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भारत के मूल्यों और सांस्कृति आधारित मॉडल से ही होगा दुनिया का विकास

निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि दुनिया को आज अपनाए हुए इस विनाशकारी मॉडल को छोड़ना होगा और भारत के एकात्म विकास मॉडल को स्वीकारना होगा। — अनिल जवलेकर

 

हाल ही में आरएसएस के सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत ने भारत को चीन-अमरीका जैसा न बनने की सलाह दी और कहा कि भारत को अपना विकास अपने मूल्यों और सांस्कृतिक परंपरा को आधार बनाकर करना चाहिए। वैसे बात तो सही है लेकिन चीन-अमेरिका का विकास मार्ग कोई उनके अकेले का नहीं है। दुनिया में आज लगभग सभी देशों ने इस विकास कल्पना को स्वीकारा है और पिछले 300-400 वर्षों से यह विकास की कल्पना चल रही है। इसमें भारत भी पीछे नहीं है। यह बात सही है कि इस विकास की कल्पना पर चलकर आज दुनिया विनाश के कगार पर पहुंच चुकी है। इस विकास का ही परिणाम है आज दुनिया को जलवायु परिवर्तन से हो रहे भयावह परिणामों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि विकास के किसी अन्य मार्ग की चर्चा हो। और उसमें से एक है भारतीय संस्कृति से उपजा एकात्म विकास मार्ग। शायद भागवत जी उसी मार्ग की बात कर रहे है। 

विकास के तौर-तरीके ‘साम्यवाद’ एवं ‘पूंजीवाद’ में सिमट कर रह गए  

मानव जाति के प्रगति का इतिहास टेड़ा-मेडा लेकिन दिलचस्प रहा है। इसमें दो राय नहीं कि मानव को प्रकृति और अन्य प्राणी जीवन का साथ या संघर्ष इस प्रगति में उपयोगी रहा है। जैसे-जैसे मानव बस्तियाँ बसाता गया, कृषि-उद्योग और आपसी व्यापार बढ़ा, सुख समृद्धि भी बढ़ी। भौगोलिक अधि सत्ता भी बनी और उपनिवेश वाद के बाद यह बस्तियाँ आज के अलग स्वतंत्र देश बने और कई वजह से आपस में बटे भी। समय के साथ मानव ने जीवन जीने की इच्छा, क्षमता बढ़ाई और सुख-समृद्धि के नए-नए तौर-तरीके अपनाए तथा उसके लिए जरूरी संसाधन भी जुटाये। सुख समृद्धि की कल्पनाएँ बदलती रही और आनंद जैसी कल्पना ने भी आकार लिया। यह जरूर है कि कुछ देश सुख समृद्धि ढूंढते रहे तो कुछ आनंद के पीछे दौड़े। जो देश सुख समृद्धि बढ़ाने में मग्न हुए उन्होंने सुख-समृद्धि बढ़ाने के मार्ग ढूंढे और उस ओर चलने के तौर-तरीकों को तलाशा जिसमें ‘साम्यवादी’ या “पूंजीवादी’ मार्ग मुख्य रहे। बहुत से देश इन्हीं मार्गों और तौर-तरीकों में उलझे रहे और विकास की चर्चा इन दो मार्गों तक ही सीमित रही। तीसरा मार्ग जो आनंदी जीवन की बात करता था वह भारत का था, कही पीछे छूट गया। 

सुख-समृद्धि का ‘साम्यवादी’ ‘पूंजीवादी’ विकास मार्ग 

साम्यवाद हो या पूंजीवाद, दोनों का लक्ष सुख-समृद्धि ही है। मार्ग में अपनाए गए तौर-तरीके भी एक ही है जो संसाधनों के शोषण पर आधारित है। पूंजीवादी सुख-समृद्धि के लिए यह आवश्यक मानता है कि जिसके पास संसाधन है उसे अपने तरीके से इस मार्ग पर चलने दिया जाए। साम्यवाद संसाधन संपन्न पर भरोसा नहीं करता और राज्य (सरकार) से सब-कुछ नियंत्रण में रखने की बात करता है। पूंजीवादी सारे संसाधनों का उपयोग अपने फायदे के लिए करने की छूट चाहता है और सब-कुछ बाजार के अदृश्य हाथों पर सौंपने को तैयार रहता है। अमरीका और पश्चिमी देश इसके उदाहरण है। साम्यवादी सभी संसाधनों पर राज्य की हुकूमत चाहता है और नेता तथा बाबूगिरी पर सब-कुछ सौंपने को तैयार रहता है। रूस और चीन इस साम्यवाद के उदाहरण है। लेकिन अब हाल यह है कि साम्यवादी देशों ने पूंजीवाद की मशाल हाथ में ले ली है और पूंजीवाद ने भी राज्य का महत्व और उसके हस्तक्षेप को स्वीकार कर लिया है।  इसलिए आजकल आर्थिक संकट निपटने के लिए सरकारों के हस्तक्षेप और सहायता की अपेक्षा की जाती है और वह कर भी रही है।   

इस विकास की दिशा विनाश की ओर 

पूंजीवादी और साम्यवादी विकास का मॉडेल आज नाकाम हुआ लगता है और उसका मुख्य कारण इसका मानवी जीवन की ओर टुकड़े में देखना है। पूरे विश्व को, उसकी प्रकृति को और  उसमें बसे जीव सृष्टि को एक उपभोग्य नजर से देखना उनकी विकास कल्पना को भौतिक सुख-समृद्धि से जोड़ता है और गिने जाने वाले सुख साधनों के बढ़ाने को ही विकास मान लेता है। उपलब्ध सभी नैसर्गिक संसाधनों का अपने सुख-समृद्धि के लिए अंधाधुंध उपयोग कर विकास साधने के उनके विश्वास ने ही आज के जलवायु परिवर्तन तक पहुंचा दिया है और सारे जीव सृष्टि के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। इसलिए कहा जा सकता है कि यह विकास मॉडल मानव जाति के लिए अच्छा नहीं रहा।

भारत का एकात्म विकास मॉडल 

प्राचीन भारत ने बहुत पहले ही एकात्म विकास मॉडल दिया जो नैसर्गिक संसाधनों का मर्यादित उपयोग और पर्यावरण संतुलित जीवन पद्धति की बात करता है। इस मॉडल को एक मानवी हित की विचारधारा का आधार रहा है और कई महात्माओं ने इसे अलग-अलग नाम से समझाने का प्रयास किया है। भारतीय प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसको मोक्ष की दृष्टि दी तो महात्मा गांधी ने रामराज्य की कल्पना में इसे व्यक्त किया। विनोबा ने इसे सर्वोदय और ग्राम स्वराज्य के रूप में देखा तो पंडित दिन दयालजी ने इसे एकात्म मानववाद कहा। आजकल पंत प्रधान मोदीजी इसे आत्मनिर्भरता से जोड़ रहे है। भारत के विकास मॉडल की पहली विशेषता यह है कि जीवन के किसी भी व्यक्त या अव्यक्त भाग को यह मॉडल टुकड़े में नहीं देखता। सृष्टि में एकात्मता का एक अन्तर भूत तत्व है यह मानकर यह मॉडल सभी के विकास में सभी की भागीदारी आवश्यक समझता है। स्वार्थ को अपनाते हुए उसे एक समय पर त्याग की ओर मोड़ना इस मॉडल की दूसरी खासियत है। इसलिए इस मॉडल में व्यक्ति से अपनी प्रगति के लिए आवश्यक स्वार्थ जुटाना जितना आवश्यक है उतना ही कुटुंब के लिए उसका त्याग करना। इसी तरह कुटुंब देश के लिए और देश विश्व के लिए या मानव जाति के लिए स्वार्थ छोड़ने की प्रक्रिया का महत्व है। तीसरे, यह मॉडल सुख-समृद्धि को नकारता नहीं फिर भी नैसर्गिक संसाधनों की मर्यादा को भंग होने नहीं देता। बल्कि जीवन के एक मोड पर इस भौतिक विकास की दिशा को सुख समृद्धि से आनंद की ओर मोडने की इच्छा रखता है। चौथे, सुख समृद्धि भी वह अपने आस पास के संसाधन, उनके विकास और भागीदारी में ढूँढता है इसलिए यह शोषण रहित ग्राम विकास और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था की बात करता है। भारतीय मॉडल की पाँचवीं विशेषता यह है कि इस व्यवस्था में राज्य एक विश्वस्त है और धर्म सर्वोपरि। यहाँ धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं है। धर्म स्वाभाविक नियमन होता है और प्रासंगिक रूप से उपयुक्त व्यवहार की बात कर मानवी हित के लिए समाज धारणा करता है। 

दुनिया को विकास मॉडल बदलना होगा 

निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि दुनिया को आज अपनाए हुए इस विनाशकारी मॉडल को छोड़ना होगा और भारत के एकात्म विकास मॉडल को स्वीकारना होगा। सभी को एक साथ सुख समृद्धि की व्यवस्था दे पाना लगभग असंभव है और सृष्टि का विनाश कर की गई समृद्धि मानवी हित में नहीं होगी यह कहने की जरूरत नहीं है। मानवी जीवन आनंदी हो इतनी सुख-समृद्धि वह भी संसाधनों के संवर्धन के साथ हो तो ही मानव जाति का विकास सुरक्षित हो सकता है, यह समझना आवश्यक है। इसलिए भारत की विकास दिशा चीन वाली या अमरीका वाली होने से भारत का हित नहीं है लेकिन दुनिया अगर भारत वाली विकास दिशा माने तो सभी के हित का होगा इसमें शंका नहीं हैं। कम से कम भारत उस दिशा में बढ़े तो आने वाले समय में उपयुक्त होगा यह जरूर कह सकते है।

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