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कोविड से भी खतरनाक है पेटेंटधारकों की स्वार्थवृत्ति

व्यक्ति का जीने का अधिकार ‘‘सार्वभौम अधिकार’’ है और भारतीय संविधान के अंतर्गत ‘‘जीवन का मौलिक’’ अधिकार है। इस दृष्टि से कोरोना की औषधियों व टीकों की सर्वसुलभता परम-आवश्यक है। इस हेतु इन औषधियों व टीकों के उत्पादन हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन, इनकी पेटेंट मुक्ति, उत्पादन सामग्री की पूर्त्ति एवं प्रौद्योगिकी के हस्तान्तरण सुनिश्चित किए जाने जैसे सभी उपाय आवश्यक है।  — प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा

 

विश्व में 16.25 करोड़ व भारत में 2.5 करोड स अधिक कोरोना संक्रमित लोग जीवन मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। विश्व की शेष जनसंख्या में भी अधिकांश जनता इस प्राणान्तक महामारी के भय से त्रस्त है। कोरोना से मृत 35 लाख लोगां के करोड़ों परिवारीजन गंभीर शोक में निमग्न हैं। लेकिन, इस रोग के उपचार की औषधियों व रोकथाम हेतु उपलब्ध टीकों के पेटेंटधारी उत्पादक अपने स्वार्थवश इन औषधियों की सुलभता के विरूद्ध हृदयहीन बन कर बैठे हैं। यदि ये पेटेंटधारी मौत के सौदागर की भांति अपने एकाधिकार को अक्षुण्ण रखने के स्थान पर इन औषधियों व टीकों की प्रौद्योगिकी, स्वेच्छापूर्वक सर्वसुलभ कर इनकी उत्पादन सामग्री सभी इच्छुक उत्पादकों को सुलभ कर देंगे तो मानवता को इस संत्रास से मुक्ति दी जा सकेगी। इसलिए इन टीकों व औषधियों को पेटेंट मुक्त किया जाना, इनके उत्पादन की प्रौद्योगिकी का निःशुल्क या अल्पतम रॉयल्टी पर हस्तान्तरण और इनके उत्पादन की सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति परम-आवश्यक है।

अन्यायपूर्ण असमानता

अब तक एक अरब में से अधिकांश टीकों का उपयोग धनी देशों ने किया है। अफ्रीका, एशिया व लेटिन अमेरिका के कम आय वाले देशों ने मुश्किल से कोई टीका प्राप्त किया होगा। भारत में भी टीकों व औषधियों के अभाव में अधिकांश जनता भयावह सत्रांस से त्रस्त है। आज 36 देशों में संक्रमण की दर बढ़ रही है। फाइजर का ही इस टीके की मुनाफाखोरी से 7 अरब डालर (52,500 करोड़ रू. तुल्य) लाभ रहने की अपेक्षा है। 

इन टीकों के विकस में बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन से सहायता दी गयी है। अमेरिका में छः टीका कंपनियों को 12 अरब डालर (रू. 90,000 करोड़ तुल्य) की सार्वजनिक सहायता मिली है। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा जेनेका का कोविशील्ड व भारत बायोटेक का कोवेक्सिन भी सरकारी सहायता से विकसित हुआ है। ऐसे में यह तर्क देना कि इन टीकों पर इन कंपनियों ने भारी व्यय किया है, इसलिए इनका एकाधिकार आवश्यक है, कितना उचित है? 

भारत की मानवोचित पहल को वैश्विक समर्थन

इन औषधियों व टीकों को पेटेंट मुक्त किये जाने के लिए विश्व व्यापर संगठन में भारत व दक्षिण अफ्रीका ने अक्टूबर 2020 में ही प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया था। छः माह तक 10 बैठकों में प्रतिरोध के उपरान्त जन दबाव के आगे झुकते हुए अमेरिका व अधिकांश औद्योगिक देशों ने टीकों को पेटेंट मुक्त करने के प्रस्ताव का 5 मई को विश्व व्यापार संगठन की जनरल काउन्सिल में समर्थन दिया। अब यह प्रस्ताव ट्रिप्स काउन्सिल की 8-9 जून की बैठक में जाएगा। उसके उपरान्त मन्त्री स्तरीय बैठक से अनुमोदन भी अपेक्षित होगा। तब भी केवल टीकों की पेटेंट मुक्ति ही सम्भव हो सकेगी। इनके उत्पादन हेतु प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण भी आवश्यक होगा। कोविड की औषधियों व टीकों को पेटेंट मुक्त करने के भारत के प्रस्ताव का 750 सदस्यों की यूरोपीय संसद ने भी समर्थन दिया है, जबकि यूरोप के कुछ राष्ट्राध्यक्ष व यूरोपीयन कमीशन ने जी-20 की बैठक में इसका विरोध किया है। 

जीने का अधिकार सर्वोपरि

व्यक्ति का जीने का अधिकार ‘‘सार्वभौम अधिकार’’ है और भारतीय संविधान के अन्तर्गत ‘‘जीवन का मौलिक’’ अधिकार है। इस दृष्टि से कोरोना की औषधियों व टीकों की सर्वसुलभता परम-आवश्यक है। इस हेतु इन औषधियों व टीकों के उत्पादन हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन, इनकी पेटेंट मुक्ति, उत्पादन सामग्री की पूर्त्ति एवं प्रौद्योगिकी के हस्तान्तरण सुनिश्चित किए जाने जैसे सभी उपाय आवश्यक है। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि इजरायल आदि 5 देशों ने अपनी अधिकांश वयस्क जनसंख्या की टीकाकरण कर इस महामारी को नियंत्रित कर लिया है। अब वहाँ मास्क लगाये रखने की आवश्यकता भी नहीं रह गई है।

प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण की विधिसम्मत अनिवार्यताः

विश्व व्यापार संगठन के 1995 के ‘‘बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर हुए समझौते’’ जिसे ‘‘एग्रीमेण्ट आन ट्रेड रिलेटेड इण्टेलेक्चुअल राइट्स’’ या ‘ट्रिप्स समझौता’ कहा जाता है में उसकी धारा 7 में प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण का वैधानिक प्रावधान है। इसलिए औद्योगिक देशों को प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण करवाने के इस धारा 7 के दायित्व का निर्वहन करना चाहिए। वैसे पेटेण्ट मुक्ति का यह निर्णय टीकों के सन्दर्भ में ही हुआ है। कोरोना की चिकित्सा की औषधियों के उत्पादन को पेटेंट मुक्त नही किए जाने से पेटेण्टधारक से इतर उत्पादकों को इन औषधियों के उत्पादन के लिए ‘अनिवार्य अनुज्ञापन’ (कम्पल्सरी लाइसेसिंग) एक विकल्प हो सकता है। भारत के पेटेंट अधिनियम की धारा 84,92 व 100 में अनिवार्य अनुज्ञापन के प्रावधान हैं। 

अनिवार्य अनुज्ञापनः पेटेंटधारकों के शोषण पर अंकुशः

यकृत व गुर्दे के कैंसर की जर्मन कंपनी ‘बायर’ का ‘नेक्सावर’ नामक इंजेक्शन 2,80,000 रूपये का आता था। उसे मात्र 8,8,00 रु. में बेचने का प्रस्ताव कर एक भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ ने भारत के मुख्य पेटेंट नियंत्रक को आवेदन कर कम्पल्सरी लाइसेंस प्राप्त कर लिया। आज नेक्सावर भारत के बाहर 2,80,000 रु. में मिलता है, वहीं भारत में यह उसकी मात्र तीन प्रतिशत कीमत पर मिल जाता है। दुर्भाग्य से इस अनिवार्य अनुज्ञा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर यूरो-अमेरिकी देशों का इतना दबाव आया कि उन नियंत्रक को पद छोड़ना पड़ गया। अभी यह भी गर्व का विषय है कि भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ फार्मा ने पुनः अमेरिकी कंपनी ‘एली लिलि’ की कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के समानांतर उत्पादन हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के लिए आवेदन कर दिया है। आशा है शीघ्र ही कोरोना की शेष औषधियों के उत्पादन के लिए कई कंपनियां स्वैच्छिक अनुज्ञापन के लिए आगे आएंगी।

वर्तमान में कम्पल्सरी लाइसेंस आप्रासंगिक

वर्तमान में अनिवार्य अनुज्ञापन या कम्पल्सरी लाइसेंस से कोई समाधान संभव नहीं है। रेमिडोसिविर के लिए ‘जी लीड’ नामक कंपनी ने भारत में सात कंपनियों को एवं बेटिसिटिनिब के उत्पादन के लिए नाटको फार्मा को स्वैच्छिक अनुज्ञा अर्थात वोलंटरी लाइसेंस दे दिया है। इनको छोडकर किसी औषधि या टीके के समानान्तर उत्पादन के लिए आवेदन ही नहीं किया है। आक्सफॉर्ड-एस्ट्राजेनेका की स्वैच्छिक अनुज्ञा सीरम इन्स्टीटयूट को कोविशील्ड के लिए दिया हुआ है। भारत बायोटेक ने कोवेक्सिन के लिए तीन कंपनियों को स्वैच्छिक अनुज्ञा दे दी है। फाइजर, माडरना व जॉनसन आदि कंपनियों के अभी पेटेंट के लिए भारत में आवेदन ही नहीं किया है। ऐसे में उनके संबंध में कम्पल्सरी लाइसेंस दिया जाना संभन नहीं है। इन कंपनियों ने अभी पेटेंट कोआपरेशन ट्रीटी के आीन ही पेटेंट ले रखा है।

पेटेण्टधारको के शोषण के विरुद्ध पिछला संघर्षः

नब्बे के दशक में यूरो-अमेरिकी कंपनियां एड्स की औषधियों की कीमत इतनी लेती थीं कि भारत से बाहर एक रोगी की वार्षिक चिकित्सा लागत 15,000 डॉलर यानी 10,00,000 रुपये से अधिक आती थी। चूंकि 1995 के पहले भारत में ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ न होकर, केवल ‘प्रक्रिया पेटेंट’ ही होता था। इसलिए कई भारतीय कंपनियां अंतरराष्ट्रीय पेटेंटधारक की उत्पादन प्रक्रिया से भिन्न प्रक्रिया का विकास कर इन्हें बनाती व इतनी कम लागत पर बेचती थीं कि व्यक्ति की चिकित्सा लागत 350-450 डॉलर ही आती थी। इसलिए दक्षिणी अफ्रीका व ब्राजील ने भारत से इन औषधियों के आयात हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के कानून बना लिए। तब अमेरिकी कंपनियों के एक समूह ने दक्षिण अफ्रीकी कानून को ट्रिप्स विरोधी बता कर दक्षिण अफ्रीकी सर्वाच्च न्यायालय में व अमेरिकी सरकार ने ब्राजील के कानून को डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र में चुनौती दे डाली। इस पर दक्षिणी अफ्रीका में अमेरिकी दूतावास के सम्मुख सड़कों पर ऐसा उग्र प्रदर्शन हुआ कि अमेरिकी कंपनियों ने सर्वाच्च न्यायालय से व अमेरिकी सरकार ने डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र से वे मुकदमे वापस ले लिए। 

इसके बाद 2001 के विश्व व्यापार संगठन के दोहा के मंत्री स्तरीय सम्मेलन के पहले दिन ही सभी विकासशील देशों ने इतने उग्र तेवर दिखाए कि गैर विश्व व्यापार संगठन के पांच दशक के इतिहास में पहली बार सम्मेलन के पहले दिन ही औषधियों के उत्पादन के लिए अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। इस प्रस्ताव के आधार पर ही भारत के पेटेंट कानून में 2005 में अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रावधान धारा 84, 92 व 100 के माध्यम से जोड़ना संभव हुआ। इसी प्रावधान के अधीन नाट्को फार्मा ने कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन किया है और शेष औषधियों की भी सर्व सुलभता के लिए भारतीय कंपनियां अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन की तैयारी में हैं।

रक्त कैन्सर की जेनेरिक औषधिः भारतीय कीर्त्तिमान

1995 के पूर्व के भारतीय पेटेंट अधिनियम के अंतर्गत 1 जनवरी, 1995 के पहले आविष्कृत किसी भी औषधि के पेटेंटधारक के नाम पेटेंट से रक्षित प्रक्रिया को छोड़कर स्व अनुसंधान से विकसित प्रक्रिया से दवा उत्पादन की स्वतंत्रता थी। ट्रिप्स समझौते के कारण ही भारत को यह नियम बदल कर ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ का नियम लागू करना पड़ा था, जिससे 1995 के बाद में आविष्कृत औषधियों के उत्पादन का वह अधिकार भारतीय कंपनियों से छिन गया। इसीलिए 1995 के पहले की हजारों औषधियां भारत में अत्यंत अल्प मूल्य पर सुलभ हैं। इन्हीं के मूल्य भारत को छोड़कर शेष देशों में 10 से 60 गुने तक हैं। रक्त कैंसर की ‘ग्लिवेक’ नामक 1994 में आविष्कृत औषधि स्विस कंपनी नोवार्टिस 1200 रु. प्रति टेबलेट बेचती थी। इसे भारतीय कंपनियों ने अपनी वैकल्पिक विधियों से उत्पादित कर मात्र 90 रु. में बेचना प्रारंभ कर दिया। आज विश्व के 40 प्रतिशत रक्त कैंसर के रोगी इस औषधि को भारत से आयात करते हैं। इस ‘ग्लिवेक’ के 1994 के मूल रसायन ‘इमेंटीनिब’ का एक ‘डेरिटवेटिव’ विकसित कर 1998 में एक और पेटेंट आवेदन कर दिया। लेकिन भारत ने मूल पेटेंट में मामूली परिवर्तन से पेटेंटों की अवधि पूरी होने पर भी उसके दुरुपयोग को रोकने हेतु पेटेंट अधिनियम की धारा 3 डी में ‘इन्क्रीमेंटल’ अनुसंधानों को पेटेंट योग्य नहीं माना। यह विवाद सर्वाच्च न्यायालय तक गया पर नोवार्टिस कंपनी हार गई और आज विश्व के रक्त कैंसर के रोगी 1200 रु. के स्थान पर 90 रु. प्रति टेबलेट की दर पर इसे क्रय कर पा रहे हैं।

ट्रिप्स आधारित पेटेंट व्यवस्था अमानवीय

ट्रिप्स आधारित वर्तमान पेटेंट व्यवस्था सर्वथा न्याय विरुद्ध और अमानवीय है। किसी भी आविष्कार के प्रथम आविष्कारक को संपूर्ण विश्व की 740 करोड़ जनसंख्या के विरुद्ध 20 वर्ष के लिए यह एकाधिकार प्रदान कर देना कि वह आविष्कारक इस आविष्कार या औषधि की कुछ भी कीमत ले, यह ठीक नहीं है। इसमें प्रथम आविष्कारक के बाद स्व अनुसंधान से या प्रथम आविष्कारक से तकनीक प्राप्त कर किसी उत्तरवर्ती उत्पादक द्वारा उस औषधि को अत्यंत अल्प कीमत पर आपूर्ति करने की दशा में सभी उत्तरवर्ती उत्पादकों से 5-15 प्रतिशत तक रॉयल्टी भुगतान का प्रावधान किया जा सकता है। वह रॉयल्टी भी तब तक दिलाई जा सकती है जब तक कि उस आविष्कारक को अपनी लागत की दुगुनी या तिगुनी कीमत न प्राप्त हो जाए। लेकिन किसी प्रथम उत्पादक को संपूर्ण विश्व के विरुद्ध ऐसा एकाधिकार देकर पूरे विश्व के असीम शोषण की छूट देना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। विशेषकर जब उसी उत्पाद या औषधि को विश्व में सैकड़ों उत्पादक व अनुसंधानकर्ता मात्र 1-3 प्रतिशत मूल्य या उससे भी कम में सुलभ करा सकें। सिप्रोलोक्सासिन पर बायर कम्पनी की पेटेंट की अवधि समाप्ति के पहले जब वह कम्पनी विश्व भर में एक आधे ग्राम की टेबलेट के 150-300 रू. तक लेती रही है। भारत में तब प्रोडक्ट पेटेंट का नियम न हो कर प्रोसेस पेटेंट का मानवोचित पेटेंट प्रावधान होने से 90 थोक दवा उत्पादक उसे 900 रू. किलो बेचते थे। उनसे सैकड़ो कम्पनियाँ उसे क्रय कर रू0 3-8 में वही आधा ग्राम (500 मिली ग्राम) की टेबलेट बेच लेती थीं। यही स्थिति 1995 के पहले की अधिकांश औषधियों के सम्बन्ध मे थी।  

निष्कर्षः कोविड-19 के टीकों व औषधियों के पेटेंट मुक्त होने पर भी इनकी उत्पादन प्रौद्योगिकी व सामग्री की सुलभता परम-आवश्यक है। अन्यथा भारत और विश्व में इनके उत्पादन में तत्पर कम्पनियों को स्व अनुसन्धान से इनके उत्पादन की प्रौद्योगिकी विकसित करनी होगी। इसमें विलम्ब होगा। ऐसी स्थिति में भारतीय व अन्य औषधि उत्पादकों को अनिवार्य अनुज्ञापन के माध्यम से ही आगे बढ़ना होगा। इस हेतु भारत में आवेदन पर तत्काल अनिवार्य अनुज्ञापन की पद्धति लागू की जा सकती है या आवेदन पर स्वतः अनिवार्य अनुज्ञापन की भी पद्धति अपनाई जाने की भी पूरी सम्भावना है। लेकिन जब तक किसी कंपनी के पास तकनीक ही नहीं है, तो अनिवार्य अनुज्ञा किसे दी जाये? इसलिए टीकों व कोरोना की सभी औषधियों के द्रुत उत्पादन के लिए सभी पेटेंटधारकों को विश्व भर में स्वेच्छिक अनुज्ञाएँ स्वीकृत कर प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण हेतु प्रेरित या बाध्य किया जाना भी आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक जनदबाव एवं विश्व व्यापार संगठन में भी प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण का एक अतिरिक्त प्रस्ताव लाना आवश्यक है। इसके साथ ही इन कम्पनियों पर इस हेतु प्रभावी जनदबाव भी अति आवश्यक है। उससे ये पेटेंटधारी कंपनियां, स्वैच्छिक अनुज्ञा देने, प्रौद्योगिकी हस्तान्तरित करने और उत्पादन सामग्री सुलभ कराने को बाध्य होगी। 

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