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फिर से पीली क्रांति की दरकार

जीएम सरसों को पर्यावरणीय मंजूरी देते हुए दावा किया गया है कि इससे खाद्य तेलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा। जबकि हमारे पास पहले से ही उच्च उपज वाली कम-से-कम पांच गैर-जीएम किस्में मौजूद हैं। खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता बढ़ाने के लिए शून्य आयात शुल्क भी जिम्मेदार है।  - देविन्दर शर्मा

 

आनुवंशिक रूप से परिष्कृत (जीएम) सरसों की किस्म को पर्यावरणीय मंजूरी मिलना वैज्ञानिक क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए जश्न का अवसर हो सकता है। आखिर यह पहला जीएम खाद्य है, जिसे पर्यावरण परीक्षण की मंजूरी मिली है। कहा गया है कि इससे खाद्य तेलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा। भले ही ये दावे सच न हों, लेकिन कृषि वैज्ञानिकों का एक प्रमुख वर्ग और जैव प्रौद्योगिकी उद्योग निश्चित रूप से जानता है कि यह कम से कम देश में अन्य जीएम खाद्य पदार्थों के लिए दरवाजा खोल देगा।

तथ्य यह है कि भारत 1.15 लाख करोड़ रुपये की लागत से खाद्य तेल की अपनी मांग का 55 से 60 प्रतिशत आयात करता है, जो निश्चित रूप से चिंताजनक है। तत्काल आवश्यकता आयात को कम करने की है और यह तभी हो सकता है जब घरेलू उत्पादन बढ़े। यह देखते हुए, कि देश में नौ खाद्य तेल फसलें उगाई जाती हैं, इस भारी कमी को पूरा करने के लिए हमें इन सभी फसलों के उत्पादन को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। लेकिन यह समझ में नहीं आता है कि कम उपज वाली जीएम सरसों की किस्म सरसों का उत्पादन कैसे बढ़ा सकती है? जीएम फसलों से जुड़े सभी मानव स्वास्थ्य और पर्यावरणीय जोखिमों को देखते हुए और यह जानते हुए कि जीएम सरसों किस्म की उत्पादकता कम है, इसे वैज्ञानिक कूड़ेदान तक ही सीमित रखा जाना चाहिए था। 

वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय चाहे कितना भी जोर दें, ये दावे वास्तव में निराधार और वैज्ञानिक रूप से अमान्य हैं। यह सच है कि देश में सरसों की औसत उत्पादकता 2,000 किलोग्राम/हेक्टेयर के वैश्विक औसत के मुकाबले 1,260 किलोग्राम/हेक्टेयर है, और निश्चित रूप से घरेलू उत्पादकता के साथ-साथ उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है। पर शायद जीएम सरसों को पर्यावरणीय मंजूरी देने वाला मंत्रालय यह भूल गया है कि प्रो. एमएस स्वामीनाथन ने क्या कहा था। जीएम का विकल्प सबसे अंत में आजमाना चाहिए, जब अन्य सभी उपलब्ध विकल्प खत्म हो जाएं। जीएम सरसों की किस्म-डीएमएच 11 से खाद्य तेल उत्पादन बढ़ाना, जिसकी उत्पादकता सरसों की कम-से-कम पांच उपलब्ध किस्मों की तुलना में कम है, एक वैज्ञानिक चमत्कार ही होगा।

जीएम सरसों की उत्पादकता की तुलना अपेक्षाकृत खराब उपज देने वाली वरुणा किस्म से करके यह दावा करना कि यह 28 फीसदी अधिक उपज है, वास्तव में जीएम किस्म की कम उपज को छिपाने का चतुर तरीका है। किसानों के पास पहले से उपलब्ध पांच उच्च उपज देने वाली किस्मों में से (जो सभी गैर-जीएम किस्में हैं) तीन उसी डीएमएच शृंखला से हैं। आनुवंशिक रूप से परिष्कृत डीएमएच-11 किस्म की 2,626 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की उपज क्षमता के मुकाबले, पहले से उपलब्ध डीएमएच-4 किस्म की उपज क्षमता 3,012 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जिसका अर्थ है कि यह जीएम सरसों किस्म की तुलना में 14.7 प्रतिशत अधिक उपज देती है। जीएम सरसों किस्म की उत्पादकता का मूल्यांकन करने के लिए सरसों की इस किस्म का उपयोग क्यों नहीं किया गया, यह स्पष्ट है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जीएम सरसों कम से कम वैज्ञानिकों को और अधिक संकर किस्म पैदा करने के लिए एक उपकरण उपलब्ध कराएगी। हालांकि तथ्य यह है कि डीएमएच शृंखला का अर्थ है-धारा सरसों का संकर किस्म, और हमारे पास पहले से ही गैर-जीएम प्रौद्योगिकी के साथ उच्च उपज वाले संकर किस्म हैं। हमें यह आभास देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि पारंपरिक किस्मों के साथ सरसों के संकर किस्म का उत्पादन नहीं किया गया है।

भारत में सरसों की खेती 80 से 90 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होती है। हैरानी की बात यह है कि बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में पैदावार पहले से ही अधिक है, जहां सरसों की गहन खेती प्रणाली का पालन किया गया। बिहार में सरसों की औसत उपज 3,458 किलोग्राम/हेक्टेयर है और राजस्थान में उससे थोड़ा ज्यादा 3,560 किलोग्राम/हेक्टेयर है, जो स्वीकृत जीएम सरसों की किस्म से काफी अधिक है। मध्य प्रदेश में, कृषि विभाग द्वारा एसएमआई उत्पादन प्रणाली लागू करने के बाद प्राप्त औसत पैदावार 4,693 किलोग्राम/हेक्टेयर के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गई है। आश्चर्य है कि कृषि वैज्ञानिक एसएमआई खेती के तहत सरसों की खेती को बढ़ावा और विस्तार देने का प्रयास क्यों नहीं कर रहे हैं, खासकर यह देखते हुए कि मध्य प्रदेश में उपज जीएम किस्म की तुलना में लगभग दोगुनी है। एक ऐसे देश में, जहां सरसों के लिए एक विशाल आनुवंशिक विविधता मौजूद है, भारत को इसके बजाय भूली हुई पीली क्रांति से ऊपर उठने की जरूरत है।

वर्ष 1985-86 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आयात पर निर्भरता घटाने के उद्देश्य से खाद्य तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन की शुरूआत की थी। यह देखते हुए कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के तहत भारत के पास आयात शुल्क को अधिकतम 300 प्रतिशत रखने का विकल्प था, भारत ने किसानों को प्रौद्योगिकी, आकर्षक मूल्य प्रदान करके एक सक्षम वातावरण बनाया और प्रसंस्करण उद्योग के विकास को भी प्रोत्साहित किया। 

वर्ष 1993-95 से तिलहन का उत्पादन दोगुना हो गया और भारत इस मामले में लगभग आत्मनिर्भर बन गया। यह अपनी जरूरत का 97 फीसदी उत्पादन करते लगा और मात्र 3 फीसदी आयात करता था। फिर धीरे-धीरे आयात शुल्क घटने के साथ खाद्य तेल पर आयात शुल्क शून्य पर पहुंच गया (अब भी शून्य ही है), जिससे खाद्य तेल आयात की बाढ़ आ गई। जितना अधिक आयात बढ़ा, उतना ही किसानों ने तिलहन की खेती छोड़ दी। और इस तरह पीली क्रांति के लाभ ध्वस्त हो गये। खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भरता के लिए केवल उच्च उत्पादन ही एकमात्र कारण नहीं था। कई वजहों से यह उपलब्धि हासिल हुई थी, जिसमें आयात शुल्क बढ़ाना, किसानों को उच्च मूल्य प्रदान करना, सिंचित क्षेत्र का विस्तार करना और इनपुट की उपलब्धता को आसान बनाना शामिल है। एक बार फिर से तिलहन क्रांति के लिए प्रयास किया जा सकता है और इस बार वैज्ञानिकों को सही तरीके से नीतिगत प्रोत्साहन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इसकी शुरूआत आयात शुल्क को कम से कम 50 प्रतिशत तक बढ़ाने के साथ करनी होगी और उत्पादन रणनीति के रूप में सरसों की गहन प्रणाली (एसएसआई) का उपयोग करते हुए एक राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ना होगा।

https://jantaserishta.com/editorial/need-for-yellow-revolution-again-need-to-carry-forward-rajiv-gandhis-initiative-and-productive-debate-on-gm-crops-1740245

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