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मजदूरों दुनिया को एक करोः दत्तोपंत ठेंगड़ी

ठेंगड़ी जी दुनिया में कहीं भी जाते थे तो हर जगह मजदूर आंदोलनों के साथ-साथ वहां की सामाजिक स्थिति का अध्ययन भी करते थे। इसी कारण चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देश भी उनसे श्रमिक समस्याओं पर परामर्श करते थे। — हेमेन्द्र क्षीरसागर

 

आजीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे दत्तोपंत ठेंगड़ी का जन्म दीपावली के दिन 10 नवंबर, 1920 को महाराष्ट्र में वर्धा जिले के आर्वी गांव में हुआ था। वह बाल्यकाल से ही स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। 1935 में वे ’वानर सेना’ के आर्वी तालुका के अध्यक्ष थे। यह वही समय था, जब उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव राव बलिरम हेडगेवर से हुआ। इस मुलाक़ात ने ठेंगडी के मन में संघ-बीज को बो दिया। ठेंगडी के पिता उन्हें वक़ील बनाना चाहते थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। दत्तोपंत ने एम.ए. और कानून की पढ़ाई के बाद 1941 में अपने जीवन को राष्ट्र व समाज की सेवा में समर्पित कर दिया और संघ प्रचारक बन गए।

प्रचारक-जीवन की शुरुआत में ही दत्तोपंत जी को केरल भेजा गया, वहां उन्होंने ’राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ का काम किया। केरल के बाद उन्हें बंगाल और फिर असम भेजा गया। यह वही समय था, जब देश भर में वामपंथी अपने प्रभाव का प्रसार कर रहे थे। मज़दूर खेमे में वामपंथियों का भारी प्रभाव था। वाम संगठनों का नारा था ’चाहे जो मजबूरी हो, हमारी मांगें पूरी हो.’ वहीं, संघ राष्ट्रहित को प्राथमिकता पर रखता था। संघ का मानना था कि मालिक और मज़दूरों का लगातार संपर्क बना रहना चाहिए। देशहित में दोनों की समान भूमिका होनी चाहिए। इसलिए किसी भी विवाद की स्थिति में दोनों के बीच संवाद जरूरी है. औद्योगिक संगठनों के बंद होने से मज़दूरों का जीवन नरकीय हो जाता है। इसलिए सबको मिलकर देशहित में काम करना चाहिए।

दुनिया का सबसे बड़ा मजदूर संगठन 

दत्तोपंत ठेंगड़ी ने संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरुजी के कहने पर मजदूर क्षेत्र में काम करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने ’शेतकरी कामगार फेडरेशन’ जैसे संगठनों में जाकर काम सीखा। अपने प्रचारक जीवन की शुरुआत ही ठेंगड़ी ने केरल से की थी। केरल में वामपंथियों के प्रभाव और उनके काम के तरीक़ों को वे भलीभांति जानते थे। इसलिए वे साम्यवादी विचार के खोखलेपन को भी जानते थे। दत्तोपंत ठेंगड़ी ने ’भारतीय मजदूर संघ’ नाम से अराजनीतिक संगठन  शुरू किया, जो आज दुनिया का सबसे बड़ा मजदूर संगठन  है। ठेंगड़ी के प्रयास से श्रमिक और उद्योग जगत  के नए रिश्ते शुरू हुए। भारतीय मज़दूर संघ ने देश में वामपंथियों के बनाए मिल मालिक-मज़दूर के बहस  को ही बदल दिया। वामदलों के नारे थे, ’चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो’ और दुनिया के मजदूरों एक हो, कमाने वाला खाएगा। ’ वहीं मजदूर संघ ने कहा, ’देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम’ और ’मजदूरों दुनिया को एक करो, कमाने वाला खिलायेगा।’

मजदूर क्षेत्र का बदला दृश्य 

संघ की इस सोच ने मजदूर क्षेत्र का दृश्य बदलने का काम किया। ठेंगड़ी जी के प्रयास से मई दिवस के बजाय भारत के कामगार वर्ग की पहचान के प्रतीक भगवान विश्वकर्मा (17 सितंबर) के जन्मदिवस को श्रमिक दिवस के रूप में मानना शुरू किया। दत्तोपंत ने विद्यार्थी और समाज में वंचित वर्ग  को जोड़ने का भी काम किया। 1948 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद  की स्थापना और उसके प्रभाव को देश के छात्रों में फैलाने का काम ठेंगड़ी ने ही किया। वहीं, समाज को एकजुट करने और एक होकर देश-हित में काम करने के लिए सामाजिक समरसता मंच की नींव रखने का श्रेय भी ठेंगडी को जाता हैं।

भारतीय किसान संघ की स्थापना 

ठेंगड़ी का मानना था कि सामाजिक समरसता समाज की एकाग्रता के लिए जरूरी है। समाज जिन्हें वर्षों से अछूत मानकर उपेक्षा करता है, उनको समाज के संपर्क में लाना और समान भाव, समता के आधार पर समाज का संगठन करने के लिए ठेंगड़ी ने अनुसूचित जातियों, जनजातियो के बीच काम करना शुरू किया। ठेंगड़ी ने किसानों में देशहित की भावना जगाने के लिए कहा कि जैसे एक सैनिक सीमा पर खड़ा होकर गौरवान्वित महसूस करता है, उसी तरह किसानों को देश के भीतर देश हित में काम करना चाहिए। भारतीय किसान संघ की स्थापना में ठेंगड़ी की प्रमुख भूमिका रही।

देशज विचारों को न भूलें

ठेंगड़ी ने 1991 में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। इसका उद्देश्य था कि दुनिया के साथ विकास की होड़ में भारत अपने देशज विचारों को भूलने नहीं पाए। स्वदेशी जागरण मंच समय-समय पर देश के नीति निर्माताओं को याद दिलाता रहता था कि उदारवाद को अपनाने में देशहित की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। ठेंगड़ी 1951 से 1953 तक मध्य प्रदेश में ’भारतीय जनसंघ’ के संगठन मंत्री रहे. उन्होंने मजदूरों के बीच काम करने के लिए राजनीति छोड़ दी। वह 1964 से 1976 तक दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे।

चीन और रूस दत्तोपंत से करते थे विचार-विमर्श

ठेंगड़ी जी दुनिया में कहीं भी जाते थे तो हर जगह मजदूर आंदोलनों के साथ-साथ वहां की सामाजिक स्थिति का अध्ययन भी करते थे। इसी कारण चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देश भी उनसे श्रमिक समस्याओं पर परामर्श करते थे। 26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगने पर ठेंगड़ी ने भूमिगत रहकर ’लोक संघर्ष समिति’ के सचिव के नाते तानाशाही विरोधी आंदोलन को संचालित किया। जनता पार्टी की सरकार बनने पर जब अन्य नेता कुर्सियों के लिए लड़ रहे थे, तब ठेंगड़ी ने मजदूर क्षेत्र में काम करना पसंद किया।

ठुकरा दिया था ’पद्मभूषण’

एनडीए सरकार की ओर से 2002 में दिए जा रहे ’पद्मभूषण’ को उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि जब तक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और गुरुजी को ’भारत रत्न’ नहीं मिलता, तब तक वह कोई सम्मान स्वीकार नहीं करेंगे। 14 अक्टूबर, 2004 को उनका निधन हो गया। दत्तोपंत ठेंगड़ी कई भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने हिंदी में 28, अंग्रेजी में 12 और मराठी में तीन किताबें लिखीं। इनमें लक्ष्य और कार्य, एकात्म मानवदर्शन, ध्येयपथ, बाबासाहब भीमराव अंबेडकर, सप्तक्रम, हमारा अधिष्ठान, राष्ट्रीय श्रम दिवस, कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर, संकेत रेखा, राष्ट्र, थर्ड वे प्रमुख हैं। ु

(हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व स्तंभकार)

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