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अर्थव्यवस्था में छलांगः विनिर्माण से बनेगा, भारत तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था

सरकार अगर सही नीतिगत ढांचा अपनाती है तो इसमें कोई दोराय नहीं कि भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। भारत में इसके लिए आवश्यक दक्षता और कार्य कुषलता भी है। - के.के. श्रीवास्तव

 

वर्ष 2014 में दुनिया के पैमाने पर भारत की अर्थव्यवस्था 10वें पायदान पर थी, सफलता की लगातार सीढ़ियां चढ़ते हुए अब भारत पांचवी अर्थव्यवस्था बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्ष 2027 तक देष को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प दोहरा चुके हैं। एसबीआई अनुसंधान के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में में हर दो साल में 0.75 ट्रिलियन डॉलर जुड़ने की संभावना है। मार्च 2023 तक भारत की वास्तविक जीडीपी के अनमानो को देखकर यह सहज ही कहा जा सकता है कि वर्ष 2047तक भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 20 लाख डॉलर तक पहुंच सकता है। 2027 तक जीडीपी में भारत की वैश्विक हिस्सेदारी 4 प्रतिषत का आंकड़ा पार कर जाएगी। इसके लिए भारत को रुपए के संदर्भ में लगभग 11.5 प्रतिषत प्रति वर्ष की दर से बढ़ने की जरूरत है। फिलहाल सकल घरेलू उत्पाद में वार्षिक 6.5 से लेकर 7 प्रतिषत की वास्तविक वृद्धि के साथ यह लक्षय निष्चित रुप से संभव है।

हालांकि कोविड महामारी के कारण उपजी प्रतिकूलताओं के चलते सापेक्ष सफलता के बावजूद वर्ष 2004 से 2014 की अवधि की तुलना में वर्ष 2014 से 2023 के बीच भारत के विकास की गति धीमी रही है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है की रैंक 10 से रैंक 5 तक की यात्रा अपेक्षाकृत आसान थी, क्योंकि इन रैंकों को रखने वाले देषों की जीडीपी भारत के जीडीपी के आसपास थी। अब तीसरे रैंक और उसके पहले के दो रैको के बीच अंतर बहुत अधिक है। वर्ष 2027 में भारत की जीडीपी चीन की जीडीपी का पांचवा हिस्सा और अमेरिका का छठवां हिस्सा से भी थोड़ा कम होगी। वर्तमान में चीन की जीडीपी  20 ट्रीलियन डॉलर और अमेरिका की 26 ट्रिलियन डॉलर है। कहा जाता है कि आर्थिक विकास की उच्च दर और परिणामी आर्थिक आकार बेहतर चीजों के अवसर प्रदान करते हैं। यह सच है कि 1980 के दषक के बाद से 4 दषकां की तेज वृद्धि के परिणाम ने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है और सरकार घरेलू बाजार के आकार को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग करने के लायक बनाया है।

अनुचित राजकोषीय नीति से बचते हुए तथा व्यापक आर्थिक स्थिरता से समझौता किए बिना आर्थिक विकास की निरंतरता सुनिष्चित करने के लिए मोदी सरकार की सराहना की जानी चाहिए। इन नीतियों ने भारत की विकास गाथा के लिए स्थायीत्व के आयाम सुनिष्चित किए हैं। बावजूद हमें इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि यदि उचित सुधार पेष किए जाएं तो भारत की संभावित वास्तविक जीडीपी दर प्रतिवर्ष 7 से 8 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ सकती है अगर ऐसा होता है तो एक दषक के भीतर हमारी अर्थव्यवस्था का आकार अपने आप दुगना हो जाएगा। चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से पहले से ही पांच गुनी बड़ी है ऐसे में प्रतिवर्ष 8 प्रतिशत से कम की टिकाऊ आर्थिक वृद्धि दर के लिए किसी भी मोर्चे पर समझौता करने से भारत के समक्ष मुंह बाए खड़ी रोजगार की गंभीर चुनौती को हल करने में कोई विषेष मदद नहीं मिलेगी। लेकिन अगर भारत क्षमता को वास्तव में बदलना चाहता है तो 8 प्रतिशत वार्षिक विधि दर को आगे रखकर नीतियां बनानी होगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर हम छलांग लगाकर आर्थिक लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं तो इसका रास्ता क्या होगा? इस प्रष्न का उत्तर विनिर्माण क्षेत्र में हिस्सेदारी बढ़ाने से सहज ही प्राप्त होता है। 

कहा जाता है कि हार्ड पावर के बिना सॉफ्ट पावर अच्छा नहीं होता। भारत के विदेष मंत्री एस. जयषंकर के मुताबिक हार्ड पावर का मतलब औद्योगिक और तकनीकी ताकत है। हालांकि सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र में भारत की हिस्सेदारी अब भी 15 प्रतिशत बनी हुई है। लेकिन पिछले दो दषकों में मुख्य रूप से चीन से होने वाले आयात के कारण भारत एक तरह से वि-औद्योगीकरण की राह पर चल पड़ा है। हम अपनी विनिर्माण क्षमता को साकार करने में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि हमारे शासकों में दक्षता से अधिक समानता को प्राथमिकता देने का निर्णय कर लिया है। हमारी नीतियों के ठीक विपरीत चीन ने दक्षता हासिल करने का जुनून दिखाया है। 1948 में ही भारतीय संसद ने श्रम के पक्ष में श्रम कानून पारित किए थे। स्मरण रहे कि तब पष्चिम के देषों में भी इस तरह के कानून मौजूद नहीं थे। 

वर्ष 1950 के दषक के उत्तरार्ध से वित्तीय क्षेत्र को इक्विटी विचारों द्वारा शासित करने की मांग की गई थी। 2011 आते-आते सरकार ने भूमि अधिग्रहण बेहद मंहगा कर दिया। इस प्रकार उत्पादन के सभी तीन प्रमुख कारक भूमि, श्रम और पूंजी भारत में महंगे हो गए और उन तक पहुंच कठिन हो गई। एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा की कहावत को चरितार्थ करते हुए इन कठिनाइयों के साथ अत्यधिक भ्रष्ट और फालतू के नियम से बंधे निचले स्तर की नौकरषाही द्वारा नियंत्रित एक घुटन भरी नियामक व्यवस्था की बेड़ियां विकास के लिए बाधा बन गई। 

आजादी के बाद से कई दषकों तक ऐसे राजनीतिक दल थे जो निर्माण इकाइयां स्थापित करने की इच्छुक निवेषकों से अपने लिए कुछ अतिरिक्त पाउंड की आषा रखते थे।

केंद्र की वर्तमान सरकार ने इन मुद्दों को हल करने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत की है। फालतू के नियमों के अनुपालन का बोझ कम कर दिया है। बाजार के लिए पूंजी को सस्ता कर दिया है। सरकार ने श्रम संगठन के माध्यम से श्रम बाजार को भी ढ़ीला करने का प्रयास किया है लेकिन अधिकांष राज्य सरकारों ने बाधा उत्पन्न की है तथा नियमों को लागू करने में हीला-हवाली भी की है। श्रम राज्य का विषय है। केंद्र सरकार की कोषिषों के बावजूद भी भूमि अधिग्रहण अभी बहुत महंगा सौदा बना हुआ है। आखिर बिना जमीन के कोई भी विनिर्माण इकाई कैसे स्थापित हो सकती है।

कुल मिलाकर भारत में विनिर्माण उन अधिकांष देषों की तुलना में लगभग 33 प्रतिशत अधिक महंगा है जो निवेष आकर्षित करने के लिए भारत के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। इसीलिए भारत में बनाने की तुलना में आयात कर लेना सस्ता है। देष के भीतर नियमों की अनदेखी के कारण भारत ने विदेषों में अधिक कुषल उत्पादकों के साथ विदेषी व्यापार समझौता किया। इससे आयात और सेकेंडरी असेंबली सस्ती हो गई। इस नीति के चलते ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को भी धक्का पहुंचा है। व्यापार व्यवस्था के असंगत होने के कारण ही पूर्व में पष्चिमी विनिर्माण चीन के तरफ झुक गया था। ऐसे में अगर हम सात आठ प्रतिषत की दर से बढ़ना चाहते हैं तो एक क्षेत्र के रूप में विनिर्माण क्षेत्र में छलांग लगाने की जरूरत है। अनुभव यह भी बताता है कि हमेषा कुछ प्रमुख खिलाड़ी मौजूद होते हैं जो व्यापक क्षेत्र में रास्ता तैयार करते हैं। भारत को इस प्रतियोगिता से आगे बढ़कर सोचना होगा।

1980 के दषक में भारत में आर्थिक विकास दर बढ़कर लगभग 5.5 प्रतिशत हो गयी थी, जो 1970 के संकटग्रस्त दषक में मात्र 2.5 प्रतिशत पर थी। यही वह दौर था जब भारत में मध्यवर्ग का जन्म हुआ। इससे विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता वस्तु, उपयोगी सामग्री और टिकाऊ वस्तुओं की मांग पैदा हुई। लाभार्थी ऑटोमोबाइल उद्योग था, क्योंकि तब दो पहिया वाहनों और छोटी कारों की बहुत मांग थी। इंजीनियरिंग कार्यबल सहित इन्फोटेक के क्षेत्र में बूम देखा गया था। दूसरी ओर पेटेंट व्यवस्था में अनुकूल बदलाव तथा प्रतिबंधात्मक व्यापार नीतियों के कारण फार्मा उद्योग, सस्ते जेनेरिक की पेषकष करके अमेरिकी बाजार में गहराई तक प्रवेष कर गया। ऑटोमोबाइल, फार्मा और इन्फोटेक ने मिलकर निर्यात को बढ़ावा दिया। विमानन, वित्त, बैंकिंग जैसे सहायक उद्योगों का समर्थन मिला।

लेकिन समय के साथ इन क्षेत्रों ने विभिन्न कारणों से अपनी गति खो दी।खराब उद्योग प्रथाओं और नियामक विफलताओं के कारण फार्मा उद्योग को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इन्फोटेक अब एक परिपक्व क्षेत्र बन गया है। कोविड महामारी के कारण उपभोक्ता मांग स्थिर हो गई है। पिछले दषक में माल निर्यात का प्रदर्षन बहुत अच्छा नहीं रहा है क्योंकि हमारे पास वियतनाम और बांग्लादेष जैसे प्रतिनिधियों की तुलना में प्रतिस्पर्धी विनिर्माण आधार की कमी है।

निष्चित रूप से सरकार ने विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया है। माना जाता है कि प्रारंभिक मेक इन इंडिया अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही है। अब सरकार ने ट्रैक बदलने का फैसला किया है। उसने इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र पर विषेष जोर देने के साथ निवेष और उत्पादन दोनों के लिए वित्तीय प्रोत्साहन देने का फैसला किया है। इसके साथ ही भौतिक बुनियादी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेष द्वारा विकास इंजन को चालू रखा गया है जिसने बदले में, धातु, सीमेंट जैसे सहयोगी उद्योगों में बड़े निजी निवेष को बढ़ावा दिया है। अंतत धीमी विश्व अर्थव्यवस्था में भारत आसानी से विदेषी पूंजी के प्रवाह की उम्मीद कर सकता है। सरकार अगर सही नीतिगत ढांचा अपनाती है तो इसमें कोई दोराय नहीं कि भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। भारत में इसके लिए आवष्यक दक्षता और कार्य कुषलता भी है। 

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