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प्राचीन ज्ञान को वैध बनाने की कवायद

हमें पारंपरिक ज्ञान को स्वीकार करना चाहिए जो कि बहुत ही मूल्यवान है, लेकिन सिर्फ अटकलबाजियां के सहारे नहीं बल्कि वैज्ञानिक ज्ञान की मुख्यधारा में एकीकृत होने से पहले पूरी तरह से जांच परख कर। — डॉ. जया कक्कड़

 

हमारी प्राचीन, पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को वैधानिक आधार पर प्रदान करने का मामला दिलचस्प तो है ही विवादास्पद भी है। छात्रों के भीतर भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए पतंजलि योगपीठ ने एक वैदिक स्कूल बोर्ड की स्थापना की है। पीठ का मानना है कि बच्चों को मूल मनुस्मृति, वेद और उपनिषद की शिक्षा देकर उन्हें पुरातन विरासत से लैस किया जाएगा। मालूम हो कि मनुस्मृति मानव मामलों में संहिताबद्ध कानूनों वाला एक प्राचीन ग्रंथ है। इस ग्रंथ के आलोचकों का कहना है कि इससे जाति व्यवस्था और समाज में महिलाओं की हीनता को बढ़ावा मिला है। हालांकि योगपीठ का कहना है कि मनुस्मृति के मूल पाठ में इस तरह की बुराइयां नहीं थी, जिन विकृतियों की चर्चा आजकल होती है वह सातवीं शताब्दी के आसपास इसमें जोड़ी गई। लेकिन ऐसे में सवाल यह है कि विकृतियों से रहित ‘मूल मनुस्मृति’ ग्रंथ कहां है?

सरकार ने हाल ही में भारतीय शिक्षा बोर्ड सहित कई अन्य बोर्डों को सीबीएसई बोर्ड के समकक्ष मान्यता प्रदान की है। इन बोर्डों ने फैसला किया है कि वह भारतीय ज्ञान प्रणालियों से वर्तमान अवधारणाओं को एकीकृत करते हुए आधुनिक विषयों को पढ़ाएंगे। उदाहरण के लिए, व्यष्टि और समष्टि अर्थशास्त्र पढ़ाते समय कौटिल्य के अर्थशास्त्र की अवधारणाओं को शामिल किया जाएगा। न्यूटन के नियमों के साथ-साथ वेदों के गुरुत्वाकर्षण नियमों की अवधारणा को भी सिखाया जाएगा। इसी तरह प्राचीन ग्रंथों में निहित ज्ञान को उदारतापूर्वक विज्ञान, भौतिकी, ज्यामिति और अन्य विषयों में मिश्रित किया जाएगा। उदाहरण के लिए, ज्यामिति की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई है।

पीठ का मानना है कि इससे छात्रों को अपनी प्राचीन विरासत का ज्ञान होगा तथा वे भारत की समृद्ध सांस्कृतिक यात्रा पर गर्व भी करेंगे। इस बात में कोई विवाद नहीं कि हमारे पास राजनीति, अर्थशास्त्र, गणित, संगीत और यहां तक कि विज्ञान सहित सभी क्षेत्रों में पारंपरिक ज्ञान की समृद्ध विरासत है। सच यह भी है कि समयोपरि तथ्य और दंत कथाएं आपस में जुड़ी हुई हैं। सैकड़ों वर्षो की गुलामी ने हमारी प्राचीन ज्ञान परंपरा को नष्ट किया है। हमारी स्मृति और सीखने की विधा षडयंत्रपूर्वक समाप्त की गई है। अंग्रेजों के जमाने में मैकाले ने भारतीय मेधा को कुंद करने के लिए सरकारी नीतियां थोपी थी। उन सबके बीच मनुवादी व्यवस्था ने सक्रिय रूप से जाति व्यवस्था को बढ़ावा दिया। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि मौजूद दुर्बलताओं को दूर किया जाए और तथ्यों को कल्पनाओं से अलग किया जाए। इसके लिए जरूरी है कि मूल्य आधारित मानकों के साथ-साथ व्यवहारिक रूप से वैज्ञानिक वैधता के आधार को लागू किया जाए।

हाल ही में सरकार ने पतंजलि आयुर्वेद को रक्तचाप, मधुमेह, उच्च लिपिड स्तर आदि को ठीक करने का दावा करने वाले उत्पादों के विज्ञापन से परहेज करने का निर्देश दिया है। विशेष रूप से उन उत्पादों को जो ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940, ड्रग एंड मैजिक रेमेडीज एक्ट 1954 के तहत प्रतिबंधित है। सरकार का कहना है कि ऐसे उत्पादों के विज्ञापन देश के ड्रग कानूनों का उल्लंघन करते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि कंपनी ने सरकारी आदेश का विरोध नहीं किया है, बल्कि अपने विज्ञापनों को वापस लेने का फैसला लिया है। बावजूद कंपनी लगातार दावा करती रही है कि यह उत्पाद साक्ष्य आधारित दवाओं के हैं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इस साक्ष्य को उपयुक्त अधिकारियों के साथ साझा किया गया है। इस बीच अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने अपने एक शोध में यह पाया है कि मधुमेह विरोधी आयुर्वेदिक दवा बीजीआर-34 मोटापे को कम करने के साथ-साथ पुरानी बीमारी से पीड़ित रोगी के चयापचय तंत्र में सुधार करने में प्रभावी है। संयोग से यह दवा वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा विकसित की गई है। दरअसल कोरोना महामारी के बाद भारत सहित दुनिया में आयुर्वेदिक दवाओं की स्वीकृति बढ़ी है। निवारक उपायों के लिए आयुर्वेद लोगों की पहली पसंद बना है। सरकार भी औषधीय पौधों से प्राप्त परीक्षित उत्पादों को प्रतिरक्षा बुस्टर के रूप में समर्थन करती है, लेकिन सवाल है कि क्या ऐसे उत्पाद निवारक या उपचारात्मक हैं? क्योंकि यह साक्ष्य आधारित होने की बजाय विश्वास आधारित हैं। इन पर महत्वपूर्ण शोध नहीं किया गया है। ऐसे उत्पाद आधुनिक वैज्ञानिक जांच के मामलों पर 100 प्रतिशत खरे नहीं है।

इसी तरह एनडीए सरकार ने वैकल्पिक दवाओं के चिकित्सकों को सर्जरी करने और एलोपैथिक दवाएं लिखने की अनुमति देने का निर्णय लिया है। हालांकि सरकार के इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई है, प्रासंगिक अधिनियमों में हाल के संशोधनों के अनुसार शल्य और शालाक्य ब्रांच के पीजी विद्वानों को स्वतंत्र रूप से सर्जरी या उसकी प्रक्रियाओं को करने के लिए अधिकृत किया है। इसमें आपत्तियां दो कारकों से उत्पन्न होती है। एक यह कि यह वैध नहीं है और दूसरी यह कि यह पूरी तरह से उचित नहीं है। वैध प्रश्न है कि क्या वैकल्पिक दवाओं के चिकित्सक उचित योग्यता या अनुभव के बिना सर्जरी सहित आधुनिक चिकित्सा उपचार की पेशकश करने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य हैं। दूसरा यह कि आयुष की पारंपरिक प्रणालियों में निहित ज्ञान को स्वीकार नहीं करते हुए एलोपैथी प्रणाली को मान्यता दी गई है। हालांकि एलोपैथ और आयुर्वेद का रगड़ा कोई नया रगड़ा नहीं है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने आधुनिक चिकित्सा को पारंपरिक दवाओं के साथ एकीकृत करने की बात भी कही है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रमुख मुद्दा उपयोगकर्ताओं का कल्याण है। किसी भी कीमत पर उपयोगकर्ता के स्वास्थ्य से समझौता नहीं किया जा सकता। इसमें कोई दो राय नहीं कि आयुर्वेद का सहस्त्राब्दियों से अस्तित्व में है और लाखों लोगों की सेवा करता रहा है, लेकिन केवल विश्वास के आधार पर इसका व्यापक रूप से अपनाया जाना जोखिम भरा है। उदाहरण के लिए कई वैज्ञानिक तथ्य प्राचीन ज्ञान से मेल नहीं खाते, क्योंकि अक्सर अटकलों पर आधारित होते हैं। उदाहरण के लिए प्राचीन ग्रंथों में गुर्दे ने शरीर से अपशिष्ट विषाक्त पदार्थों को छानने में कोई भूमिका नहीं निभाई को लिया जा सकता है। कई एक पारंपरिक दवाएं आवश्यक शोध के अभाव में विफल हो गई, क्योंकि पारंपरिक ज्ञान के पक्षधर वैज्ञानिक संशोधन की संभावना को स्वीकार नहीं करते। लंबे समय से लंबित होने पर भी सुधार नहीं चाहते। क्योंकि उनके मुताबिक ग्रंथों की कालातीत प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है। हालांकि कई एक प्रबुद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सकों ने स्वीकार किया है कि इन क्लासिकस में निहित शरीर रचना विज्ञान वैज्ञानिक जांच की परीक्षा पर खरे नहीं उतर सकते हैं। हाल के दिनों में आधुनिक उपदेशक, अभ्यासी सन्यासी और यहां तक कि आयुर्वेदिक शिक्षण संस्थान भी वैज्ञानिक निष्कर्षों से इतर प्राचीन अवधारणाओं को वैधता प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं। यह केवल तथ्यों का उपहास नहीं है, बल्कि यह अशुभ रूप से खतरनाक भी है। क्योंकि इसमें गलत निदान और उल्टा उपचार होता है। हमें पारंपरिक ज्ञान को स्वीकार करना चाहिए जो कि बहुत ही मूल्यवान है, लेकिन सिर्फ अटकलबाजियां के सहारे नहीं बल्कि वैज्ञानिक ज्ञान की मुख्यधारा में एकीकृत होने से पहले पूरी तरह से जांच परख कर।

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