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परीक्षण पर पारंपरिक चिकित्सा

पारंपरिक चिकित्सा और घरेलू उपचार ज्ञान पर आधारित है। वैज्ञानिकता के विपरीत आस्था और पीढ़ी दर पीढ़ी आजमाए जाने से मिली सफलता ही इसके समर्थन का मुख्य आधार है।  — डॉ. जया कक्कड़

 

भारत में सदियों से पारंपरिक चिकित्सा प्रचलित है। छोटी-बड़ी हर बीमारी में लोग पारंपरिक औषधियों और घरेलू नुस्खों का खूब प्रयोग करते हैं। कोरोना काल के दौरान भी वैज्ञानिक तरीके से जिन लोगों ने पारंपरिक जड़ी बूटियों का सेवन किया, उन्हें इसका फायदा हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो उसके 194 सदस्य देशों में से 170 देशों के लगभग 80 प्रतिशत लोग पारंपरिक दवा का उपयोग करते हैं। लेकिन उनके पास पारंपरिक चिकित्सा उत्पादों और प्रथाओं पर विश्वसनीय सबूत और डाटा नहीं है, जिसके बिना नीति निर्माण और इन पारंपरिक दवाओं का अपने स्वास्थ्य प्रणालियों में एकीकरण  संभव नहीं है। इसी गरज से पारंपरिक औषधियों और नुस्खों को वैज्ञानिक और व्यवहारिक ढ़ंग से आगे बढ़ाने के लिए गुजरात प्रदेश के जामनगर में सेंटर फॉर ट्रेडीशनल मेडिसिन जीसीटीएम के नाम से एक केंद्र स्थापित किया गया है। यह केंद्र आवश्यक शोध सर्वेक्षण के साथ स्वास्थ्य प्रणालियों में एकीकरण तथा सकारात्मक नीति निर्माण कर पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को दुनिया के देशों के बीच ले जाने का काम करेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत अपनी स्वदेशी ज्ञान परंपरा और पारंपरिक दवा कौशल के जरिए स्वास्थ्य को बनाए रखने, शारीरिक और मानसिक बीमारी को रोकने के लिए आयुर्वेद, सिद्ध, योग, एक्युप्रेशर के साथ-साथ हर्बल मिश्रण, होम्योपैथी और यूनानी के जरिए प्राचीन काल से स्वास्थ्य की देखरेख करता रहा है। यह अलग बात है कि आयुर्वेद और योग का प्रसार देश और दुनिया भर में बढ़ा है, लेकिन अन्य प्रचलित पद्धतियां कतिपय कारणों से पीछे रह गई है। जीसीटीएम के द्वारा इन्हें भी बढ़ावा मिलेगा।

आज की तारीख में पारंपरिक दवाओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों और नीतियों में एकीकृत नहीं किया गया है। मान्यता प्राप्त कोई पाठ्यक्रम भी नहीं है। उल्लेखनीय है कि लगभग 40 प्रतिशत अनुमोदित फार्मा उत्पाद प्राकृतिक पदार्थों से ही प्राप्त होते हैं। ऐसे में हमें जैव विविधता और अपनी टिकाऊ प्रथाओं पर अधिक भरोसा करने की जरूरत है। पारंपरिक दवाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए उनकी प्रभावशीलता का वैज्ञानिक परीक्षण और सत्यापन किए जाने की आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी और तकनीक का अधिकाधिक उपयोग कर पारंपरिक दवाओं को और अधिक विश्वसनीय बनाने की भी आवश्यकता है।

कोरोना महामारी के दौरान देश-दुनिया की अग्रणी दवा कंपनियों ने सैकड़ों तरह के प्राकृतिक और हर्बल उत्पाद लांच किए। हालांकि कोरोना के गुजर जाने के बाद इन आयुर्वेदिक उत्पादों की हिस्सेदारी या तो स्थिर हो गई अथवा घट गई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक आयुष बाजार, जिसमें आयुर्वेद योग, युनानी सिद्धा और होम्योपैथी शामिल है, के  2021-22 में बढ़कर 20.6 बिलियन डालर होने का अनुमान है। 2020 के दौरान यह 18 बिलियन डालर था। आज दुनिया भर में लोगों का आयुर्वेद में विश्वास बढ़ा है। कोरोना की महामारी ने इस विश्वास को और मजबूती दी है।

पारंपरिक चिकित्सा और घरेलू उपचार ज्ञान पर आधारित है। वैज्ञानिकता के विपरीत आस्था और पीढ़ी दर पीढ़ी आजमाए जाने से मिली सफलता ही इसके समर्थन का मुख्य आधार है। हालांकि हमेशा लाभ कमाने के फिराक में रहने वाले बाजार के चलते इसके अनियंत्रित होने का अंदेशा भी है। वहीं कई बार चिकित्सक के गलत ज्ञान के कारण दवा के सही होने पर भी उपयोगकर्ता रोगी के लिए संदेहजनक हो सकता है। जीसीटीएम के जरिए इसमें बदलाव आएगा। यह केंद्र चार क्षेत्रों पर काम करेगा। पहला, सर्वेक्षण करना और सीखना, दूसरा प्रयोग और अधिक तेज परीक्षण के लिए एक डाटा और विश्लेषण का प्रयोजन, तीसरा पर्यावरणीय पदचिन्ह और स्थिरता को ध्यान में रखते हुए और चौथा नवाचार और प्रौद्योगिकी को अपनाना। एक बार जब पारंपरिक दवा वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर साक्ष्य आधारित हो जाती है तो उसे आधुनिक दवा के समान ही माना जाएगा।

एक उपयुक्त स्वास्थ्य प्रणाली का लक्ष्य केवल इलाज करना नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे स्वास्थ्य और स्वास्थ्य को बनाए रखने, बीमारी को रोकने और इसका निदान तथा उपचार सबसे प्रभावी तरीके से करने की दिशा में काम करना चाहिए। प्रणाली की प्रभावशीलता को समय और उपचार की लागत, दुष्प्रभाव को कम करने, आदि के संदर्भ में मापने की जरूरत है। साथ ही स्वास्थ्य प्रणाली की सार्वभौमिक पहुंच और स्वीकार्यता भी होनी चाहिए। यह पूरा विचार आधुनिक दवा को पारंपरिक दवा से बदलने का नहीं है। अपितु पारंपरिक चिकित्सा को एकीकृत करके संपूर्ण स्वास्थ्य प्रणाली का अनुकूलन करना, जिसका भारत में वैसे भी बहुत मजबूत आधार रहा है ताकि सर्वोत्तम समाधान खोजा जा सके। मालूम हो कि आयुर्वेद भारत में पैदा हुआ है। यूनानी एक मध्य एशियाई आयात था। जबकि होम्योपैथी एक जर्मन चिकित्सक द्वारा विकसित की गई थी। सिद्ध का आधार काफी हद तक दक्षिण भारत से है। वास्तव में पूरी आबादी के पास अपनी स्वास्थ्य संरक्षण के लिए विकल्प होने ही चाहिए।

ऐसे में सबसे जरूरी यह है कि पारंपरिक भारतीय चिकित्सा को वैश्विक मानकों को पूरा करना चाहिए। यह पहली जरूरत है क्योंकि बहुत सारे संशय वादी हैं, जो पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली को केवल फर्जीवाड़ा और धोखाधड़ी से जोड़ने का काम करते हैं। कई बार स्थापित और बड़े पारंपरिक दवा निर्माता लाइलाज बीमारियों की ढेर सारी दवाएं लाते हैं। कामयाब न होने पर उन पर जांचें बैठती हैं लेकिन वे जांच से अक्सर बच जाते हैं। वही उनकी दवाएं इतनी महंगी है कि भारत जैसे देश के हर व्यक्ति के पहुंच से वह बाहर है।

भारतीय जनता पार्टी जिस  व्यापक सामाजिक सांस्कृतिक एजेंडा के साथ सत्ता में आई है, उसमें हमारे प्राचीन गौरवशाली हिस्से को फिर से स्थापित करना भी शामिल है। चाहे वह प्राचीन वैज्ञानिक ज्ञान हो, वैदिक गणित हो, समृद्ध ऐतिहासिक परंपराएं हो या योग। सत्ता के केंद्र में आने के तुरंत बाद वर्ष 2014 में भाजपा सरकार ने आयुष मंत्रालय स्थापित करने का फैसला किया। यह एक प्रशंसनीय कदम था लेकिन पारंपरिक चिकित्सा को बढ़ावा देने के नाम पर हमें आंख भी नहीं मुदनी चाहिए। आज पारंपरिक चिकित्सा के क्षेत्र में न तो कोई सामान मानक है और न ही प्रभावी निगरानी तंत्र। यही कारण है कि इसमें धोखाधड़ी और नीम हकीमी व्यापक रूप से फैली हुई है। आयुर्वेदिक दवाओं और उत्पादों में हानिकारक मिश्रण आएगा और धातुओं का उपयोग भी शामिल है। यहां तक कि सरकार भी आयुर्वेदिक और जो प्रथाओं को तमाम तरह के आवश्यक प्रोटोकॉल की अनदेखी कर बढ़ावा देने में अति उत्साही रही है। नवीनतम मामला हल्के कोविड रोगियों के लिए स्पर्शोन्मुख  का है। भारतीय चिकित्सा संघ ने किसी भी वैज्ञानिक प्रमाण की अनुपलब्धता पर आपत्ति जताई है। इन सब पर नियंत्रण होना चाहिए।

ऐसे में जीएसटीएम की स्थापना एक अच्छी पहल है लेकिन इसके साथ-साथ झोलाछाप प्रथाओं को कम करने, मरीज को एक विश्वसनीय कम लागत वाली, साइड इफेक्ट से मुक्त विकल्प प्रदान करने तथा गरीब रोगी को बहुराष्ट्रीय ड्रग माफिया कंपनियों की मुनाफाखोरी के चंगुल से मुक्त करने में मदद करनी चाहिए।       

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