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स्व-आधारित वैचारिक अधिष्ठान

‘स्व’ का चिंतन और मनन करने से हमें स्वयं और समाज के प्रति स्वधर्म यानि अपने कर्तव्यों का ज्ञान होता है। ‘स्व’ का लक्ष्य स्वाधीन होना है अर्थात् बंधनों से मुक्ति। - डॉ. धनपत राम अग्रवाल

 

स्व-आधारित विषय पर चिंतन और लेखन एक लगातार वैचारिक मंथन की आवश्यकता को अभिभूत करता है। सर्वप्रथम तो ‘स्व’ को समझने की आवश्यकता है। हमारे यानि विश्व-ब्रह्मांड में और विशेषकर भारतवर्ष में इस ‘स्व’ के विषय में चिंतन और मनन होता आया है। ‘स्व’ के विराट और समग्र रूप में ‘स्व’ यानि अहम् की वह स्थिति जहां द्वैत न हो, यानि ‘एकम सद विप्रा बहुदा वदंति’ और इसी प्रकार अहम् ब्रह्मस्मि आदि तथा अन्य कई रूपों में इसकी अभिव्यक्ति हुई है। इसी आधार पर अद्वैत तथा अखण्ड ब्रह्मांड का चिंतन तथा फिर पारस्परिक प्रेम-अहिंसा आदि स्वाभाविक धर्म के बारे में समाज निर्माण की प्रक्रिया तथा बहुत से दर्शन शास्त्रों का उल्लेख हमें मिलता है। मनुष्य-जाति की सभ्यता और संस्कृति का परिचय भी हमें उसकी सम्वेदनशीलता से ही मिलता है और इन्हीं तत्वों के अनुसार हम आपस में दया, करुणा तथा पारस्परिक सेवा भाव को मनुष्य-जाति का धर्म बताते हैं, जिसका अधिष्ठान अहिंसा और आपसी आत्मीयता और प्रेम है। इस प्रकार एक सार्वभौमिक सत्ता की विविधता और एकता की भी बात हमें समझ में आती तो है, किंतु व्यावहारिक जगत में अपने ही पूर्व के प्रारब्ध और प्राकृतिक गुण और स्वभाव के कारण हम उसे स्वीकार नहीं करते और यहीं से विवाद के विमर्शों का जन्म होने लगता है। पारस्परिक समरसता का संवाद तो होता है, परंतु व्यवहार में विवाद आ जाता है क्योंकि अलग-अलग व्यक्ति का स्वभाव एक जैसा नहीं होता।

प्रकृति तीन गुणों से बनी है और इन तीन गुणों के आधार तथा अनुपात में अलग-अलग स्वभाव और फिर तदनुसार विचार और व्यवहार होने लगते हैं। एक व्यक्ति की विचारधारा का दूसरे की विचारधारा से टकराव प्रारंभ हो जाता है और यहां तक कि व्यक्ति के स्वयं के मन, बुद्धि और अहम् में भी टकराव होते रहता है। इस टकराव को कम करने और ख़त्म करने के लिये ही समाज का निर्माण होता है और सामाजिक नियम बनते हैं ताकि एक समुदाय में रहने वाले लोग पारस्परिक सहयोग के आधार पर अपने जीवन-शैली में कुछ अनुशासन का पालन करते हुए अपनी जीविका चलाते हैं और फिर धीरे-धीरे उनमें विकास की प्रक्रिया आरंभ होती है और सामाजिक नियम और आचरण एक विशेष धर्म या सम्प्रदाय का रूप लेने लगते हैं। समस्या तब होने लगती है जब एक सम्प्रदाय के विचार और व्यवहार में दूसरे संप्रदाय के साथ सामंजस्य में कमी आने लगती है। इसका कारण भौगोलिक दृष्टि से आवश्यकताओं और संसाधनों की असमानता भी हो सकती है, जिससे आर्थिक विषमता आने लगती है और सम्प्रदाय तथा समाज में वैषम्य और वैचारिक टकराव होने लगता है। यानि भौतिक कारणों से वैचारिक टकराव यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया सी लगाने लगती है और इसे सिर्फ़ भौतिक संसाधनों के सामाजिक न्याय के आधार पर वितरण की व्यवस्था के द्वारा कुछ समय के लिये तो मिटाया जा सकता है किंतु कुछ समय के बाद फिर से वैचारिक प्रभुता और अहमता एक टकराव का विषय बन जाती है। अहम् और अस्मिता का तालमेल बिगड़ने लगता है, जिसका समाधान भौतिक संसाधनों से नहीं, बल्कि ‘स्व’ के विस्तार से मानसिक बदलाव से ही संभव है।

‘स्व’ के व्यापक आधार पर हमें अपने स्वभाव में परिवर्तन और संयम की आवश्यकता है। हमें स्वधर्म को समझने की आवश्यकता है। हमारे अव्यक्त चेतन को जगाकर इंद्रिय और मन में संयम के द्वारा अन्य को उस एक चेतन तत्व का अविभक्त तत्व समझकर उसके साथ समरसता का व्यवहार ज़रूरी है। 

"श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्"।
स्वधर्मे निधन श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

(गीता 3/35) 

भगवान श्रीकृष्ण स्वधर्म पालन के सिद्धांत को समझते हुए अपने स्वयं के प्राकृतिक गुणों को ठीक से समझते हुए अपने कर्म को सुनिश्चित दिशा में ले जाना तथा शास्त्रों का अध्ययन एवं स्वाध्याय द्वारा शास्त्र विहित कर्म ही करना, शास्त्र-निषिद्ध कर्म नहीं करना, परहित को अपना ध्येय समझते हुए कर्म करना आदि ये कुछ ऐसे शाश्वत सत्य और शील के आधार तत्व हैं, जो हमारे वैचारिक अधिष्ठान के मूल हैं। गीता के अनुसार स्वधर्म अगर किसी कारण से किसी प्रकार से किसी प्रकार की कमी से भी ग्रसित है, तब भी दूसरे के धर्म से श्रेयस्कर है और दूसरे का धर्म कष्ट देने वाला और भयावह है। हमारे वैदिक वांगमय में धर्म को कर्म और कर्तव्य बतलाया गया है। अतः इसका अर्थ पूजा पद्धति या उपासना पद्धति से नहीं जोड़ना चाहिये। एक शिक्षक का धर्म एक व्यवसायी या एक सिपाही से अलग हो सकता है। इसी आधार पर “धर्मों रक्षति रक्षितः” यानि धर्म उसी की रक्षा करता है, जो धर्म की रक्षा करता है। अतः आज के संदर्भ में स्वदेशी को अपनाना हमारा स्वधर्म है, और इस स्वधर्म के पालन से ही हम स्वावलंबी बन सकेंगे। स्वदेशी का समग्र रूप से सत्यता के साथ पालन ही स्वधर्म है, विदेशी संस्कृति के चकाचौंध में स्वदेशी वस्तुएं देखने में थोड़ी कम आकर्षक लगें या थोड़ी त्रुटियुक्त भी हो, तो उनका व्यवहार श्रेयस्कर है। 

‘स्व’ का चिंतन और मनन करने से हमें स्वयं और समाज के प्रति स्वधर्म यानि अपने कर्तव्यों का ज्ञान होता है। ‘स्व’ का लक्ष्य स्वाधीन होना है अर्थात् बंधनों से मुक्ति। बंधन क्या है, शरीर निर्वाह से ज़्यादा भौतिक वस्तुओं का उपभोग और संग्रह। ‘तेन त्यक्तेन भूँजीथा’ का सिद्धांत हमें सिखाता है कि हम त्यागपूर्वक कम से कम वस्तुओं का उपभोग करें। त्याग किसके लिये, हमारे आस पास जो गरीब या दुर्बल व्यक्ति है उसके प्रति सहानुभूति और दया तथा करुणा का भाव यही हमारा स्वभाव होना चाहिये। हमारे स्वभाव में ज़्यादा उपभोग और संग्रह की इच्छा है तो उस पर बुद्धि और विवेक के द्वारा संयम की आवश्यकता है। यहाँ तक कि हमारे शास्त्रों में पंच यज्ञ का प्रावधान है जिसके आधार पर देव यानि सूर्य, चंद्र, वायु, अग्नि आदि देवों को अर्पण, हमारे पूर्वज जो आज इस जगत में नहीं रहे उनके लिये तर्पण, पशु-पक्षी उनके लिये भी कुछ भोजन-सामग्री का त्याग आदि हमारे उपभोग की प्रवृत्ति के नियमन के लिये ज़रूरी हैं। ऐसा करने से हम अपनी इच्छाओं की ग़ुलामी से बचेंगे और स्वाधीनता की प्रथम सीढ़ी पर पाँव रख सकेंगे। यह हमारा ‘स्व’ आधारित वैचारिक अधिष्ठान का प्रथम चरण होना चाहिये। 

हमारे जीवन व्यवहार में सत्यता और शुचिता होनी चाहिये, संतोष होना चाहिये, हम व्यभिचारी न हों, हमारे आचरण में चोरी, बेमानी न हो, ये हमारे व्यावहारिक जीवन के स्तम्भ होने चाहिये. तभी हम सही माने में स्वाधीन ही सकेंगे, नहीं तो हम स्वयं की इच्छा के बंधन में रहकर उनकी ग़ुलामी करेंगे। अर्थात् सरल भाषा में ‘स्व’ का तात्पर्य स्वाधीन, अपने आप से स्वाधीन और अपनी स्व आधारित चेतना के अनुसार विवेक पूर्वक जीवन शैली का निर्माण, यह स्व आधारित वैचारिक अधिस्ठान का दूसरा चरण। यानि अपनी आत्मा की आवाज़ को पहचानना और उसके अनुकूल आचरण करना ही हमारी स्वाधीनता का मूल है और यही हमारे स्वावलम्बन का भी मूल है। अगर हम अपनी अवश्य्क्ताओं को एक सीमा तक बांध कर रखेंगे तो स्वयं भी स्वावलंबी बनेंगे और अपने आस-पास के लोगों को भी अपने आचरण और व्यवहार के द्वारा स्वावलंबी बनाने में मदद कर सकेंगे। सभी के साधन और बुद्धि विवेक एक जैसे नहीं हो सकते, इसी लिये पारस्परिक सहयोग, समरसता की आवश्यकता है जो हमारे भीतर के सदगुणों द्वारा सम्भव है। इसी स्वाधीन और स्वावलम्बन के आचरण का नाम स्वदेशी है। प्रथम आवश्यकता स्वयं के स्वभाव में परिवर्तन और संयम के आधार पर उपभोग और फिर दूसरे के हित को ध्यान में रखकर सत्य और शील का व्यवहार। इतना हो जाने से हम स्वाभाविक रूप से अपने नज़दीक के व्यक्ति द्वारा निर्मित व्यक्ति को प्राथमिकता देंगे और यहीं से स्वदेशी भावना का निर्माण और उसका समवर्धन प्रारम्भ होता है। पहले स्वधर्म को समझना, फिर उसे आचरण में लाना और क्रमशः उस विचार का समाज में प्रचार करना, यह अगर सभी व्यक्ति करने लग जाएँगे तो सामाजिक समरसता बढ़ेगी, विचारों में टकराव घटेगा, हिंसा की प्रवृत्ति घटेगी, संवाद बढ़ेगा, समाज में अच्छे विचार बनेंगे, नई ऊर्जा और सृजन शक्ति का विकाश होगा, शोषण रुकेगा, पर्यावरण सुदृढ़ होगा और वैश्विक शान्ति और समृद्धि का मार्ग प्रतिष्ठित होगा। 

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