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भगवान श्री राम का पर्यावरण प्रेम

जब मनुष्य पृथ्वी का संरक्षण नहीं करता, तो पृथ्वी भी अपना गुस्सा कई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखाती है। वह दिन दूर नहीं, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियां नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। - डॉ. राजीव कुमार

 

प्रकृति, पर्यावरण, प्रगति के मध्य अन्तः संबंध है जिनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण सांस्कृतिक विरासत से निर्मित एवं विकसित होता है और इस संदर्भ में भारतीय हिन्दू संस्कृति की वैश्विक भूमिका प्राचीनकाल से ही महत्वपूर्ण मानी गयी है। पर्यावरण अध्ययन पर्यावरण संरक्षण हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग रहे है। बाल्मीकि रचित रामायण से लेकर तुलसीदास रचित  रामचरित मानस में प्रकृति चित्रण पर्यावरण संचेतना, पर्यावरण संरक्षण का विस्तृत उल्लेख किया गया है। वास्तव में हिन्दू धर्म एक विशिष्ट पूजा पद्धति, आस्था तक ही सीमित नहीं है वरन जैसा कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिन्दू धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है कि हिन्दू धर्म एक जीवन शैली है। हिन्दू धर्म की इस जीवन शैली में धर्म तथा पर्यावरण में सह-सम्बन्ध माना गया है जिसके अन्तर्गत पर्यावरण प्रकृति के साथ मानव द्वारा उचित, संवेगात्मक एवं सामन्जस्यपूर्ण सम्बन्ध निभाना ही उसका धर्म है। पृथ्वी को धरती माता के रूप में पूजित माना गया तथा सूर्य,जल,वायु,वृक्ष, अग्नि सभी को देवता मानकर पूजनीय माना गया केवल यही नहीं विभिन्न देवी-देवताओं के वाहक के रूप में विभिन्न पशु-पक्षियों की भी आराधना की पद्धति विकसित की गयी। जल, वायु को दूषित करना, वृक्षों का अनावश्यक रूप से कटाव करना को पाप माना जाता था, क्योंकि उस समय ऋषि, मुनियों को पर्यावरण के इन महत्त्वपूर्ण घटकों के महत्त्व का ज्ञान था। तत्त्कालीन भारतीय सामाजिक जीवन में पर्यावरणीय तत्त्वों के साथ सामंजस्य की भावना धर्म से जुड़ी हुई थी।

लेकिन पाश्चात्य भौतिकवाद की अवधारणा पर आधारित प्रगति के स्वरूप एवं दिशा ने आज इक्कीसवीं शताब्दी में पर्यावरण प्रदूषण के रूप में मानव जाति के अस्तित्त्व को ही चुनौती प्रस्तुत कर दी है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, रेडियो एक्टिव प्रदूषण, ओजोन परत में छिद्र, अम्लीय वर्षा इत्यादि का अत्यन्त विनाशकारी स्वरूप बृद्धिजीवी, विवेकशील, वैज्ञानिकों की चिंता का कारण बन चुके है। लम्बे समय तक भौतिक विकास के विनाशकारी मद में मदोन्मत्त लोगों की सुप्त पर्यावरण चेतना अब जागृत हो रही है तथा इस भौतिकवादी प्रगति के पुरोधा भी पर्यावरण संरक्षण की बात करने लगे है। मानव समाज किस समय कौन सी समस्या से ग्रस्त होता है और उसके निदान के लिए समाज के सदस्यों की भूमिका एवं सहभगिता एवं शासकीय प्रयासों की तुलना में अधिक उस समाज के सांस्कृतिक मूल्य अधिक प्रभावी होते हैं। इस संदर्भ में भारतीय संस्कृति के आधार पुरातन ग्रन्थ-वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण के साथ तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस का अध्ययन व विश्लेषण अत्यन्त लाभप्रद हो सकता है विशेषकर रामचरित मानस का क्योंकि वर्तमान समय में घर-घर में न केवल रामचरितमानस एक पवित्र ग्रन्थ के रूप में पूजा जाता है वरन इसका पाठ पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर किया जाता है।

जब हम अपने किसी मित्र या संबंधी से मिलते हैं तो सभी का हालचाल पूछते हैं किसी से मिलकर हम उसके बच्चों, परिवार आदि की ही कुशलक्षेम पूछते हैं। हम सबने कभी सोचा ही नहीं कि किसी का हालचाल पूछते समय उस क्षेत्र के वनों, नदियों, तालाबों या वन्यजीवों का समाचार जानने की चेष्टा करें। ऐसा इसलिए है कि अब हम वनों, नदियाँ, तालाबों या वन्यजीवों को परिवार का अंग मानते ही नहीं। पहले ऐसा नहीं था। उस समय लोग एक दूसरे का समाचार पूछते समय वनों, बागों, जलस्रोतों आदि की भी कुशलता जानना चाहते थे। इसका कारण यह था कि उस समय लोग प्रकृति के विभिन्न अवयवों को परिवार की सीमा के अन्तर्गत ही मानते थे। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण चित्रकूट में राम भरत मिलन के समय मिलता है। श्रीराम अपने दुखी भाई भरत से पूछते हैं कि उनके दुखी होने का क्या कारण है? क्या उनके राज्य में वन क्षेत्र सुरक्षित हैं? अर्थात वन क्षेत्रों के सुरक्षित न रहने पर पहले लोग दुखी एवं व्याकुल हो जाया करते थे। वाल्मीकि रामायण में वर्णित उदाहरण निम्न प्रकार है-

कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुन्जराणां च तृप्यसि।। 

जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गाएँ तो अधिक संख्या में हैं न? (अथवा हाथियों को फँसाने वाली हथिनियों की तो तुम्हारे पास कमी नहीं है?) तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? अनेक स्थानों पर वाल्मीकि जी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। श्री भरत जी अपने सेना एवं आयोध्या वासियों को छोड़कर मुनि के आश्रम में इसलिये अकेले जाते हैं कि आस-पास के पर्यावरण को कोई क्षति न पहुँचे।

श्रीराम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था।

तुलसीदास जी ने वर्णन किया है कि उस समय में पर्यावरण प्रदूषण की कोई समस्या नहीं थी। काफी बड़े भू-भाग पर वन क्षेत्र विद्यमान थे। वन क्षेत्रों में ही ऋषियों एवं मुनियों के आश्रम थे, जो उस समय ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र थे। समाज में इन ऋषि-मुनियों का बड़ा सम्मान था। बड़े-बड़े राजा महाराजा भी इन मनीषियों के सम्मान में नत मस्तक हो जाते थे। श्रीराम को वनवास मिलने के उपरान्त सर्वाधिक प्रसन्नता इसी बात की हुई कि वन क्षेत्र में ऋषियों का सत्संग का लाभ प्राप्त होगा।

प्रभु श्रीराम को आने वाले समय में रामराज्य की स्थापना करनी थी, जिसमें सभी सुखी हो सकें इसलिये स्वाभाविक ही था कि उन्होंने लम्बे समय तक ऋषि-मुनियों के सानिध्य में रहने का निर्णय लिया। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर वन क्षेत्रों का सजीव वर्णन किया है। वन क्षेत्र घनी आबादी से दूर स्थित होते थे तथा इन क्षेत्रों में भोली-भाली आदिवासी जनता रहती थी। श्रीराम ने इन भोले-भाले लोगों से प्रगाढ़ मित्रता स्थापित की और जीवनपर्यन्त उसका निर्वहन किया। निषादराज केवट, वानरराज सुग्रीव एवं गिद्धराज जटायु इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। वनवासी बन्दरों से राम की मित्रता जगत प्रसिद्ध है। इन्हीं बन्दर-भालुओं की सहायता से उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त की उपेक्षित गिद्ध जटायु को श्रीराम ने अत्यधिक सम्मान दिया। श्रीराम के सानिध्य से अंगद, हनुमान, जामवन्त, नल, नील, सुग्रीव, द्विविद, आदि भालू कपि तथा जटायु जैसे गिद्ध सदा के लिये अमर हो गये। पूरे रामचरित मानव में हम पाते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक अवयवों को उपभोग मात्र की वस्तु नहीं माना गया है। बल्कि सभी जीवों एवं वनस्पतियों से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रकृति के अवयवों का उपभोग निषिद्ध नहीं है। उनके प्रति कृतज्ञ होकर हम आवश्यकतानुसार उस सीमा तक उपयोग कर सकते हैं जब तक किसी अवयव के अस्तित्व पर संकट न आए। कोई भी प्रजाति किसी भी दशा में लुप्तप्राय नहीं होनी चाहिये।

भगवान श्रीराम ने प्रकृति के बीच रहकर प्रकृति को बचाने के लिए प्रेरित किया। भगवान श्रीराम वनवास काल में जिस पर्ण कुटीर में निवास करते थे वहां पांच वृक्ष पीपल, काकर, जामुन, आम व वट वृक्ष था जिसके नीचे बैठकर श्रीराम-सीता भक्ति आराधना करते थे। अनेक स्थानों पर तुलसीदासजी एवं वाल्मीकिजी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न एवं स्वर्णिम काल था। मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुये थे। श्रीराम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था। इसलिए जो कुछ हम सब रामायण से समझ पाते हैं, वह ही मनुष्य के जीवन जीने की सनातन परंपरा है। वही परंपरा ही हम सबको यह बताती है कि प्रकृति रामराज्य का आधार है।

हम श्रीराम तो बनना चाहते हैं पर श्रीराम के जीवन आदर्शों को अपनाना नहीं चाहते, प्रकृति-प्रेम को अपनाना नहीं चाहते, यह एक बड़ा विरोधाभास है। अजीब है कि जो हमारे जन-जन के नायक हैं, सर्वोत्तम चेतना के शिखर हैं, जिन प्रभु श्री राम को अपनी सांसों में बसाया है, जिनमें इतनी आस्था है, जिनका पूजा करते हैं, हम उन व्यक्तित्व से मिली सीख को अपने जीवन में नहीं उतार पाते। प्रभु श्रीराम ने तो प्रकृति के संतुलन के लिए बड़े से बड़ा त्याग किया। अपने-पराए किसी भी चीज की परवाह नहीं की। प्रकृति के कण-कण की रक्षा के लिए नियमों को सर्वोपरि रखा और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। पर हमने यह नहीं सीखा और प्रकृति एवं पर्यावरण के नाम पर नियमों को तोड़ना आम बात हो गई है। प्रकृति को बचाने के लिये संयमित रहना और नियमों का पालन करना चाहिए, इस बात को लोग गंभीरता से नहीं लेते।

यही कारण है कि जब मनुष्य पृथ्वी का संरक्षण नहीं कर पा रहा तो पृथ्वी भी अपना गुस्सा कई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखा रही है। वह दिन दूर नहीं होगा, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। निश्चित ही इन सभी समस्याओं का समाधान श्रीराम के प्रकृति प्रेम में मिलता है, श्रीराम के मन्दिर का उद्घाटन निश्चित ही रामराज्य की स्थापना की ओर अग्रसर होने का दुर्लभ अवसर है, इस अवसर पर हमें श्रीराम के प्रकृति-संरक्षण की शिक्षाओं को आत्मसात करते हुए देश ही नहीं, दुनिया की पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन एवं सृष्टि-असंतुलन की समस्याओं से मुक्ति पानी चाहिए।             

 

लेखक- अखिल भारतीय विचार विभाग प्रमुख, स्वदेशी जागरण मंच

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