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समर्थन मूल्य को कानूनी समर्थन की बात गैर जरूरी 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि और किसान दोनों बदल रहे है। कृषि भी 100 साल पुरानी नहीं है और किसान भी पुराना नहीं है। तंत्र ज्ञान का विकास अपना काम कर रहा है और उससे सभी लाभ ले रहे है। — अनिल जवलेकर

 

तीनों कृषि कानून वापिस लेने के बावजूद किसान आंदोलन रूकने का नाम नहीं ले रहा। वैसे भी इस आंदोलन का आधार मोदी विरोध ही था, न कि किसी किसान समस्या का हल ढूँढ़ना। इसलिए किसी न किसी बहाने से आंदोलन चालू रहने की ही उम्मीद की जा सकती है। सरकार ने भी कोई दीर्घकालीन निर्णय लेने से पहले यह बात ध्यान में रखनी होगी और उसी तरह समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने की मांग को समझना होगा। किसान को कृषि से लाभ कृषि बाजार व्यवस्था से ही मिल सकता है और उसी व्यवस्था में समर्थन मूल्य का काम कवच का है। इस व्यवस्था को कानून में जकड़ना सभी को नुकसानदेह होगा। 

समर्थन मूल्य कृषि नीति का भाग 

कृषि नीति में शुरु से ही समर्थन मूल्य को महत्व मिलता रहा है। स्वतंत्रता के बाद भारत में अनाज की कमी थी और सरकार अनाज को जमा कर रही थी। तब किसान से अनाज खरीदने हेतु जो मूल्य सरकार दे रही थी उसी ने आगे चलकर समर्थन मूल्य का रुप ले लिया। यही समर्थन मूल्य हरित क्रांति के दौरान कृषि उत्पादन बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। तब अनाज की खरीद और जमा करना जरूरी था और इसलिए एफ़सीआई की स्थापना हुई थी। एफ़सीआई अनाज खरीदता है, उसे अपने गोदामों में भरकर रखता है और उसका वितरण भी करता है। कितनी खरीद हो और कितना जमा हो, इसका निर्धारण समय-समय पर सरकार करती रही है। देश जब अनाज में आत्मनिर्भर हुआ और अनाज के गोदाम भी भर गए, तब भी एफ़सीआई समर्थन मूल्य पर खरीद करती रही और अनाज जमा करती रही। सरकार भी समर्थन मूल्य बढ़ाती गई और एफ़सीआई का नुकसान भी उस हिसाब से बढ़ता गया। ऐसे समय में समर्थन मूल्य नीति और उस पर होने वाली खरीददारों का पुनर्मूल्यांकन होना जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

समर्थन मूल्य व्यवस्था सभी के लिए नहीं 

समर्थन मूल्य व्यवस्था सभी फ़सलों और सभी किसानों के लिए नहीं है, यह बात पहले समझनी होगी। कुछ 23 फसलों के लिए समर्थन मूल्य तय किया जाता है और उसमें से कुछ ही की जैसे गेहू और धान की खरीद की जाती है और वह भी दो-तीन राज्यों से (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश) होती है। कुल मिलाकर देश के 6 प्रतिशत किसान ही इस व्यवस्था का लाभ उठा पाते है। इस लिए समर्थन मूल्य व्यवस्था को कानूनी आधार देने से देश के बहुसंख्यक किसानों का कुछ लाभ नहीं होने वाला। इसलिए ऐसी कोई भी योजना जो देश के बहुसंख्यक किसानों को लाभ से वंचित रखती हो, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। 

समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने का अर्थ 

सभी जानते है कि सरकार कुछ फसलों का उत्पादन खर्च और करीब 50 प्रतिशत मुनाफा पकड़कर समर्थन मूल्य की घोषणा करती है। ऐसे समर्थन मूल्य का तभी अर्थ होता है जब कोई इस पर फसल खरीदता है। अभी तो सरकार खरीद रही है। आंदोलनकर्ता अब चाहते है कि सरकार जो 23 फसलों को समर्थन मूल्य देती है, उसकी भी खरीद करें और उसकी खरीदी व्यवस्था को कानूनी रूप दे। वैसे सरकार का गेहू और धान की खरीद और जमा करते-करते दम निकल रहा है। समर्थन मूल्य निरंतर बढ़ाने के कारण सब्सिडी की रकम भी बढ़ रही है।  अगर और 23 फसलों की खरीद और रख-रखाव की व्यवस्था करनी हो तो क्या होगा, यह कहना मुश्किल है। एफ़सीआई ऐसे ही नुकसान उठा रहा है और सब्सिडी बढ़ाने का मतलब सरकार का दिवालिया निकलने की बात है। 

अनाज सब्सिडी का बढ़ना

भारत सरकार समर्थन मूल्य व्यवस्था से खरीद की व्यवस्था, परिवहन, उसका रख-रखाव तथा वितरण एफ़सीआई जैसी संस्थाओ द्वारा करती है। इसका सारा खर्च भी केंद्र सरकार उठाती है। राज्य सरकारों का इस व्यवस्था का बोझ भी केंद्र सरकार उठाती है। सब मिलाकर जो खर्चा सरकार करती है उसको मोटे तौर पर अनाज सब्सिडी कहा जाता है। यह अनाज सब्सिडी बढ़ती ही जा रही है। इसमें मुख्य हिस्सा एफ़सीआई के नुकसान का होता है। 2021-22 के अर्थ संकल्प में जो 242836 लाख करोड रूपये की सब्सिडी की बात है, उसमें से एफ़सीआई की रकम 2 लाख करोड़ रुपए है। अनुमान है कि एफ़सीआई को प्रति कुंटल 3000 रुपए गेहूं पर और 4000 रुपए से ऊपर चावल पर नुकसान होता है, जो आखिर में केंद्र सरकार सब्सिडी के रूप में देती है। इसलिए सरकार अगर 23 फसलों की खरीद करना शुरू करती है तो कितना नुकसान होगा, यह अनुमान लगाना भी कठिन है। 

मूल नीति में बदलाव जरूरी 

यह स्पष्ट है कि सरकार समर्थन मूल्य बढ़ाती रही और उस पर ऐसी ही खरीद करती रही तथा आंदोलनकर्ताओं की बात मानकर सभी 23 फसलों की भी खरीद करना शुरू कर देती है तो सरकार के पास और कुछ खर्च करने के लिए पैसा बचेगा नहीं। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार नीति में मूल परिवर्तन करें और समर्थन मूल्य पर होने वाली खरीद और उसके रख-रखाव से बचे। यह सही है कि दुनिया भर में एक व्यापार व्यवस्था है और उसे पारदर्शी और स्वतंत्र माना जाता है। यह व्यवस्था निजी आधार पर चलती है। इसलिए कृषि बाजार सुधार और उसका स्वीकार सभी को स्वीकारना होगा तभी सफलता मिलेगी। ऐसी कृषि बाजार व्यवस्था जो किसान के शोषण पर आधारित न हो लेकिन मांग और पूर्ति के आधार पर उत्पादन का संकेत देती हो बनानी होगी। ऐसी बाजार व्यवस्था में सभी प्रदेशों के किसान को और सभी फसलों को समर्थन मूल्य का कवच देने से कुछ हल निकल सकता है। 

राज्य सरकार जिम्मेवारी ले 

नीति में जो महत्वपूर्ण बदलाव की जरूरत है उसमें राज्यों की जिम्मेवारी बढ़ाना आवश्यक है। समर्थन मूल्य व्यवस्था पूरी तरह केंद्र सरकार की जिम्मेवारी बना दिया गया है। राज्य सरकारों को भी इसमें हिस्सेदारी देनी चाहिए। रद्द किए गए कानून का  विरोध इसलिये हुआ था। अब समय आ गया है कि राज्य सरकारें अपने प्रदेश में राज्य की फसलों को समर्थन मूल्य व्यवस्था की बात करें और अपने किसानों को इसका लाभ दे। केंद्र सरकार देश की आपातकालीन सुरक्षा के हिसाब से और कृषि बाजार को संतुलित रखने के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही अनाज या और फसलें खरीद करें और उसको जमा करें और उसका रख-रखाव करें। बाकी पूरी जिम्मेवारी राज्यों को सौप दे। देश स्तर पर फसलों के समर्थन मूल्य की बात सूचनार्थ रखी जाये और राज्य सरकारों को अपनी फसलों और उसका समर्थन मूल्य तय करने तथा तदनुसार खरीद करने की छूट दे दी जाए। इससे देश के सभी किसानों को समर्थन मूल्य व्यवस्था का लाभ हो सकेगा। 

राज्य सरकार भी पर्याय खोजे 

समर्थन मूल्य व्यवस्था अभी जैसी चल रही है, वैसे ही चलाने की बात राज्य सरकारें भी न करें, तो अच्छा है। किसान को उसके फसल के वाजिब दाम मिलना जरूरी है और उसको होने वाला नुकसान कम हो यह बात ध्यान रखकर कुछ पर्याय खोजा गया तो उपयुक्त होगा। राज्य सरकारों को चाहिए कि वह बाजार व्यवस्था को माने और किसान को मिलने वाला बाजार मूल्य और समर्थन मूल्य में अगर कुछ खाई है तो उसे पूरा करें। गाव के पास वाली मंडी के भाव ध्यान में रखकर और हेक्टरी फसल उत्पादन तय करके यह किया जा सकता है, इसके लिए इच्छा शक्ति की जरूरत है। 

कृषि बाजार विकास ही उपाय है 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि और किसान दोनों बदल रहे है। कृषि भी 100 साल पुरानी नहीं है और किसान भी पुराना नहीं है। तंत्र ज्ञान का विकास अपना काम कर रहा है और उससे सभी लाभ ले रहे है। बाजार भी निजी होने के बावजूद शोषण करने वाला नहीं रहा है। उसमें पारदर्शिता आ रही है। सभी प्रकार की जानकारी अब सभी को उपलब्ध हो रही है। इसलिए बाजार व्यवस्था का उपयोग होना ही इस प्रश्न का सही उत्तर है। हर बार सरकार पर निर्भर रहना जरूरी नहीं। सरकार सभी काम करें ऐसा आग्रह भी ठीक नहीं है। यह बात समझ लेनी होगी और बाजार व्यवस्था को प्राथमिकता देनी होगी तभी कुछ हल निकलेगा। समर्थन मूल्य बढ़ाते रहने से और उस पर खरीद बढ़ाकर सब्सिडी बढ़ाते रहने से या फिर हर व्यवस्था को कानूनी रूप देने से समस्या का हल नहीं मिलेगा।            

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