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अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गिरती साख 

यह सच है कि बड़े संगठन जैसे की संयुक्त राष्ट्र संघ, डबल्यूटीओ, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ़, डबल्यूएचओ वगैरे अपना काम निष्पक्षता से कर नहीं पा रहे है। — अनिल जवलेकर

 

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की एक बैठक अभी हाल में समाप्त हुई। पहले यह संगठन पांच देशों का था और अब 8 देशों का है, जिसमें भारत भी शामिल हुआ है। यह एक क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन है, जो आर्थिक और सुरक्षा में सहयोग करने की बातें करता है। वैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन मानव जाति के लिए नये नहीं है। धार्मिक संगठनों से इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। दुनिया भर में अलग-अलग देशों के राजाओं के आपसी संबंध सदियों से रहे है और उनके बीच युद्ध और समझौते, दोनों ही अपना-अपना राजनीतिक हित देखकर होते रहे है। बाद में युद्ध में पीड़ित लोगों की मदद के लिए संगठन बनें। पहले महायुद्ध के बाद शांति के प्रयासों को महत्व दिया गया और इसकी शुरुआत राष्ट्रसंघ की स्थापना से हुई। बाद में दूसरे महायुद्ध के बाद इसको संयुक्त राष्ट्र संघ का रूप दिया गया और यही आज का सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संगठन कहा जा सकता है। बाद में कई संगठन बनें और देशों के आपसी व्यापार और सुरक्षा की दृष्टि से सहयोग बढ़ाने की कोशिश की गई। लेकिन आज भी दुनिया में युद्ध हो रहे है और छोटे देशों का आर्थिक शोषण भी हो रहा है। कोरोना जैसी महामारी और यूक्रेन यद्ध ने फिर एक बार ऐसे संगठनों की असहायता स्पष्ट की है और यही आज चिंता का विषय है। 

अंतरराष्ट्रीय संगठनों का दौर 

दुनिया भर में कई संगठन काम करते है, इसमें देशों की सरकारों के सहयोग से काम करने वाले और गैर सरकारी तरीके से काम करने वाले दोनों प्रकार के संगठन है। यूनियन ऑफ इंटरनेशनल एसोसियन्स के अनुसार दुनिया में 75 हजार से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय संगठन है, इसमें से 42 हजार ही सक्रिय है। 300 देशों में यह संगठन काम करते है और हर साल लगभग 1200 नए संगठन बनते है। निश्चित ही आरोग्य और कई सामाजिक, पर्यावरण या आर्थिक प्रश्नों को लेकर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों की सरहना ही करनी होगी, जो अपने सीमित संसाधन से सेवा कार्य में लगे रहते है। लेकिन सरकारों के भागीदारी में काम करने वाले राजनीतिक संगठनों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। 

मुख्य राजनीतिक अंतरराष्ट्रीय संघटन 

अंतरराष्ट्रीय संगठनों की शुरुआत सही मायने में 20वीं शताब्दी में राष्ट्रसंघ की स्थापना से हुई और वही आपसी युद्ध टालने तथा शांति के प्रयास का जरिया बना। दुनिया में स्थिरता लाने की यह एक अच्छी कोशिश थी। दूसरे महायुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ के साथ-साथ और भी संगठन बनें। वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ, डबल्यूटीओ, डबल्यूएचओ, यूनिसेफ़, आईएलओ, एफ़एओ, जैसे नाम सभी को परिचित है। इन कोशिशों के बावजूद क्षेत्रीय संगठन भी बनें। जैसे, यूरोपीयन यूनियन, अरब लीग, ब्रीक्स, संघाई सहयोग संगठन, कॉमन वेल्थ देशों का संगठन, सार्क संगठन, अफ्रीकी संगठन, जिसमें देश अपने क्षेत्रीय हित और क्षेत्रीय व्यापार और सुरक्षा की बात करते दिखते है। इसी तरह कुछ ताकतवर या विकसित देशों के भी संगठन बनें। जैसे, जी-7। नाटो जैसे संगठन भी बनें, जो एक दूसरे की सुरक्षा का जिम्मा लेते हैं। कुल मिलाकर, यह सारे संगठन बातें तो शांति और सहकार की करते है लेकिन इनके सदस्य देश अपनी-अपनी ताकत और वर्चस्व बनाने या बढ़ाने में लगे रहते है। 

बड़े संगठनों की गिरती साख

यह सच है कि बड़े संगठन जैसे की संयुक्त राष्ट्र संघ, डबल्यूटीओ, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ़, डबल्यूएचओ वगैरे अपना काम निष्पक्षता से कर नहीं पा रहे है। संयुक्त राष्ट्रसंघ यूक्रेन-रूस युद्ध रोक नहीं पाया या शस्त्र स्पर्धा में भी कमी नहीं ला सका। बड़े देश आतंकवाद के संदर्भ में स्वार्थी भूमिका लेते दिखाई देते है। चीन का पाकिस्तानी आतंकवादियों के बारे में रुख इसका उदाहरण है। डबल्यूटीओ की बात अब कोई सुन नहीं रहा है। सभी देश अपने-अपने हित को ध्यान में रखकर आपसी व्यापार बढ़ाने में लगे हुए है और आपसी व्यापार समझौते में ज्यादा विश्वास कर रहे है। आईएमएफ़ और वर्ल्ड बैंक लंका की स्थिति संभालने में सहायक साबित नहीं हुए। डबल्यूएचओ का कोरोना संकट में जो रुख था, इस पर ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। सभी देशों के सहयोग से बने अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गिरती साख का मुख्य कारण यही है कि यह संगठन बड़े देशों के दबाव में काम करते है। दूसरे महायुद्ध के बाद बहुत सारे देश स्वतंत्र जरूर हुए लेकिन किसी न किसी गुट के हिस्सा रहे और यह बात अंतरराष्ट्रीय संगठनों के व्यवहार में साफ दिखाई देती है। आज भी रूस-चीन दुनिया के देशों को एक तरफ खिचते है तो अमरीका और यूरोप के ताकतवर देश दूसरी ओर। आर्थिक सहायता के लिए भी यह संगठन उन्हीं बड़े देशों पर निर्भर है जो छोटे देशों को हथियार पूर्ति करते है। जिन देशों का नाम ऐसे हथियार बेचकर शांति के प्रयास के लिए धन देने में आगे है उसमें अमरीका, रूस, फ्रांस, चीन, जर्मन, इटली, ब्रिटन आदि शामिल है। 

अमरीका का दुनिया की हथियार पूर्ति में 40 प्रतिशत और रूस का 19 प्रतिशत हिस्सा है। अमरीका अकेले ही शांति मिशन की संस्थाओं को 27 प्रतिशत मदद करता है। और यही इन संगठनों की असफलता का राज है। संयुक्त राष्ट्रसंघ, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ़, वर्ल्ड हैल्थ संगठन और डबल्यूटीओ जैसे संगठन कमजोर होने और छोटे तथा गरीब एवं मध्यम आय वाले देशों की सहायता न कर पाने से ही देश क्षेत्रीय संगठनों का सहारा ले रहे है तथा सामूहिक प्रयत्न की जगह एक दूसरे से सीधे संबंध बनाने के प्रयास कर रहे है।  

भारत जैसे देशों को समर्थ और आत्मनिर्भर बनना होगा 

भारत हमेशा से एक शांतिप्रिय देश रहा है। यहाँ की संस्कृति सर्वसमावेशक रही है इसलिए भारत का आक्रमण और औपनिवेशी दृष्टिकोण कभी नहीं रहा है। स्वतंत्रता के बाद भी भारत ने अपनी शांति की भाषा कायम रखी है और वैसा ही व्यवहार किया है। लेकिन भारत की गुट निरपेक्षता की बात दुनिया के ताकतवर देशों ने नहीं मानी और भारत को अस्थिर करने की कोशिश कर किसी एक गुट में शामिल होने के लिए वे कोशिश करते रहे। भारत भी हथियार के लिए बड़े देशों पर निर्भर है। 

हाँ यह जरूर है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की नीति में बदलाव आया है और भारत समर्थ बनने का प्रयास कर रहा है और शायद इसलिए नीति और भूमिका में स्पष्टता आ रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले हर शांति प्रयासों में सहयोगी होने के बावजूद भारत आत्मनिर्भरता की बात कर रहा है, यह सराहनीय है। अन्य गरीब और छोटे देशों को भी अंतरराष्ट्रीय संगठनों के भरोसे न रहकर आत्मनिर्भरता से समर्थता की ओर बढ़ना चाहिए। आपसी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार से की हुई शांति की पहल ही युद्ध से मुक्ति दिलाने और दुनिया को खुशहाल बनाने में कारगर साबित होगी।

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