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मधुमक्खियों को बचाओ 

जीएम सरसों के आने से मधुमक्खी पालन उद्योग पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। — प्रो. ओ.पी. चौधरी

 

सुनहरे पीले रंग के लहलहाते सरसों और केनोला के फूलों के से मकरंद निकालती मधुमक्खियों की छवि को अलग नहीं किया जा सकता। यह अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है जो अनादिकाल से सरसों और शहद मधुमक्खियों के अनूठे और अद्भुत जुड़ाव को दर्शाता है।

धरती पर मानव जाति के प्रकट होने से पहले ही फूल वाले पौधे और कीड़े विकसित हो गए थे। मधुमक्खियां 60 से 100 मिलियन वर्ष पहले अस्तित्व में आ गई थी। पौधों ने प्रजनन का एक तंत्र विकसित किया, जिसमें परागण भी शामिल था। पृथ्वी पर फूलों और पौधों की ढाई लाख से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें अधिकांश का परागणकर्ता मधुमक्खियां ही है। फूलों, पौधों से मधुमक्खियों का अत्यंत निकट का जुड़ाव है। रंगीन फूलों में पराबैंगनी प्रकाश को प्रतिबिंबित करने की क्षमता होती है। मधुमक्खियां ऐसे प्रकाश को देखने में माहिर होती हैं। समय के साथ स्व-निषेचन को रोकने के लिए पौधों ने स्वयं को विकसित किया। पौधों ने कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, रंगीन फूलों के उत्पादन में समृद्ध पराग के लिए भारी निवेश भी किया। दूसरी ओर पशु परागणकर्ताओं ने इन पुष्प संसाधनों का उपयोग करने के लिए अपने आहार व्यवहार को संशोधित किया। कहने का आशय यह है कि मधुमक्खियां केवल मेहमान नहीं है, बल्कि अच्छी तरह से अपनाई गई सह-जीवन हैं। क्योंकि वह फूलों से एकत्रित उत्पादों के जरिए अपने बच्चों का पालन पोषण करती है और बदले में पौधों को परागण की सेवा प्रदान करती है। भारत सरसों और कनोला की अनुवांशिक विविधता से भरा हुआ क्षेत्र है। इस समूह में अनेकों जंगली प्रजातियों के अलावा पीली सरसों, भूरी सरसों, तोरिया, केरिनाटा, तारामिरा जैसी प्रजातियां भी शामिल हैं। भारतीय सरसों की प्रमुख प्रजाति ब्रासिका जांसिया मुख्य रूप से हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पूर्वी राज्यों के पश्चिम बंगाल, बिहार, असम में सर्दियों के मौसम में सीमित नमी की स्थिति में उगाई जाती है। भारत मधुमक्खियों की चार प्रसिद्ध प्रजातियों में से तीन का घर है। भारतीय छत्ता मधुमक्खी (एपी सेरेना) जो पालतू और जंगली दोनों में उपलब्ध है, दूसरा, जंगली मधुमक्खियां चट्टान या विशाल मधुमक्खी (एडोरसटा) और तीसरी छोटी मधुमक्खी एफ्लोरिया।

प्रकृति ने धीमी विकासवादी प्रक्रिया में ‘सरविवल आप द फिटेस्ट’ के सिद्धांत को लगातार अंजाम दिया है। प्रकृति से प्रेरणा लेते हुए वैज्ञानिकों ने भी बेहतर उपज और गुणवत्तापूर्ण लक्षणों वाली किस्मों का चयन करके पारंपरिक प्रजनन पद्धतियों को अपनाया। विज्ञान की तीव्र प्रगति ने पारंपरिक प्रजनन का चेहरा बदल दिया और जेनेटिक इंजीनियरिंग के हालिया दृष्टिकोण ने अनुवांशिक रूप से संशोधित जीएम फसलों के प्रजनन के लिए अंतर विशिष्ट जीन स्थानांतरण की प्रक्रिया शुरू की। जीएम फसलों को प्रमुख गेमचेंजर के रूप में पेश किया गया, लेकिन इसे लेकर दुनिया दो फाड़ में बंटी हुई है। एक, अधिक उत्पादन को लेकर इसके पक्ष में है, तो दूसरा, इसके बुरे प्रभावों के मद्देनजर विपक्ष में खड़े हैं। कपास, मक्का, सोयाबीन, बैंगन, चुकंदर, प्याज की तरह जीएम फसलों की बढ़ती सूची में अब सरसों भी शामिल है। मालूम हो कि बीटी कपास भारत में पहली जीएम फसल थी। शुरुआत में इसकी सफलता देखने को मिली पर बाद में कई कारणों से इसकी असफलता ही साबित हुई। देश में बीटी बैंगन के अवैध रोपण की भी रिपोर्ट अक्सर मिलती रहती है। स्टेट आफ जेनेटिक मैनिपुलेशन आफ क्रास प्लांट (सीजी एमपीसी) ने दिल्ली विश्वविद्यालय साउथ कैंपस द्वारा विकसित जेनेटिकली इंजिनियड मस्टर्ड हाइब्रिड डी.एम.एच.-11 के लिए वर्ष 2016 में पर्यावरण और जलवायु मंत्रालय से मंजूरी मांगी थी जिसे सार्वजनिक दबाव में टाल दिया गया था।

पोलिनेटर्स का योगदान

वर्ष 2017 में चौधरी और चांद द्वारा किए गए अनुमानों के मुताबिक भारत में मुख्य रूप से तिलहन उत्पादन में 14 फसलें विशिष्टता से शामिल है। राष्ट्रीय कृषि उत्पादन में इसका योगदान 10 प्रतिशत है जिसका कुल मूल्य 129341 करोड रुपए होता हैं। तिलहन अनिवार्य रूप से मधुमक्खियों के परागण पर निर्भर है। भारत में सरसों और केनोला का अनुमानित आर्थिक मूल्य 19356 करोड़ होता है। 34.1 प्रतिशत की औसत अनुमानित आर्थिक मूल्य सभी तिलहनों का योगदान 46993 करोड़ रुपए सालाना है। हाल ही में पर्यावरण और वन मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति ने जीएम सरसों के जैव सुरक्षा मूल्यांकन का समापन करते हुए इसके वाणिज्यक रिलीज का मार्ग प्रशस्त कर इसकी मंजूरी दे दी है। हालांकि उच्चतम न्यायालय के दखल से डीएमएच-11 की रिलीज रुकी हुई है। बी.ओलरेशिया, बी.करीनाटा, सिनॉप्सिस, अल्बा और राफानस सेटीबस में फूल आने में अमूमन 112 दिन लगते हैं, जबकि डीएमएच-11 में 58 दिन में ही आ जाते हैं। फुल आने में लगने वाले दिनों में पर्याप्त अंतर और बदलते मौसम के तहत समसामयिक फूलों की अनुपस्थिति को नकारने का प्रस्ताव किया गया है। डेवलपर्स द्वारा अन्य प्रजातियों के बीच इसके फैलने की संभावना न होने की बात वास्तव में वास्तविकता के विपरीत है, क्योंकि खेत की मौजूदा स्थितियों में कंपित बुवाई करने से बचना व्यवहारिक रूप से असंभव है।

मौसम की स्थिति, खेतों की उपलब्धता, वर्षा, अंकुरण, कीटों के कारण फसलों के विनाश आदि जैसे कई कारकों के कारण आमतौर पर तिलहन की बुवाई अक्टूबर से लेकर मध्य नवंबर के बीच होती है जिसके कारण तुल्यकालिक फूल आते हैं और जिन प्रवाह में भी काफी वृद्धि होती है। ऐसे में बोलरेसिया और अन्य तिलहनी फसलों के साथ संदूषण और फैलाव न केवल आसपास के क्षेत्र में होगा, बल्कि मधुमक्खियों की संपूर्ण फोर्जिंग रेंज भी इसके दायरे में होगी। शाकनाशी बास्टा प्रतिरोधी पौधों की उपस्थिति के कारण जीएम परागण यात्रा केवल 20 मीटर तक अनुमानित है हालांकि 3 किलोमीटर की दूरी तक हनी बी मीडिएट जिम ट्रांसफर को फैक्टर करने में विफल होगी। यहां तक कि बी.जांसिया किस्मों के साथ डीएमएच 11 की इंटर स्पेसिफिक क्लास एबिलिटी तब तक विनाशकारी साबित हो सकती है जब तक कि सुरक्षित बाड़ो में बीज उत्पादन सुनिश्चित नहीं किया जाता है, जिसकी संभावना बहुत कम है। बीज उत्पादन के दौरान दुर्घटनाओं और जानबूझकर किए गए कार्यों से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

72 घंटे तक डीएमएच 11 परागण की व्यवहारिकता दुश्वारियां को और भी बढ़ा देने का संकेत देती है जो सरसों के मौसम की समाप्ति के बाद उत्तर और मध्य भारत से वापस बिहार के पूर्वी राज्यों में आने वाली मधुमक्खियों की कालोनियों से बड़े पैमाने पर संदूषण का कारण बन सकती है। अभी 48 घंटे में पीली सरसों में फूल आ जाते हैं। इस तरह के क्रासकंट्री संदूषण अधिक मांग वाली हमारी पीली सरसों को एकदम से बर्बाद कर सकते हैं।

सुरक्षा संबंधी चिंताओं को लेकर जारी की गई हालिया रिपोर्ट में जो निष्कर्ष निकाला गया है  वह भी भ्रामक है। दस्तावेज में वर्णित खाद्य और पर्यावरण सुरक्षा मूल्यांकन में किसी भी मापने योग्य जोखिम को प्रकट नहीं किया है। नए संकरो के लिए प्रौद्योगिकी के निरंतर उपयोग के लिए कुछ रिलीज के बाद निगरानी प्रबंधन को एहतिहाती उपाय के रूप में सुझाया गया है। सुझाए गए उपायों में विशेष रूप से शहद में प्रोटीन की उपस्थिति के संबंध में तथा मधुमक्खियों के व्यवहार की निगरानी की बात शामिल है। गैर लक्षित जीवो और अंतर विशिष्ट अंतःक्रियाओं पर लगभग चुप्पी है। डीएमएच 11 के विकासकर्ताओं का यह बयान इस बात का प्रमाण है कि परीक्षण के दौरान अनिवार्य प्रोटोकाल नहीं अपनाए गए हैं और रिलीज के बाद उन्हें हटा दिया गया है जो कि अस्वीकार्य है। कीट पर जीवो और शिकारियों की कमी वाले अनिवार्य जैव सुरक्षा मूल्यांकन के लिए भी कमोबेश यही स्थिति है। ज्ञात है कि 1978 से 1983 में उत्तर-पूर्व से उत्तर भारत और 1991 से 93 के बीच दक्षिण भारत में 95 प्रतिशत तक भारतीय छत्ता मधुमक्खियों ए.सेरोना कालोनियों का तेजी से नाश कर दिया, जिसके कारण भारत में एक फलता फूलता शहद उद्योग लगभग बर्बाद हो गया। उस बर्बादी की गूंज अब भी मधुमक्खी पालन बिरादरी के कानों में गूंजती रहती है। जीएम सरसों डीएमएच 11 को पेश करने की वर्तमान पहल उन घटनाओं की गंभीर याद दिलाती है जो भविष्य में भी सामने आ सकती है। भारतीय मधुमक्खी पालन इस समय कोई और झटका सहने की स्थिति में नहीं है। अनादि काल से सरसों और मधुमक्खियों का पारस्परिक मेलजोल हाल की दुनिया और भारतीय घटनाओं में तेजी से आग फैलने और घातक कीट व बीमारियों की महामारी की एक पूर्व चेतावनी है जिसे अनावश्यक दुस्साहसों में शामिल होने से अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। यह एक ऐसी परिस्थितिक निर्मित आपदा होगी जो मधुमक्खियों के साथ-साथ मधु पालक बिरादरी को भी बर्बाद कर देगी।   (ऑर्गेनाईजर से साभार)

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