण के लिए पंजाब पर 2.75 लाख करोड़ का कर्ज है तथा 56 हजार करोड़ कर्ज लेने की बात हो रही है। दिल्ली पर 67 हजार करोड़ रुपए का कर्ज है। 2019 सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली परिवहन का घाटा 29,143 करोड़ रू., दिल्ली जल बोर्ड का घाटा 27,660 करोड़ रू., तथा बिजली कंपनियों का घाटा 2,561 करोड़ रू. बताया गया है।

दिल्ली की स्थिति तो यहाँ तक पहुँच गई है कि वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के 12 महाविद्यालयों के शिक्षकों, कर्मचारियों को अपने वेतन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जिसका विरोध दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन तथा दिल्ली यूनिवर्सिटी कर्मचारी एसोसिएशन हड़तालों के रूप में कर रहे है। दिल्ली विश्वविद्यालय के दीनदयाल उपाध्याय महाविद्यालय के शिक्षकों को अपने वेतन में से असिस्टेंट प्रोफेसर के वेतन से 30 हजार रू. तथा एसोसिएट प्रोफेसर के वेतन से 50 हजार रू. की कटौती के लिए कहा गया है। स्पष्ट है ‘मुफ्त की राजनीति’ के दुष्परिणाम धीरे-धीरे लोगों के समक्ष आने लगे है।

इसके बावजूद भारत के क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ अब राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी ‘मुफ्त राजनीति’ को अपनाने को आतुर है। अभी हाल ही में 5 सितंबर 2022 को राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में गुजरात के लोगों के लिए वचन दिया है कि 500 रू. में गैस सिलेंडर, 300 यूनिट बिजली मुफ्त, 10 लाख रू. तक मुफ्त इलाज, किसानों का तीन लाख तक कर्ज माफ, 3000 सरकारी इंग्लिश मीडियम स्कूल तथा करोना पीड़ित परिवारों को 4 लाख रू. मुआवजा दिया जायेगा। 

देखा जाए तो ‘मुफ्त राजनीति’ ने देश के नागरिकों को दो भागों में बाँटकर, नफरत की राजनीति को भी प्रारम्भ कर दिया है। एक तरफ ‘मुफ्त की राजनीति’ का उपयोग करने वाले ‘नॉन टेक्स पेयर’ जोकि संख्या में अधिक है, दूसरी तरफ ‘मुफ्त की राजनीति’ का उपयोग न के बराबर करने वाले ‘टेक्स पेयर’ जोकि संख्या में कम है। जहाँ एक तरफ ‘टेक्स पेयर’ जोकि सक्षम, शिक्षित, जागरूक, प्रगतिशील नागरिक है, को अपने पैसों का दुरूपयोग ‘मुफ्त राजनीति’ के लिए बिल्कुल नहीं चाहते है, वही दूसरी तरफ ‘नॉन टेक्स पेयर’ विशेष रूप से निम्न मध्यम वर्ग जिसमें बिना मेहनत/कार्य किये मुफ्त में लेने की लालसा मानव स्वभाव के अनुरूप बनी रहती है।   भविष्य में ‘मुफ्त राजनीति’ के दुष्परिणाम देखने को मिल सकते है - लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर होना, राज्यों की दयनीय वित्तीय स्थिति, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का अभाव, ‘मुफ्त राजनीति’ में प्रतिस्पर्धा का आरम्भ होना, राजस्व का दुरूपयोग, मानव मूल्यों का हनन, असमानता में बढोत्तरी, राष्ट्र विरोधी, दक्षता विरोधी, क्षमता विरोधी, विकास विरोधी तथा आत्मनिर्भरता विरोधी इत्यादि।

देश को मुफ्त राजनीति से बचाना है तो सर्वप्रथम, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 282 में सुधार कर ‘अनुदान’ की परिभाषा को दुरस्त करना होगा, सरकार के दायित्व व कर्त्तव्यों को पुनः निर्धारित करना होगा, कल्याण के क्षेत्राधिकारों एवं सीमाओं को स्पष्ट करना होगा तथा सरकारी खजाने तथा नागरिकों द्वारा प्राप्त राजस्व का उपयोग एवं दुरूपयोग में पारदर्शिता रखनी होगी। इसके अलावा मुफ्त राजनीति के प्रति बुद्धिजीवियों का भी अपना सामाजिक दायित्व निभाना होगा तथा अपनी लेखनी, वाद-विवाद, वार्ता, सेमिनार इत्यादि के द्वारा जागरूकता लाये और मुफ्त राजनीति के फायदे तथा नुकसान को समझाते हुए नागरिकों को इतना जागरूक कर दे कि वे स्वयं मुफ्त राजनीति को अस्वीकार कर दे। जो अस्वीकार करना चाहते है उनका आंकड़ा तैयार किया जाये। साथ ही, मीडिया ‘जागो नागरिकों जागो’ के माध्यम से एक मुहीम चलाये। जैसा कि कोरोना महामारी के समय चाईना के विरुद्ध ‘स्वदेशी एवं मेक इन इंडिया’ का अभियान चलाया था, जिसमें जबरदस्त सफलता मिली थी।

अन्त में, यही कहा जा सकता है कि ‘मुफ्त राजनीति’ से सत्ता तक पहुँचने का यह रास्ता किसी के लिए भी (देश, राज्य सरकारें, राजनीतिक दल, वर्ग विशेष, समाज या स्वयं मानव) हितकर नहीं हो सकता, बल्कि अंत में विनाशक ही साबित होगा। इसलिए समय रहते भारतीय न्यायालय, चुनाव आयोग, नागरिक समाज, स्वैक्षिक संगठनों को देशहित एवं मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए कठोर नियम एवं कानून बनाकर हस्तक्षेप करना होगा।  ु

लेखकः असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनैतिक विज्ञान विभाग, पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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