फसल चक्र के रास्ते मिलेगी आत्मनिर्भरता
पिछले कुछ दिनों से किसानों के लिए अच्छी खबर आ रही है कि सरसों के किसानों को बाजार में हर किं्वटल सरसों के लिए 7000 रू. से 8000 रू. तक का भाव मिल रहा है। गौरतलब है कि पिछले वर्षों में उसे इससे आधा भाव या उससे भी कम मिला करता था। यानी कह सकते हैं कि सरसों के किसान की आमदनी इस साल बढ़ी है। यदि पूरे देश की बात करें तो रेपसीड और सरसों की खेती 20 लाख हेक्टेयर भूमि पर 1950-51 में होती थी। यह रकबा पिछले 70 वर्षों में बढ़कर 62 लाख हेक्टेयर तक ही पहुंच पाया है, जबकि इस बीच प्रति हेक्टेयर औसत पैदावार 368 किलो से बढ़कर 1500 किलो तक पहुंच चुकी है। यानी सरसों का रकबा और पैदावार दोनों बढ़े है, लेकिन देश में खाद्य तेलों की बढ़ती मांग के सामने यह वृद्धि बहुत ही कम है। यही कारण है कि आज भी हम 150 लाख टन से अधिक खाद्य तेलों का आयात करते हैं और हमारा खाद्य तेलों का आयात बिल 2019-20 में 69000 करोड रुपए रहा।
कुछ समय पहले तक तो हमारा देश खाद्य तेलों और दालों दोनों के लिए आयात पर अत्यधिक निर्भर हो गया था। हाल ही के वर्षों में इन दोनों के आयात में कमी आई है और देश आत्मनिर्भर की ओर बढ़ रहा है। समझना होगा कि आयात पर निर्भरता होने का क्या कारण है? और आयात पर निर्भरता अब कम कैसे हो रहे है और उसे और कम कैसे करें? दालों के संबंध में यदि देखें तो हमारा दालों का उत्पादन कई दशकों तक 120 से 140 लाख टन तक सीमित रहा। देश में दालों की बढ़ती मांग के चलते दालों का आयात लगातार बढ़ता रहा और देश में दालों का उत्पादन बढ़ाने का कोई प्रयास दिखाई नहीं दिया। पिछले चार-पांच साल से केंद्र सरकार ने दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना शुरू कर दिया और आयातित दालों की ऊंची कीमतों के चलते किसानों को दाल के उत्पादन में प्रोत्साहन मिला और मात्र चार-पांच वर्षों में ही दाल का उत्पादन 170 लाख टन से बढ़कर 2020-21 में 255.6 लाख टन तक पहुंच गया। अभी भी देश अपनी जरूरत यानी 270 लाख से थोड़ा कम ही दाल का उत्पादन करता है।
अन्य खाद्य तेलों के मुकाबले सरसों के तेल की उपभोक्ता मांग में काफी वृद्धि हुई है, जबकि देश में उसकी आपूर्ति काफी कम है। अकेले पंजाब में ही देखा जाए तो अनुमान है कि वर्तमान प्रति हेक्टेयर पैदावार के आधार पर कुल 1.75 लाख हेक्टेयर भूमि पर सरसों की खेती हो, तो पंजाब अपनी सरसों की मांग की पूर्ति कर सकता है। जबकि आज भी मात्र 32 हजार हेक्टेयर भूमि पर ही सरसों की खेती होती है। सरसों के प्रति किसानों की बेरुखी का प्रमुख कारण यह है कि उन्हें सरसों की सही कीमत नहीं मिल पाती और इसलिए वह इस मौसम में गेहूं की खेती करना ज्यादा पसंद करते हैं। क्योंकि गेहूं को वे सरकार को एमएसपी पर भेज सकते हैं। खाद्य तेलों के लिए पहले भारत विदेशों पर निर्भर नहीं था। अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के षड्यंत्र, सरकारों की अनदेखी, अंधाधुंध आयात, किसानों के प्रबोधन के अभाव आदि कई कारण है, जिसके फलस्वरूप हमारा देश आत्मनिर्भरता से परनिर्भरता की स्थिति में पहुंच गया।
खाद्य तेलों में हालांकि हाल ही के वर्षों में तिलहनां का उत्पादन बढ़ते हुए 2020-21 में 366 लाख टन होने की संभावना है। हालांकि इसके बावजूद खाद्य तेलों में हमारी निर्भरता विदेशों पर बनी हुई है। चाहे हमारा खाद्य तेलों का आयात वर्ष 2016-17 में 73039 करोड़ रुपए से घटकर 2019-20 में 68558 करोड़ रह गया है। खाद्य तेलों में विदेशों पर निर्भरता हमारे देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है। एक तरफ हम देखते हैं कि देश में खाद्यान्न भंडार ऊफान ले रहे हैं। गौरतलब है कि वर्ष 2020-21 में खाद्यान्न का उत्पादन 305 मिलियन टन पहुँच है जो पिछले वर्ष की तुलना में 2.66 प्रतिशत ज्यादा है। तिलहन का उत्पादन भी इस वर्ष 10 प्रतिशत बढ़ा है। फिर भी अभी खाद्य तेलों की कमी है। यह स्थिति कहीं न कहीं हमारे खाद्य उत्पादन प्रबंधन पर प्रश्न खड़ा करती है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि फसल चक्र और फसलों के चयन में बदलाव के माध्यम से हम आसानी से परिस्थिति बदल सकते हैं। जिससे देश खाद्य तेलों आदि में आत्मनिर्भर भी होगा, जिसे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा तो बचेगी ही, किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।
सरकार द्वारा पिछले एक-दो वर्षों में पॉम ऑयल के प्रमुख सप्लायर देश मलेशिया से इसके आयात पर रोक लगाई है। साथ ही साथ पॉम ऑयल पर आयात शुल्क में भी वृद्धि की गई है। लेकिन इन प्रोत्साहनों के साथ-साथ कई अन्य उपाय भी है जिनको अपनाकर हम तिलहनां के उत्पादन को प्रोत्साहित कर देश को खाद्य तेलों में आत्मनिर्भर बना सकते हैं।
यदि तिलहन आयातकों के लिए अनिवार्य कर दिया जाए कि वह अपने सौदों को एक प्राधिकरण के पास पंजीकृत कराए, तो ऐसे में सरकार के पास खाद्य तेल के प्रकार, उसके उद्भव, कीमत और आने के समय के बारे में जानकारी आ जाएगी। ऐसे में उन पर प्रभावी नियंत्रण संभव हो सकेगा।
दूसरे आयातकों को अभी बैंकों द्वारा 90 से 150 दिनों तक का क्रेडिट (उधार) दिया जाता है। खाद्य तेल तो 10 से 20 दिन में भारत पहुंच जाता है, लेकिन शेष दिनों में उस उधार के दम पर आयातक सट्टेबाजी आदि करने लगते है, जिससे तेल उपभोक्ता के लिए तो महंगा हो जाता है लेकिन किसानों को कीमत बढ़ने का कोई लाभ नहीं मिलता। यदि यह उधार 30-40 दिन का कर दिया जाये तो तेल की जमाखोरी और सट्टेबाजी पर अंकुश लगेगा।
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