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उच्चतम न्यायालय और लैंगिक रूढ़िवादिता

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी की गई हैंडबुक का स्पष्ट उद्देश्य वकीलों और न्यायाधीशों को लिंग तटस्थ तथा संवेदनशील होने के लिए मार्गदर्शन करना हो सकता है, लेकिन हमें इसे सामाजिक स्तर पर बदलाव के लिए उत्प्रेरक के रूप में बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना होगा, क्योंकि ऐसी पहल पहली बार नहीं हुई है, पहले भी ऐसे प्रयास होते रहे हैं। - डॉ. जया कक्कड़

 

लैंगिक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की दिशा में उच्चतम न्यायालय ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। हालांकि भारतीय समाज में गहरे जड़ जमा चुके पितृ सत्तात्मक मूल्य इस तरह के सुधारों का अक्सर विरोध करते रहे हैं, लेकिन न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश से सकारात्मक आशा जगी है। भारत में लैंगिक भेद की स्थिति यह है कि कपड़े दोनों उतारते हैं, पर वेश्या औरत ही कही जाती है। इसी सोच को दिमाग से निकाल फेंकने के लिए अदालत ने आगे बढ़कर जो पहल की है वह निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है।

भारत की मानसिकता भक्तिपूर्ण रही है। राष्ट्रभक्ति भी देश के लोगों में कूट-कूट कर भरी है। भक्ति की यह भावना पुरुषों की तुलना में महिलाओं में कुछ अधिक ही पाई जाती है। महिलाओं के बीच एक आम राय है कि जीवन में उन्हें तय आज्ञाओं का पालन करना ही चाहिए। महिलाएं तुलनात्मक रूप से भावुक भी होती है। यही कारण है कि अधिकांश महिलाएं बच्चा पैदा करने, पुरुषों के प्रति, पतियों के प्रति आज्ञाकारी बने रहने, घर का सारा कामकाज करने, पति के साथ-साथ उनके माता-पिता की देखभाल करने जैसी अनेक चीज़ों  को जीवन में स्वाभाविक रूप से स्वीकार करती रही है। भारत में महिलाओं को पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बनाने की बात अब भी कम ही होती है। आर्थिक स्वतंत्रता, समान वेतन, समान अवसर, सम्मानजनक अस्तित्व आदि मामले में महिलाएं पुरुषों से बहुत पीछे हैं। इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 2.6 मिलियन पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या केवल 1.1 मिलियन है। आईटी और कंप्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में 5 लाख पुरुषों की तुलना में केवल 3 लाख महिलाएं शामिल है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि यह भेदभाव क्यों और कब तक?

आजादी के बाद प्रारंभ में भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 10 प्रतिशत से भी नीचे थी। वर्ष 2019 से लेकर 2021 के बीच हुई गणना में यह दर सराहनीय रूप से बढ़कर 71.5 प्रतिशत हो गई है। हालांकि यह पुरुषों के 84.6 प्रतिशत के आंकड़े से अब भी कम है। रोजगार के मोर्चे पर देखें तो महिला श्रम भागीदारी मात्र 29 प्रतिशत है। केवल 37 प्रतिशत महिलाओं के पास पैन कार्ड है, जबकि 64 प्रतिशत पुरुष पैन कार्ड धारक हैं। देश में केवल 33 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं जो इंटरनेट का इस्तेमाल करती हैं।

महिलाओं के समक्ष केवल आर्थिक असमानता की समस्या ही नहीं है, बल्कि कार्य स्थल पर उनके साथ तरह-तरह के लिंग भेद के मामले भी समय-समय पर उभर कर आते रहे हैं। वर्ष 2014 से वर्ष 2023 के दौरान यौन उत्पीड़न की शिकायतों में 70 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में अधिकांश महिलाओं के लिए लैंगिक न्याय अभी दूर की कौड़ी है। ऐसी स्थिति में सुधार के लिए उठाया गया कोई भी कदम सराहनीय है। इसलिए लैंगिक रुढिवादिता को खत्म करने के लिए उच्चतम न्यायालय की यह पहल निश्चित रूप से प्रशंसनीय है।

मालूम हो कि अमेरिका में धूम्रपान एक सामाजिक रूप से स्वीकार्य प्रथा थी। यह जानते हुए भी कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, वहां की एक सिगरेट कंपनी ने अपने विज्ञापन अभियान में महिला केंद्रित नारा गढ़ा था, “तुम बहुत आगे बढ़ चुकी हो बेबी“। तब किसी ने भी अमेरिकी सिगरेट कंपनी के द्वारा गढ़े गए बेबी शब्द पर आपत्ति नहीं जताई थी। एक दौर में भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया कहकर संबोधित किया गया था। तात्पर्य है कि महिलाओं के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले या उनके बारे में सोचे जाने वाले शब्द वास्तव में हानिकारक है, उन्हें बदलने की जरूरत है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज में व्याप्त लैंगिक दृष्टिकोण को भी बदलना होगा। समस्या केवल शब्द नहीं है बल्कि व्यक्ति की मानसिकता और सोच है। यह समस्या तब और बड़ी दिखने लगती है जब कोई न्यायाधीश पीड़ित को बलात्कारियों के साथ शादी रचाने अथवा पत्नियों द्वारा घरेलू देवताओं के अपमान को तलाक के आधार के रूप में देखने लगते हैं। एक नागरिक के रूप में बेटियां आज भी सुरक्षात्मक चारदिवारी के बाहर हैं। इसलिए भी महिलाओं को और अधिक स्वायत्तता और समानता की आवश्यकता है। सदियों से लिंग भेद का शिकार होती आ रही एक बड़ी आबादी को अब खुलकर अपनी प्रतिभा दिखाने, स्पष्ट रूप से अपनी बात रखने तथा समाज में समानता के आधार पर आगे बढ़ाने की मानसिकता की जरूरत है।

इसी के मद्देनजर उच्चतम न्यायालय ने लिंग के आधार पर रूढ़िवादिता का मुकाबला करने वाली एक पुस्तिका जारी कर महत्वपूर्ण कदम उठाया है। लिंग के बीच असमानताओं को बढ़ाने वाली रूढ़िवादिता को दूर करने का निर्देश दिया है। न्यायालय ने महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध प्रचलित शब्दों के लिए वैकल्पिक शब्द और वाक्यांश भी पेश किए हैं। दिशा निर्देश के मुताबिक एक महिला शरीर व्यभिचारणी नहीं, बल्कि विवाहेत्तर यौन संबंध में संलग्न है। इसी तरह के अनेक शब्द जो महिलाओं के प्रति हीन दृष्टि पैदा करते हैं, उन शब्दों से दूरी बनाने के निर्देश दिए गए हैं। भेदभाव की धारणाओं को खत्म करने की विधि के रूप में इसे प्रस्तुत किया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में फिर कभी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय जैसा और कोई फैसला अदालत की ओर से भविष्य में नहीं आएगा, जिसमें यौन उत्पीड़न के आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाने और उसकी रक्षा करने का वचन देने के लिए कहा गया था।

उच्चतम न्यायालय का सुझाव बिल्कुल सही है कि समाज को सामाजिक वास्तविकताओं और महिलाओं के सामने आने वाली अन्य चुनौतियों को गंभीरता से लेना चाहिए। इस बात पर भी जोर दिया गया है कि यह मान लेना गलत है कि महिलाएं स्वाभाविक रूप से भावुक अतार्किक तथा निर्णय लेने में अक्षम होती हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में एक लड़की को सामाजिक जरूरत के नाम पर शादी के लिए मजबूर किया जाता रहा है। ऐसी स्थितियों से महिलाएं खुद अपना विकास कर बाहर निकल सकती हैं। शैक्षिक और वित्तीय आधार को मजबूत कर वे न सिर्फ अपना भविष्य संवार सकती हैं, बल्कि अन्य महिलाओं के भी हालत बदलने में सहयोग कर सकती है।

लैंगिक असमानता तथा समाज में व्याप्त रूढ़िवादी शब्दों को सदा-सदा के लिए खत्म करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने पहल की है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी की गई हैंडबुक का स्पष्ट उद्देश्य वकीलों और न्यायाधीशों को लिंग तटस्थ तथा संवेदनशील होने के लिए मार्गदर्शन करना हो सकता है, लेकिन हमें इसे सामाजिक स्तर पर बदलाव के लिए उत्प्रेरक के रूप में बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना होगा, क्योंकि ऐसी पहल पहली बार नहीं हुई है, पहले भी ऐसे प्रयास होते रहे हैं।

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