विभिन्न शोधों से पता चला है कि पानी और स्वच्छता में सुधार के लिए निवेश किया गया प्रत्येक एक डालर औसतन 4.30 डालर की वापसी देता है। इसलिए जरूरी है कि सरकारें भूजल के सामान्य अच्छे पहलुओं को ध्यान में रखते हुए संसाधन संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभाएं। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्रा
अच्छा कमा रहे हैं, करोड़ों की कीमत वाला फ्लैट है। खाते में हर महीने मोटी तनख्वाह आ रही है। घर का बाथरूम ऐसा है कि उसमें महंगे शावर और नल भी लगे हैं, मगर उन लग्जरी बाथरूम के हाल यह हैं कि नल सूखे पड़े हैं। फ्लश करने के लिए भी मुंबई के चाल की तरह बाल्टी भरकर पानी लाना पड़ रहा है। इनकम टैक्स के कागजों में मोटा टैक्स दे रहे हैं, लेकिन टैंकर के आगे पानी के लिए हाथ में बाल्टी लिए लाइन लगा रहे हैं। यह दृश्य है कर्नाटक की राजधानी और देश के सबसे बड़े आईटी सेक्टर के केंद्र बेंगलुरु में पानी की कमी का।
बेंगलुरु में पानी की किल्लत लगातार बढ़ रही है और अब स्थिति यह है कि वहां के प्रशासन को पानी के इस्तेमाल को लेकर कई तरह के नियम बनाने पड़े हैं। वहां स्विमिंग पूल के इस्तेमाल पर बैन लगा दिया गया है। गाड़ी धोते हुए पाए जाने पर जुर्माना का प्रावधान है। यही कारण है कि कुछ लोग शहर छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं वहीं वर्क फ्रॉम होम की डिमांड भी एकाएक बढ़ गई है।
रिपोर्ट्स के अनुसार बेंगलुरु की कुल आबादी 1.42 करोड़ है और रोजाना पानी की खपत 270 से लेकर 290 करोड़ लीटर है, मगर अभी पानी की आपूर्ति 100 से 120 करोड़ लीटर ही हो पा रही है, जो कि जरूरत से आधे के बराबर है। कावेरी नदी के अलावा यहां पानी का सोर्स केवल बोरवेल है। मगर 3000 से ज्यादा बोरवेल सूख चुके हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि बेंगलुरु में पानी की कमी का कारण अपर्याप्त बारिश, भूजल स्तर में कमी और बगैर सोचे समझे हो रहे निर्माण कार्य हैं।
हालांकि तेजी से बढ़ती आबादी और बदलती जलवायु के बीच, दुनिया भर में पानी को लेकर तनाव बढ़ रहा है। अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। दुनिया के छह सबसे अधिक पानी की कमी वाले देशों में जल संकट मुख्यतः कम आपूर्ति के कारण है। तेजी से जनसंख्या वृद्धि के कारण यह और बढ़ गया है, जो दशकों की आसमान छूती आय के साथ-साथ बीस वर्षों में लगभग दोगुना हो गया है। मसलन, सऊदी अरब, जो ’जीसीसी’ आबादी का साठ फीसद से अधिक हिस्सा है, अब अमेरिका और कनाडा के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा प्रति व्यक्ति जल उपभोक्ता है। जीसीसी देशों में कृषि योग्य भूमि पांच फीसद से कम है। कृषि जल की मांग मुख्य रूप से भूजल दोहन से पूरी की जाती है, जिससे भूजल स्तर में उल्लेखनीय कमी आती है। नासा उपग्रह डेटा का उपयोग करते हुए 2019 के एक अध्ययन से पता चला कि अरब प्रायद्वीप सबसे अधिक तनावग्रस्त है।
भारत की स्थिति इस मामले में और भी चिंताजनक है। देश की कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि, जिसे हरित क्रांति कहा जाता है, उर्वरकों और कीटनाशकों के व्यापक उपयोग के साथ-साथ भूजल संसाधनों के विकास पर आधारित थी। 1950 के दशक की शुरुआत में भारत ने भूजल के बड़े पैमाने पर नलकूपों को प्रोत्साहित किया और सब्सिडी दी, जिससे खोदे गए नलकूपों की संख्या दस लाख से बढ़कर लगभग तीन करोड़ हो गई। भारत किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक भूजल दोहन करता है, मुख्यतः गेहूं, चावल और मक्का जैसी फसलों की सिंचाई के लिए। ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्त या सस्ती बिजली से किसानों द्वारा जब-तब नलकूप चलाने के कारण भूजल निकासी में और वृद्धि हुई है।
भारत में पूरी दुनिया की 17 प्रतिशत आबादी रहती है लेकिन उस अनुपात में जब पानी की बात की जाए तो वह सिर्फ चार प्रतिशत के करीब बैठता है। हैरानी की बात है कि भारत में पूरी दुनिया का सिर्फ चार प्रतिशत शुद्ध जल का स्रोत है। यह आंकड़ा ही बताने के लिए काफी है कि हालत कितने विस्फोटक हैं और मांग की तुलना में आपूर्ति कितनी कम हो रही है।
भारत में वाष्पीकरण के बाद वार्षिक उपलब्ध पानी 1999 अरब घनमीटर है, जिसमें से उपयोग योग्य जल क्षमता 1122 घनमीटर है। भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है, जिसका अनुमानित उपयोग प्रति वर्ष लगभग 251 घनमीटर है, जो कुल वैश्विक खपत के एक चौथाई से अधिक है। साठ फीसद से अधिक सिंचित कृषि और पचासी फीसद पेयजल आपूर्ति इस पर निर्भर है और बढ़ते औद्योगिक/शहरी उपयोग के साथ भूजल का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। अनुमान है कि प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 2050 तक 1250 घन मीटर कम हो जाएगी। यह देश के बड़े हिस्से में एक गंभीर समस्या है, न कि केवल उत्तर-पश्चिमी, पश्चिमी और प्रायद्वीपीय भारत में। भारत में वैश्विक आबादी के सत्रह फीसद का घर हैं, लेकिन इसके पास जल संसाधनों का केवल चार फीसद है। भारत की आधी से ज्यादा आबादी को किसी न किसी स्तर पर अत्यधिक जल तनाव का सामना करना पड़ता है।
वर्तमान में दुनिया का 80 प्रतिशत से अधिक अपशिष्ट जल बिना किसी उपचार के वापस नदियों, नालों और महासागरों में छोड़ दिया जाता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र को व्यापक नुकसान होता और महत्वपूर्ण मानव जल स्रोत प्रदूषित होते हैं। भूजल संदूषकों का पता लगाने और प्रबंधन करने के लिए सतही जल की तुलना में एक अलग दृष्टिकोण का आवश्यकता होती है। यह धीरे-धीरे होता है और इसके गंभीर परिणाम होते हैं। एक बार जब गुणवत्ता खराब हो जाती है, तो उसे ठीक होने में बहुत अधिक समय लगता है। समस्या यह है कि भूजल गुणवत्ता प्रबंधन को सार्वभौमिक रूप से तब तक उपेक्षित किया जाता है जब तक कि मानवीय और आर्थिक लागत इतनी स्पष्ट न हो जाए कि इसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो।
मनुष्य विश्व स्तर पर हर साल लगभग चार हजार घन किलोमीटर पानी निकालता है, जो पचास साल पहले की हमारी निकासी का तिगुना है। यह निकासी प्रति वर्ष लगभग 1.6 फीसद की दर से बढ़ रही है। इसका अधिकांश हिस्सा कृषि के लिए होता है। ऊर्जा उत्पादन वर्तमान में वैश्विक जल खपत का दस फीसद से भी कम है। मगर दुनिया की ऊर्जा मांग 2035 तक 35 प्रतिशत बढ़ने की राह पर है, जिससे ऊर्जा क्षेत्र में पानी की खपत 60 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है। जनसंख्या वृद्धि, अस्थिर जल निकासी, खराब बुनियादी ढांचे के कारण दुनिया के कई हिस्सों में पहले से ही अपर्याप्त सुरक्षित जल आपूर्ति है। दुनिया की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का कुल मूल्य लगभग 147 खरब डालर आंका गया है, लेकिन इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक का ह््रास हो रहा है या उनका उपयोग अनिश्चित रूप से किया जा रहा है।
अगर हम इन प्रणालियों की देख-भाल नहीं करते तो ये सेवाएं स्वाभाविक रूप से उपलब्ध नहीं रहेंगी। इन प्राकृतिक सेवाओं पर निर्भर व्यवसायों को इन्हें बदलने या फिर से बनाने में अत्यधिक उच्च लागत का सामना करना पड़ेगा। एक तरफ, 2050 में बाढ़ से खतरे में पड़े लोगों की संख्या 1.6 अरब तक पहुंचने का अनुमान है, जिसमें 45 खरब डालर की संपत्ति खतरे में है। दूसरी ओर, अनुमान है कि 2050 तक 3.9 अरब लोग गंभीर जल-तनाव से गुजर रहे होंगे।
अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और कमजोर प्रशासन के कारण मनुष्य भौतिक रूप से उपलब्ध जल आपूर्ति तक विश्वसनीय रूप से पहुंचने में असमर्थ है। आज भी 2.1 अरब लोगों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच नहीं है और 4.5 अरब लोगों के पास सुरक्षित स्वच्छता सेवाओं का अभाव है। यानी दुनिया के लाखों कमजोर परिवार न तो साफ पानी पीते हैं, न शुद्ध खाना बना पाते हैं और न ही साफ पानी से नहाते हैं। पानी से वंचित अस्सी फीसद से अधिक परिवार पानी का संग्रहण करने के लिए महिलाओं पर निर्भर हैं। पानी के लिए औसतन 3.7 मील चलने में लगने वाला समय आय अर्जित करने, परिवार की देखभाल या स्कूल जाने में खर्च नहीं हो पाता है। इसका स्वास्थ्य और मृत्यु दर पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, खासकर विकासशील देशों में छोटे बच्चों पर। हर दिन लगभग छह हजार बच्चे पानी से संबंधित बीमारियों से मरते हैं।
विभिन्न शोधों से पता चला है कि पानी और स्वच्छता में सुधार के लिए निवेश किया गया प्रत्येक एक डालर औसतन 4.30 डालर की वापसी देता है। इसलिए जरूरी है कि सरकारें भूजल के सामान्य अच्छे पहलुओं को ध्यान में रखते हुए संसाधन संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभाएं, ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि भूजल तक पहुंच और उससे होने वाला लाभ समान रूप से वितरित किया जाए और यह संसाधन भविष्य की पीढ़ियों के लिए उपलब्ध रहे।