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बजट में आयकर बढ़ाइए

आगामी बजट में सरकार को आयकर में और कटौती नहीं करनी चाहिए। बल्कि आयकर में वृद्धि करनी चाहिए। इससे समृद्ध वर्ग पर टैक्स का बोझ बढेगा लेकिन इनकी खपत में ज्यादा कटौती नहीं होगी। जीएसटी की दर में कटौती करनी चाहिए क्योंकि इससे आम आदमी को राहत मिलेगी और बाजार में मांग बढ़ेगी। — डॉ. भरत झुनझुनवाला

 

वित्तमंत्री को आगामी बजट में तय करना है कि वे सरकार के घाटे की भरपाई कैसे करेंगी? इस वर्ष कोविड संकट के चलते सरकार का वित्तीय घाटा देश के जीडीपी का 3.5 प्रतिशत से बढ़कर 7 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है। घाटा बढ़ना स्वाभाविक है। बीते कई वर्षों से सरकार लगातार आयकर, जीएसटी और आयत कर की दरों में कटौती करती आ रही है। यह कटौती सार्थक होती, यदि साथ-साथ अर्थव्यवस्था में गति आती। जैसे हल्का भोजन करने से शरीर में तेजी आती है, लेकिन कटौती के कारण सरकार के राजस्व में उलट गिरावट आई है। अर्थव्यवस्था के मंद पड़े रहने के कारण राजस्व में भी गिरावट आयी है। सरकार का घाटा तेजी से बढ़ रहा है, जैसे व्यक्ति हल्का भोजन करे लेकिन प्रदूषित क्षेत्र में रिहाईश करे तो हल्का भोजन निष्प्रभावी हो जाता है। राजस्व में गिरावट की यह परिस्थति ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकती है, उसी तरह जैसे ऋण लेकर घी पीने की प्रक्रिया ज्यादा दिन तक नहीं चलती है। चार्वाक के सिद्धांत “ऋणं कृत्वा घृतम पिवेत” से काम नहीं चलेगा। अंततः सरकार को अपने उन खर्चों को कम करना होगा, जो उत्पादक नहीं हैं, जैसे मूर्तियाँ बनाना।

बीते वर्षों में सरकार ने आयकर में बड़ी कम्पनियों और छोटे करदाताओं सभी को कुछ न कुछ छूट दी है। अपेक्षा थी कि आयकर की दर में कटौती होने के कारण आयकरदाताओं के हाथ में ज्यादा रकम बचेगी और वे बाजार से माल अधिक मात्र में खरीदेंग और खपत अधिक करेंगे। साथ-साथ बड़े उद्योगों के हाथ में ज्यादा रकम बचेगी और वे ज्यादा निवेश करेंगे। इस प्रकार बाजार में खपत और निवेश का सुचक्र स्थापित हो जाएगा। इस सुचक्र के स्थापित होने से पुनः सरकार को अधिक मात्र में आयकर मिल जाएगा। आयकर की दर को घटाने से अर्थव्यवस्था गति पकड़ लेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। कारण यह है कि आयकर मुख्यतः देश का समृद्ध वर्ग अदा करता है। यदि सरकार ने इस वर्ग को आयकर में 100 रूपये की छूट दी तो हम मान सकते हैं कि 50 रुपया वे बचत करेंगे। इस रकम का निवेश वे शेयर बाजार, विदेश में अथवा सोना खरीदने में करेंगे। शेष 50 रूपये यदि वे खपत में लगाते हैं तो हम मान सकते हैं कि इसमें से 25 रूपये विदेशी माल खरीदने में, विदेश यात्रा करने में अथवा बच्चों को विदेश में पढने को भेजने में लगायेंगे। इस प्रकार 25 रुपया विदेश चला जायेगा। अंत में केवल 25 रूपये की देश के बाजार में मांग उत्पन्न होगी। सरकार का घाटा 100 रूपए बढेगा जबकि बाजार में मांग 25 रूपए की बढ़ेगी। न्यून मात्रा में मांग उत्पन्न होने से निवेशकों की निवेश करने की रूचि नहीं बनेगी। इस हानिप्रद नीति को अपनाने के कारण समृद्ध वर्ग के करदाताओं के हाथ में रकम बची लेकिन वह रकम बाजार में न आकर या तो बैंकों में जमा हो गई अथवा विदेशों में चली गयी। इसलिए टैक्स की दरों में कटौती के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था कोविड संकट आने के पहले से ही मंद पड़ी हुई है और इसमें गति नहीं आ रही है। कोविड ने इसे और पस्त कर दिया है।

टैक्स में कटौती करने का दूसरा पक्ष घाटे की भरपाई का है। सरकार के खर्च बढ़ते जा रहे हैं लेकिन टैक्स में छूट देने से राजस्व में कटौती हो रही है। इसलिए सरकार का घाटा बढ़ रहा है। इस घाटे की भरपाई सरकार बाजार से ऋण लेकर पूरी करती है। इसी घाटे को वित्तीय घाटा कहा जाता है। जैसा ऊपर बताया गया है इस चालू वर्ष 2020-21 में यह घाटा जीडीपी का 3.5 प्रतशत से बढ़कर 7 प्रतिशत होने को है। यह बढ़ता वित्तीय घाटा 1 या 2 वर्ष के लिए सहन किया जा सकता है जैसे दुकानदार बैंक से ऋण लेकर यदि अपने शोरूम का नावीनीकरण करे और उसकी बिक्री बढ़ जाये तो एक या दो वर्ष के अंदर वह अतिरिक्त बिक्री से हुयी अतिरिक्त आय से लिए गये ऋण का भुगतान कर सकता है। लेकिन यदि वह ऋण लेकर शोरूम का नवीनीकरण करे और बिक्री पूर्ववत रहे तो वह ऋण के बोझ से दबता जाता है, ब्याज का बोझ बढ़ता जाता है, उसकी आय घटती जाती है और अंततः उसका दिवाला निकल सकता है। हाल ही में कुछ जानकारों ने बताया की दुकानदारों ने बैंक से ऋण लेते समय जो पोस्ट डेटेड चेक दे रखे थे वे उनका भी भुगतान नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनकी आय दबाव में है। कुछ अपने व्यक्तिगत खर्चों में कटौती करके बैंकों को कुछ रकम की अदायगी कर रहे हैं। बैंक की वसूली हो भी जाये तो भी दूकानदार की आय कम हो रही है, वह बाजार से कम माल खरीद रहा है और बाजार में मांग कम उत्पन्न हो रही है। अर्थव्यवस्था मंद पड़ी हुई है। ऋण लेना हानिप्रद होता है यदि उसके अनुसार कारोबार में वृद्धि और मुनाफा न हो। आज देश की यही परिस्थति है। सरकार ऋण लेती जा रही है लेकिन अर्थव्यवस्था मंद पड़ी हुई है।

ऐसे में वित्त मंत्री के सामने चुनौती है। उत्तरोत्तर ऋण लेकर वे अर्थव्यवस्था को नहीं सम्भाल पाएंगी। उन्हें सख्त कदम उठाने पड़ेंगे। पहला कदम सरकारी घाटे को कम करने का लेना होगा। मूर्तियां बनाने और सरकारी कर्मियों को बोनस देने पर विराम लगाना चाहिए। बल्कि कर्मियों के वेतन में 50  प्रतिशत की कटौती करनी चाहिए। हाल ही में मुजफ्फरनगर के एक व्यापारी ने बताया कि उनका व्यापार कोविड पूर्व की स्थति से अब आधे पर वापस लौटा है। उनकी आय पूर्व से आधी हो गयी है। यही हाल लगभग देश के अधिकांश कारोबारियों की है। इसलिए जब सेवित की आय में 50 प्रतिशत की कटौती हो गयी है तो सेवकों की आय में भी उसी अनुपात में 50 प्रतिशत की कटौती करना उचित दीखता है। ऐसा करने से सरकार का घाटा घटेगा। समय क्रम में जब अर्थव्यवस्था पुनः ठीक हो जाये तो सेवकों के वेतन पूर्ववत किये जा सकते हैं। इनकी नियुक्ति जनता की सेवा के लिए की गयी है। जब सेवित मर रहा है तो सेवक को लड्डू खिलने का क्या प्रयोजन है?

आगामी बजट में सरकार को आयकर में और कटौती नहीं करनी चाहिए। बल्कि आयकर में वृद्धि करनी चाहिए। इससे समृद्ध वर्ग पर टैक्स का बोझ बढेगा लेकिन इनकी खपत में ज्यादा कटौती नहीं होगी। जीएसटी की दर में कटौती करनी चाहिए क्योंकि इससे आम आदमी को राहत मिलेगी और बाजार में मांग बढ़ेगी। आयातकर में भी वृद्धि करनी चाहिए जिससे कि आयातित माल देश में न आये और घरेलू उद्योगों का विस्तार और समृद्धि हो। यदि वित्तमंत्री आयकर और आयात कर बढ़ाकर जीएसटी को कम करें तो अर्थव्यवस्था पुनः कुछ अंश तक पटरी पर आ सकती है।

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