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भारत की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का हाल

सर्वांगीण ग्रामीण आत्मनिर्भरता से भरे विकास से ही गरीब को आय का स्त्रोत तथा बेरोजगार को रोजगार दिया जा सकता है। अभी इस ओर ज्यादा प्रयत्न की आवश्यकता है। — अनिल जवलेकर

 

भारत की अर्थव्यवस्था एक ओर दुनिया की ऊपरी पायदान पर चढ़ रही है तो दूसरी ओर भारत सभी दृष्टि से आत्मनिर्भर होने की कोशिश में है। इसका मतलब हरगिज यह नहीं है कि भारत के प्रश्न कम हुए है या सब कुछ कुशल मंगल है। भारत में ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ और ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ ऐसी दो योजनाएँ है जो चलने का मतलब ही यह है कि भारत अब भी पिछड़ा हुआ है और इसकी अर्थव्यवस्था अपने बहुत सारे लोगों को रोजगार देने एवं उनको सही आय स्त्रोत देने में समर्थ नहीं है। लेकिन यह भी सराहनीय है कि भारत ऐसी योजना चला रहा है जो अर्थव्यवस्था की मजबूती का प्रतीक है। एक योजना में 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त अनाज देने की बात है तो दूसरी में हर काम कर सकने वाले ग्रामीण वयस्क को मांगने पर रोजगार देने की। यह दुनिया की सबसे बड़ी कल्याणकारी योजनाएँ मानी जाती है। अनाज योजना के लिए भारत के पास अनाज का भंडार काफी है, इसलिए यह योजना चलाने में कोई दिक्कत दिखाई नहीं देती। लेकिन रोजगार गारंटी योजना चलाना इतना आसान नहीं है क्योंकि उसको पैसा लगता है और नए-नए काम की योजनाएं भी चलानी पड़ती है और यही चिंता का विषय है। 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना 

सूखे की स्थिति में मददगार हो, ऐसे रोजगार निर्माण की बात तो कौटिल्य के जमाने से भारतीय सोच में  रही है और वैसे प्रयत्न भी होते रहे हैं। लेकिन जब ब्रिटिश शासक भारत को सभी दृष्टि से कंगाल करके गए और जनता खाने-खाने को मोहताज हुई तो ऐसी योजना की जरूरत ज्यादा महसूस हुई और स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने रोजगार अवसर निर्माण करने हेतु बहुत सारे कदम उठाए। लेकिन रोजगार निर्माण के सही प्रयत्न 1970 के दशक से शुरू हुए, जिससे ग्रामीण स्वयं रोजगार या प्रत्यक्ष रोजगार के अवसर निर्माण पर ज़ोर दिया गया। महाराष्ट्र पहला राज्य था जिसने ऐसी रोजगार गारंटी योजना 1972-73 के सूखे की परिस्थिति में सहायता हेतु शुरू की। जिसको बाद में राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकारा गया। पहले 1977 में काम के लिए अनाज और बाद में 1980 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना तथा जिनके पास जमीन नहीं है उनके लिए रोजगार गारंटी की बात हुई। सन् 2000 आते-आते जवाहर रोजगार योजना के नाम से एक योजना आयी। ऐसे कई रास्ते से गुजरते हुए और कई नाम से अमल में होते हुए आखिरकार कानूनन रोजगार गारंटी की बात की गई और ऐसा कानून 2005 में पास किया गया। तब से जम्मू और कश्मीर छोड़ देश भर में यह योजना लागू है। 

यह योजना रोजगार देने की गारंटी देती है 

जाहिर है कि यह रोजगार योजना ग्रामीण वयस्कों के लिए बनाई गई ताकि उन्हें अपने गांव या उसके आसपास रोजगार मिले और उन्हें काम ढूंढने के लिए दूर शहर में न जाना पड़े। इसलिए यह योजना हर ग्रामीण घर के वयस्क को जो अकुशल काम करने को तैयार है, कम से कम वर्ष में 100 दिन रोजगार देने की व्यवस्था करती है। ग्रामीण महिलाओं को भी यह योजना लागू है और उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था भी की गई है। ग्राम सभा तथा राज्य सरकार को इसमें विशेष भूमिका है। इस योजना के खर्चे में केंद्र सरकार प्रशासन का खर्च, मजदूरी तथा तीन चौथाई सामग्री का खर्च देती है। बाकी खर्चे राज्य सरकार उठाती है। इस योजना में काम के लिए विस्तृत रचना की गई है और सभी प्रकार के विकास योग्य काम शामिल किए गए है। मजदूरी का दर केंद्र सरकार तय करती है और 15 दिन के अंदर मजदूरी देने का प्रावधान है। अगर किसी कारणवश रोजगार नहीं दे सके तो रोजगार भत्ता देने की बात भी इस योजना में है। 

गारंटी रोजगार योजना सफल मानी जाएगी 

इसमें दो राय नहीं है कि भारत में ग्रामीण रोजगार निर्माण की जरूरत थी और है। भारतीय ग्रामीण व्यवस्था कृषि पर आधारित है और कृषि ही सबसे बड़ा रोजगार निर्माण का साधन था। लेकिन यह बात समझी गई कि कृषि में जरूरत से ज्यादा लोग काम कर रहे है और उनको कृषि से निकालकर किसी  और क्षेत्र में रोजगार देने से गरीब की आर्थिक हालत सुधर सकती है। इसलिए 70 दशक से स्वयं रोजगार देने एवं कुछ को प्रत्यक्ष रोजगार देने की बात की गई। ऋण व्यवस्था को सरल किया गया और बेरोजगार को ऋण कम ब्याज और अनुकूल किश्तों पर मिले इसलिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किया गया। ऋण सब्सिडी भी दी गई। लेकिन यह काफी नहीं था। प्रत्यक्ष रोजगार देना भी जरूरी था और रोजगार गारंटी योजना ने यह काम सफलतापूर्वक किया। 

निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है की रोजगार गारंटी योजना काफी हद तक सफल हुई है। आज भी 15 करोड़ से ज्यादा लोग इस योजना पर काम कर रहे है और यही इसकी उपलब्धि कही जा सकती है। कोरोना काल में यह योजना गरीब बेरोजगारों के लिए उपयुक्त रही, यह भी सामने आया है। इस योजना की पहचान इससे होती है कि ग्रामीण लोग चाहते है कि हर बेरोजगार को इस योजना पर काम मिले, न कि सिर्फ हर घर-परिवार से एक को।

योजना की कमियां पर ध्यान देना भी जरूरी 

ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसी बड़ी योजना जो भारत देश जैसे विशाल देश में लागू की गई हो उसमें कुछ कमियां न मिले। हाल ही में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने कोरोना काल में इस योजना की उपयुक्तता पर अभ्यास किया और पाया कि यह योजना ग्रामीण विभाग में सुरक्षा कवच की तरह काम कर रही थी। जो त्रुटियाँ पाई गई उसमें मुख्यतौर पर यह भी पाया गया कि 39 प्रतिशत रोजगार कार्डधारकों को रोजगार नहीं मिल पाया तथा कुछ को 100 दिन के बदले सिर्फ 64 दिन ही रोजगार मिल सका तथा मजदूरी भी समय पर नहीं मिली। अभ्यास में यह भी देखा गया कि योजना में बजट की कमी है और इसे बढ़ाना होगा। मजदूरी दर की कमी भी इस योजना की समस्या है। ठेकेदारी से काम करवाने को मनाई के बावजूद कुछ जगह पर उनको देखा गया। सभी त्रुटियों पर गौर करना जरूरी है। 

ग्रामीण आत्मनिर्भरता भरा विकास जरूरी 

निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि गरीबी पर मुफ्त अनाज देने की और रोजगार निर्माण के लिए बेरोजगार को सरकारी गारंटी देकर काम देना कोई दीर्घकालीन इलाज नहीं है। 

आज का विकास मॉडल नैसर्गिक संसाधनों के शोषण पर आधारित है और शहरी विकास और शहरी जीवन पद्धति पर ज़ोर देता है, जो रोजगार बढ़ाने में नाकामयाब रहा है। इसलिए ग्रामीण रोजगार योजना गत 50 वर्षों से चलाने की बाद भी समस्या वहीं की वहीं है। अकुशल रोजगार के काम से हटकर अब कुशल रोजगार के काम भी इसमें शामिल करना जरूरी है ताकि इन्फ्रास्ट्रक्चर के बड़े काम भी इस योजना के जरिये हो सके। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि सर्वांगीण ग्रामीण आत्मनिर्भरता से भरे विकास से ही गरीब को आय का स्त्रोत तथा बेरोजगार को रोजगार दिया जा सकता है। अभी इस ओर ज्यादा प्रयत्न की आवश्यकता है।             

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