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उत्तराखंड स्थित सिल्कियारा की सुरंग के सबक

पहाड़ों पर आई आपदाओं की श्रृंखला में यह मौजूदा आपदा भी मानव निर्मित ही है। पर्वतीय संसाधनों का अत्यधिक दोहन, विकास के नाम पर अनियमित अनियंत्रित निर्माण, विभिन्न विभागों द्वारा समय-समय पर दी जा रही चेतावनियों की उपेक्षा, डरावना भ्रष्टाचार और दूसरों के जीवन की कीमत पर लाभ उठाने का क्रूर लालच ही इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार है। - अनिल तिवारी

 

सिल्कयारा सुरंग धसाव की घटना के बाद पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील हिमालयी इलाकों में सुरंग के निर्माण में नियमों की अनदेखी का मामला एक बार फिर उजागर हुआ है। नवयुग कंपनी द्वारा 865 करोड़ रूपये की लागत से बनायी जा रही साढ़े चार किलोमीटर लंबी सुरंग के धसने के बाद राज्य में बन रही सभी सुरंगों की समीक्षा की मांग उठ रही है।

मालूम हो कि दीपावली के दिन से ही उत्तराखंड की सुरंग में फंसे 41 मजदूरों की जिंदगी तथा उनके परिवार जनों के मन में अंधेरा छाया था। दुरुह पहाड़ का सीना काटने में विज्ञान और तकनीक से लैस मशीन ठिठकी,पर मनुष्य का हौसला जिंदगी की जंग जीतने में कामयाब हुआ। बाबा बौखनाग की असीम अनुकंपा से उत्तरकाशी के सिल्कवारा में बन रही सुरंग से मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया। चट्टान का सीना चीरकर सभी 41 मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लेना खुशी की बात है। सभी देशवासियों के लिए भावुक कर देने वाला पल है, लेकिन घटनाक्रम को लेकर कई एक प्रश्न भी खड़े हुए हैं। सुरंग में फंसे मजदूरों को निकालने में 17 दिन लग गए। इससे यह जाहिर हुआ कि बचाव कार्य के लिए हमारे पास कोई पक्की योजना नहीं है। हमें विदेश से भी मदद लेनी पड़ी। साथ ही यह भी सामने आया कि सिल्कयारा के जिस क्षेत्र में बन रही सुरंग में मजदूर फंसेइस जगह के आसपास दो स्थानीय फाल्ट की उत्तर से दक्षिण तक कटान है। तो क्या इस सुरंग को बनाने से पहले इसका अध्ययन नहीं किया गया था? बचाव कार्य के सिलसिले में आए विदेशी विशेषज्ञों ने शेयर जोन की बात कही, शेयर जोन उसे कहते हैं जिसके आसपास से दो नदियां एक दूसरे को क्रॉस करती है। मजदूरों ने भी सुरंग के बार-बार खसकने की शिकायत की थी। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या हिमालय क्षेत्र में विकास का कोई अच्छा रोडमैप हमारे पास अभी नहीं है।

गंगा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर गुरदास अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद जीने कहा था कि “खोदते खोदते एक दिन खो देंगे पहाड़“। पहाड़ी क्षेत्र में चल रही परियोजनाओं को लेकर कही गई उनकी बातें सुनने वालों के कानों में खतरे की घंटी की तरह अब भी गूंजती होगी। लेकिन विकास के प्रेत ने ऐसे मायावी संसार की रचना करने को ठानी है, जहां न तो यह घंटी सुनाई पड़ती है और न हीं जो होता है वह दिखाई पड़ता है। दरअसल बांधों, सड़कों, बिजली घरों और कंक्रीट और संगमरमर से बनने वाली इमारतों की चकाचौंध में यह पता ही नहीं चलता कि हम प्रकृति के साथ क्या कर रहे हैं? हम सुविधा से कब विलासिता और विनाश के दौर में प्रवेश कर जाते हैं इसका भान नहीं होता। जब कभी केदारनाथ जैसा बड़ा जल प्रलय, जोशीमठ की तरह बड़े पैमाने पर भू-स्खलन की घटना होती है तो हतप्रभ होकर हाय तौबा करते हैं, लेकिन आगे के लिए कोई सबक नहीं लेते। 

उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग के क्षतिग्रस्त होने और उसमे मजदूरों के फंस जाने की घटना के बाद उत्तराखंड में अंधाधुंध विकास परियोजनाओं पर सवाल खड़े हुए हैं। ठीक है कि पहाड़ी क्षेत्र के विकास के लिए तयआधुनिक परियोजनाएं आवश्यक है लेकिन अगर यही विनाश का कारण बनने लगे तो पुनर्विचार की भी जरूरत है। इंसान बेहतर जीवन की अभिलाषा रखता है और बेहतर जीवन स्तर विकास के बिना संभव नहीं है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में चल रहे नित नए निर्माण से उन इलाकों में भूस्खलन की घटनाएं और अधिक बढ़ने की आशंका है। कुछ समय पहले जोशी मठ में कई मकान धंस गए थे, सैकड़ो मकान में दरार आ गई थी। तब  वहां के लोगों नेजोशीमठ की पहाड़ी के नीचे सुरंग से होकर गुजरने वाली एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना को घटना के लिए जिम्मेदार माना था। भू-वैज्ञानिक भी मानते हैं कि पहाड़ों के कई शहर भूकंप के अत्यधिक जोखिम वाले क्षेत्र में बसे और बढ़े हैं। इसलिए ऐसी जगह पर होने वाली थोड़ी सी भी हलचल भारी तबाही मचा सकती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनियंत्रित विकास ने पहाड़ों के कई शहरों को पहले से ही खतरे में डाल रखा है।

हाल के वर्षों में पहाड़ के लोगों ने कई आपदाएं करीब से देखी है, लेकिन उन आपदाओं से सबक नहीं ले पाए और उनके मिजाज को समझे बिना विकास परियोजनाओं को हरी झंडी देते चले गए। यही कारण है कि हमें लगातार इस तरह के संकटों का सामना करना पड़ रहा है। खासकर जल विद्युत परियोजनाओं का प्रारंभ से ही विरोध होता रहा है। अधिकांश वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का मानना है कि पहाड़ों पर चलाई जा रही विद्युत परियोजनाएं भविष्य में बड़े संकट का कारण बन सकती हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में मैदानी क्षेत्र की तरह धड़ल्ले से तोड़फोड़ नहीं की जा सकती। पहाड़ी क्षेत्र का पर्यावरण पढ़ने, समझने के बाद ही परियोजनाओं को हरी झंडी दी जानी चाहिए, क्योंकि पहाड़ों पर बनने वाले बांधों से ग्लेशियरों के भी कमजोर पड़ने की तस्दीक हुई है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज विज्ञान निरंतर प्रगति पर है, लेकिन वह प्रकृति के सामने आज भी बौना ही है। पलक झपकते हथेली में सरसों उगा लेने के जुनून में अति उत्साही वैज्ञानिक प्रकृति के साथ विज्ञान की प्रतियोगिता कराएंगे तो किसी न किसी रूप में वे तबाही को ही आमंत्रित करेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का प्रयोग मानव कल्याण के लिए होना चाहिए न कि मानव के विनाश के लिए। पूरी दुनिया के लिए यह एक स्थापित सच है कि बड़े बांधों ने समय पाकर बड़ा तांडव मचाया है। लेकिन हमारे देश में एक पक्ष द्वारा लगातार यह तर्क दिया जाता रहा है की एक निश्चित अवधि तक प्रकृति की मार झेलने में बड़े बांध समर्थ होते हैं, लेकिन कोई भी वैज्ञानिक डंके की चोट पर वह निश्चित समय सीमा नहीं बताता।

आज विकास के नाम पर जो हवा महल खड़ा किया जा रहा है वह किसी न किसी तरह से आम आदमी की कब्र खोदने का काम कर रहा है। और इससे भी ज्यादा दुखद है कि हम बड़े शर्मनाक तरीके से ऐसे विकास पर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। क्या हम विकास का कोई ऐसा ढांचा नहीं खड़ा कर सकते जिससे वहां के निवासियों को स्थाई रूप से फायदा हो? विकास की योजनाओं को शुरू करते समय गरीबों के लिए अनेक फायदे गिनाए जाते हैं, लेकिन गरीबों के लिए फायदा दिवास्वप्न ही साबित होता है, जो गरीब विकास योजनाओं से जुड़ते भी हैं वह भी ता-उम्र गरीब ही बने रहते हैं। शासन सत्ता तथा पूंजीदार लोग अपनी हैसियत बढ़ाते हैं और आमजन ठगे से जहां हैं वहीं खड़े रह जाते हैं।

पहाड़ों पर आई आपदाओं की श्रृंखला में यह मौजूदा आपदा भी मानव निर्मित ही है। पर्वतीय संसाधनों का अत्यधिक दोहन, विकास के नाम पर अनियमित अनियंत्रित निर्माण, विभिन्न विभागों द्वारा समय-समय पर दी जा रही चेतावनियों की उपेक्षा, डरावना भ्रष्टाचार और दूसरों के जीवन की कीमत पर लाभ उठाने का क्रूर लालच ही इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार है। सूचनाएं बताती हैं कि केवल उत्तरकाशी ही नहीं बल्कि अन्य पर्वतीय नगर भी ऐसे ही आसन्न खतरे के कगार पर है। अब सवाल है कि अब तक डरावनी लापरवाही प्रदर्शित करती रही सरकारें ऐसी आपदाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाती हैं। उत्तरकाशी ने फिर एक बार सबक दिया है जिससे सीख जाना चाहिए और हर स्तर पर ऐसी आपदाओं से बचने के सचेत प्रयास भी किए जाने चाहिए। अब जबकि मजदूरों को बचा लिया गया है तो हमें ऐसी कार्ययोजना पर विचार करना चाहिए ताकि तीव्र भूकंप जोन वाले हिमालय क्षेत्र में इस तरह के हादसों का दोहराव ना हो।           

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