swadeshi jagran manch logo

यूसीसीः सभी के लिए नागरिक उपचार

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने फैसलों में समान नागरिक संहिता के विचार को समर्थन दिया लेकिन न्यायालय बार-बार यह भी कहता रहा है कि यूसीसी केवल तभी प्रभावी हो सकता है जब सारे राजनीतिक दल और राजनेता अपने व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर समाज में समानतापूर्ण परिवर्तन स्वीकार करेंगे। — डॉ. जया कक्कड़

 

समान नागरिक संहिता की अवधारणा पर भारत में दषकों से बहस चल रही है। कुछ राजनितिक दलों के अनुसार यह समानता और पंथनिरपेक्षता को बढावा देगा वहीं विरोधियों का तर्क है कि यह धार्मिक स्वतंत्रता एवम सांस्कृतिक अभ्यासों में हस्तक्षेप करेगा। समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य के नीति निर्देषक तत्व में किया गया है। इसके अनुसार राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिष्चित करने का प्रयास करेगा।

कोई भी समझदार व्यक्ति इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि भारत जैसे विविधता पूर्ण देष में समान नागरिक संहिता का होना अनिवार्य है ताकि एक सभ्य नागरिक समाज में विवाह तलाक संपत्ति में अधिकार विरासत गोद लेने जैसे गंभीर विषयों पर बिना किसी धार्मिक जातिगत भेदभाव के समान कानून बन सके। परंतु भारत में विभिन्न समुदायों के हित एवं विचारों की बहुलता के कारण यूसीसी आज तक लागू नहीं हो पाया। भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी वादों में तीन प्रमुख वादे किए थे, जैसे राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को निरस्त करना और समान नागरिक संहिता। भारतीय जनता पार्टी  दो वादे अब तक पूरा कर चुकी है और अब अपने तीसरे वादे को कानूनी रूप देने की तैयारी में जुटी है, किंतु इसी बीच कुछ राजनीतिक दल और लोग इसका विरोध कर रहे हैं कि बहुसंख्यक समाज बनाने की तैयारी है जिसमें अल्पसंख्यकों के हितों को खतरा होगा और धार्मिक समुदायों के रीति रिवाज और उनकी पहचान नष्ट हो जाएगी। लेकिन यह आरोप पूरी तरह गलत और पथ भ्रमित है।

संविधान के अनुसार हमारा भारत एक धर्मनिरपेक्ष देष है, इसलिए समान नागरिक संहिता का इस देष में लागू होना जरूरी है, ताकि सभी धार्मिक समूहों के व्यक्तिगत कानून को एक समान तरीके से नियंत्रित किया जा सके। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1950 में हिंदू पर्सनल लॉ में सुधार किया था क्योंकि संविधान सभा में भी इस बात पर बहस हुई थी कि व्यक्तिगत कानूनों में कमियां है, जिससे समानता और न्याय जैसे सिद्धांत की अवहेलना होती है। इसलिए समान नागरिक संहिता को उसी समय पूरे देष में लागू करने की दिषा में काम करना चाहिए था परंतु यह काम आजादी के इतने सालों बाद मोदी सरकार के नेतृत्व में किया जा रहा है और इस फैसले का हमें स्वागत करना चाहिए।

आज भारत में खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले अधिकांष राजनीतिक दल इस मुद्दे से अपना पाला छुड़ा रहे हैं और भरपूर विरोध कर रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां अल्पसंख्यक वर्गों को खुष करने और मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करती आई है। ऐसे में जो मुसलमान अपने पारंपरिक कानूनों में बदलाव करना भी चाहते हैं उनकी मांगों को भी यह पार्टियां नकारती हैं ताकि कट्टर मौलवियों द्वारा मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति चलती रहे। हालांकि इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान मुस्लिम महिलाओं का ही होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देष है, जो किसी भी प्रकार के धार्मिक भेदभाव की अनुमति नहीं देता। ऐसे में समान नागरिक संहिता की मांग और प्रबल हो जाती है। 

बीते दिनों उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता पर गठित कमेटी ने राज्य के लिए यूसीसी के मसौदे को सार्वजनिक कर दिया। इस ड्राफ्ट को तैयार करने के लिए अन्य देषों में बने पारिवारिक कानूनों पर भी अध्ययन किया गया है। मसौदा समिति की प्रमुख न्यायमूर्ति रंजना देसाई के अनुसार यह राज्य में धर्मनिरपेक्ष के सिद्धांत को मजबूत करेगा इस मसौदे में लड़कियों के लिए विवाह योग्य आयु बढ़ाने, लिव इन रिलेषनषिप को वैध बनाने, विरासत संबंधी कानून ,बहुविवाह और बहुपति जैसी प्रथा पर रोक लगाने के प्रस्ताव शामिल हैं। बहुत सारे प्रस्तावों जैसे लड़कियों के विवाह योग्य आयु बढ़ाने का उद्देष्य महिला के अधिकारों को संरक्षित करेगा और नारी सषक्तिकरण को सुनिष्चित करेगा। बहुत सारे धार्मिक प्रथाओं के रुढ़िवादी अभ्यासकर्ता इसको गलत कहेंगे ताकि महिलाओं की प्रगति को रोका जा सके। धार्मिक आस्था के नाम पर ऐसे लोग कमजोर वर्गों के विकास पर अपनी नाराजगी जताएंगे लेकिन हमें समझना होगा कि अनुच्छेद 44 को असल मायने में लागू करने का समय आ गया है। हमें इसका पूरे दिल से समर्थन करना चाहिए। परंतु इस गंभीर विषय पर तर्कसंगत चर्चा की भी जरूरत है ताकि यूसीसी का राजनीतिकरण न हो।

यूसीसी के खिलाफ यह तर्क दिया जाता है कि इससे पारंपरिक मान्यताओं को त्यागना पड़ेगा, लेकिन बहुत विडंबना है कि हम उन सभी प्रथा का पालन क्यों करें जो असल मायने में अमानवीय है और क्रूरता से भरी है। जैसे हिंदुओ में (सती प्रथा कन्या भ्रुण हत्या आदि) इसी तरह मध्यकाल तक सरिया व्यक्तिगत कानून और मुसलमानों के अपराधिक कानून दोनों को नियंत्रित करता था। इस कानून के तहत चोरी की सजा, चोर की उंगलियां काटने की थी, और व्यभिचार के लिए किसी व्यक्ति को पत्थर मारकर मौत की सजा  दी जाती  थी । आज हम एक सभ्य समाज में रहते हैं जहां सबके लिए एक समान अपराधिक कानून है जहां ऐसी बर्बर प्रथाओं को कोई स्थान नहीं है। हम क्यों नहीं सब घृणित परंपराओं का त्यागकर देते और एक समान नागरिक संहिता का समर्थन करते जो प्रत्येक जीवित प्राणी पुरुष महिला या किसी भी यौन अभिविन्यास और किसी भी धर्म के लिए उच्च, समान उपचार सुनिष्चित करती है?

यूसीसी की बहस का एक लंबा इतिहास है लेकिन इसका मूल सिर्फ इतना है कि किसी भी देष में सभी नागरिकों को शासित करने के लिए एक ही नागरिक संहिता हो जैसे भारत में सभी नागरिक एक ही अपराधिक संहिता द्वारा शासित होते हैं।

1950 के दषक के मध्य में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने विवाह, तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार के हिंदू कानूनों में बदलाव किए लेकिन वह अन्य धार्मिक कानूनों में समान सुधार नहीं ला पाई। इसकी प्रमुख वजह मुस्लिम वोटों को संरक्षित करना था। बाद में यह कहकर यूसीसी को टाला गया कि भारत अपने अल्पसंख्यकों के प्रति जिम्मेवार है और बहुसंख्यकवादी राज्य नहीं बनना चाहता। लेकिन सवाल यह है कि आज दुनिया में बहुत सारे देष है (जैसे- ब्रिटेन, अमेरिका आदि) जहां रहने वाले लाखों मुसलमान समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं और अलग व्यक्तिगत कानून के लिए आंदोलन नहीं करते तो भारत में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं? हमारा संविधान जाति लिंग धर्म और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। ऐसे में सिर्फ यूसीसी ही असल मायने में सभी हिंदू मुस्लिम सिख इसाई पारसी की धार्मिक भेदभाव वाली प्रथाओं का अंत कर सकता है। गोवा की आजादी से पहले वहां पुर्तगालियों का शासन था जिसने सत्ता में रहते हुए पुर्तगाली कोड लागू किया था जो एक समान नागरिक संहिता है। यदि उस समय मुसलमानों ने विरासत और संपत्ति के अधिकार में ऐसे कानूनों को स्वीकार कर लिया तो आज भारत के अन्य राज्यों में क्यों नहीं कर सकते?

हमें यह समझना होगा कि यूसीसी सिर्फ मुसलमानों को प्रभावित नहीं करता बल्कि इसका असर हिंदू बहुसंख्यक और अन्य सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप से पड़ेगा परंतु हमारा लक्ष्य लैंगिक समानता और न्याय सुनिष्चित करना है। इसलिए हमें उन सभी प्रथाओं का त्याग करना होगा जो भेदभाव पूर्ण है और सदियों से हमारी धार्मिक परंपराओं में मौजूद है। वर्तमान में दो कारकों ने यूसीसी को राजनीतिक रंग दे दिया है। पहला हिंदुत्व की राजनीति के साथ भाजपा का जुड़ाव और रूढ़िवादी मुस्लिम समुदायों में सुधार के प्रति विरोध। लेकिन यह एक गंभीर विषय है जिसके कई संवैधानिक, कानूनी, सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव होंगे जो सभी नागरिकों को प्रभावित करेंगे। अब स्थिति यह है कि बैल को उसके सींग से पकड़ना होगा, कोई और विकल्प नहीं है। अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निर्देषक तत्व के रूप में हमारे लिए एक प्रेरणा है कि समाज में नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। यह हमारे संविधान निर्माता द्वारा हमारे लिए एक मार्गदर्षक है जिसे लागू करना राज्य के हाथ में है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने फैसलों में समान नागरिक संहिता के विचार को समर्थन दिया लेकिन न्यायालय बार-बार यह भी कहता रहा है कि यूसीसी केवल तभी प्रभावी हो सकता है जब सारे राजनीतिक दल और राजनेता अपने व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर समाज में समानतापूर्ण परिवर्तन स्वीकार करेंगे।     

Share This

Click to Subscribe