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चीन की बढ़ती मुसीबतें

चीन एक तरफ घरेलू स्तर पर विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ विश्व मंच पर तकनीकी प्रतिबंध और पश्चिमी दुनिया के साथ शीत युद्ध की समस्याओं का सामना कर रहा है। भारत के लिए यह एक मौका जैसा है। - के.के. श्रीवास्तव

 

पश्चिम के निर्यातक देशों के मुंह में पानी ला देने वाली अर्थव्यवस्था के बावजूद चीन इन दिनों घरेलू स्तर पर जनसंख्यिकी, ऋण, सामाजिक अशांति, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच अस्थिर सहजीवी संबंध, विकास बनाम सामानता के मसलों पर, तो विश्व मंच पर तकनीकी प्रबंध, चीन प्लस वन की नीति, पश्चिमी दुनिया के साथ शीत युद्ध जैसी समस्याओं का सामना कर रहा है।

पिछले चार दशकों के दौरान राष्ट्रों के समूह के बीच चीन राजनीतिक और आर्थिक रूप से अद्वितीय पैमाने पर विकास किया है। राज्य द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों और विवेकपूर्ण निर्णय ने चीन की अर्थव्यवस्था को तीव्र गति देने और उसके दीर्घकालिक प्रगति में योगदान दिया है। हालांकि अब विकास की गति थोड़ी लड़खड़ा रही है तो दुनिया भर की निगाहें इस बात का अंदाजा लगाने में जुटी हुई है कि आय के जाल में चीन क्यों फंसता जा रहा है? प्रश्न यह भी उठ रहा है कि क्या चीन अपनी गति फिर से हासिल कर पाएगा? यदि हां, तो कैसे?

30 वर्षों से अधिक के समय तक चीनी मॉडल ने चीन में उच्च आर्थिक विकास, शहरीकरण और गरीबी में कमी लाने में सफलता प्राप्त की है। लेकिन इस दौरान बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय गिरावट, भ्रष्टाचार, बढ़ती  असमानताएं, भारी कर्ज का बोझ, युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर नागरिक आवाज भी उठाते रहे हैं। हाल ही में कई स्थानों पर शांत विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं। दरअसल चीन की अर्थव्यवस्था का यह पेंचोखम एक तरफ निर्यात अधिशेष पैदा करने तो दूसरी ओर पूंजी निर्माण के हित में घरेलू उपयोगकर्ताओं की खपत को जानबूझकर दबा देने से उभरा है। वर्ष 2007 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने कहा था कि इस नीति से अर्थव्यवस्था अस्थिर, असंतुलित, असंगठित हो गई है। तब चीन ने इस पर गंभीरता से ध्यान देने का फैसला भी किया था। उदाहरण के लिए चीन ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित किया। व्यवस्था के मुताबिक यहां या तो कोई देश बुनियादी विज्ञान और मूलभूत प्रौद्योगिकियों में सफलता हासिल कर सकता है या दूसरे तरीके से यह मौजूदा प्रौद्योगिकियों को बेहतर अनुप्रयोगों के लिए अनुकूलित कर सकता है। चीन ने दूसरा रास्ता अपनाया और कथित तौर पर कभी-कभी दूसरे देश से तकनीक भी चुरा ली। इसी का परिणाम है कि 25 सबसे मूल्यवान प्रौद्योगिकी कंपनियों में से चीन आज 9 का मालिक है। हरित ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों जैसे उभरते क्षेत्रों में खूब हाथ पांव मारे हैं, लेकिन चीन का नकारात्मक पक्ष यह रहा है कि उसने विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए संसाधनों, धन और मानव को तैनात किया है, लेकिन वैज्ञानिक, रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए कभी भी किसी संस्थागत बुनियादी ढांचे का निर्माण नहीं किया है। जैसे कि वहां की शिक्षा प्रणाली ने छात्रों में मौलिक सोच पैदा करने की बजाय रटने की शिक्षा को बढ़ावा दिया है। इसी तरह अनुसंधान निकायों में बहुत अधिक स्वायत्तता का हमेशा अभाव रहा है। चीनी वैज्ञानिक कभी भी वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय का हिस्सा नहीं बने और भाईचारे के स्तर पर भी विचारों का कभी आदान-प्रदान नहीं किया। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि यह साम्यवादी शासन के सामान्य रूप से दूसरी दुनिया और विशेष रूप से पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास के कारण भी हो सकता है।

दूसरी और इसकी बंद प्रणाली के कारण चीन का वित्तीय क्षेत्र (इक्विटी और बांड बाजार) अविकसित है। वित्तीय मध्यस्थों सहित बहुत कम स्वतंत्र बाजार के खिलाड़ी वहां हैं। यहां भी विदेशी संस्थानों पर अत्यधिक अविश्वास किया जाता है। लेकिन इसके दो झटके लगे, एक- चीन एक जीवंत और अच्छी तरह से विनियमित शेयर बाजार के माध्यम से अपने विकास के लिए धन जुटाना में सक्षम नहीं है और दो- भले ही चीन विश्व व्यापार में काफी महत्व रखता है लेकिन इसकी मुद्रा पर्याप्त कठोर नहीं है। यह विश्व व्यापार और वाणिज्य मंच पर कोई अनुपातिक भूमिका नहीं निभाता है। वित्तीय प्रणाली की यह कमजोरी फिर से कम्युनिस्ट पार्टी के खुले बाजार प्रणाली के प्रति अविश्वास से उत्पन्न होती है जो संभवत एक ओर संभावित अशांति का कारण बन सकती है तो दूसरी ओर सिस्टम पर पार्टी की पकड़ को भी खो सकती है। हालांकि कोई भी निजी क्षेत्र के प्रति पार्टी के विश्वास आदि के अन्य उदाहरण दे सकता है लेकिन मूल विचार स्पष्ट है अब समय आ गया है कि पार्टी राजनीतिक शक्ति के प्रयोग से उत्पन्न होने वाले अवसरों और इसमें शामिल जोखिमों का आकलन करें। विरोधाभासी रूप से यह प्रणाली विश्वास व्यवस्था और राजनीति पर हावी होना चाहती है पर एक सीमा के बाद वैश्विक व्यवस्था के साथ एकीकृत होने की मंशा नहीं रखती।

इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन विश्व मंच पर एक बहुत प्रभावशाली और महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला खिलाड़ी है और शायद इसीलिए इसकी समस्याएं एक अकेली नहीं है। ऐसे में चीन चाह कर भी 180 डिग्री का मोड़ नहीं ले सकता और न ही उसे पश्चिमी आर्थिक विकास मॉडल के साथ काम करने से उसका हित सधेगा, चीन को रुकने और एक नई प्ले बुक डिजाइन करने की जरूरत है। उल्लेखनीय है कि वैश्विक गांव की अवधारणा को अब धीरे-धीरे त्याग दिया जा रहा है। भारत सहित दुनिया के कई देश अपनी औद्योगिक नीतियों में आत्मनिर्भरता को फिर से डिजाइन कर रहे हैं और बाजारों के मुक्त खेल पर आर्थिक नियंत्रण को प्राथमिकता दे रहे हैं। यह सब उनके विषयों के कल्याण को सुनिश्चित करने और  लक्षित गति से आर्थिक विकास को प्राप्त करने के लिए है।

भू राजनीतिक उथल-पुथल के बीच (रूस यूक्रेन युद्ध, इसराइल हमास संघर्ष) जलवायु परिवर्तन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी विघटनकारी प्रौद्योगिकियों के आने के बाद समाजवाद/साम्यवाद की ओर वापसी अब न तो संभव है और नहीं वांछनीय ही। ऐसे में चीन को दुनिया को यह समझाने की जरूरत है कि वह आर्थिक राजनीतिक या अन्य तरह से आधिपत्य जमा कर अन्य देशों के लिए कोई खतरा नहीं है। यह ठीक है कि चीन वैश्विक नेतृत्व की छवि हासिल करने की अपनी महत्वाकांक्षा को कभी छुपाता नहीं है लेकिन बूढ़े होते चीन को आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि बहुत कम वास्तविक मजदूरी पर श्रम बल की तीव्र आपूर्ति अब पहले की तरह उपलब्ध नहीं होगी। पूर्व की तरह आगे चीन की विकास दर 8 से 10 प्रतिशत के आसपास नहीं होगी। इसके माध्यम आय के जाल में फंसने की संभावना अधिक है। समस्याओं को और बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारी ऋण और कारपोरेट ऋण दोनों मौजूद हैं जो वित्तीय स्थिरता और आर्थिक विकास दोनों पर एक साथ प्रतिकूल प्रभाव छोड़ते हैं।

लेकिन यह मसला केवल घरेलू स्तर पर चीनी अर्थव्यवस्था की गति खोने तक ही सीमित नहीं है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका सहित कई अन्य देश खुलेआम चीन के साथ शत्रुतापूर्ण हो रहे हैं। इसका एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण पश्चिमी विश्व द्वारा अपनाई गई चीन प्लस वन नीति है दूसरा है प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में असहयोग। उदाहरण के लिए वर्ष 2018 के दौरान वालमार्ट का 80 प्रतिशत शिपमेंट चीन से आया, लेकिन जनवरी-अगस्त 2023 की अवधि के लिए यह आंकड़ा घटकर केवल 60 प्रतिशत रह गया है। वॉलमार्ट और अन्य पश्चिमी कंपनियों का चीन से दूर जाना एक ओर बढ़ते राजनीतिक तनाव तो दूसरी ओर चीन से बढ़ती आयात लागत के कारण भी है। हालांकि भारत की तरह अमेरिका भी अंतिम माल और आपूर्ति श्रृंखला व्यवस्था के हिस्से के रूप में चीन से एक महत्वपूर्ण आयातक देश बना हुआ है, क्योंकि फ्रेंड सॉरिंग आयात के सस्ते स्त्रोत का कोई विकल्प नहीं है।

फिर भी अमेरिका चीन को निशाने पर रखे हुए हैं। अमेरिका अर्ध चालकों और उच्च तकनीक बौद्धिक संपदा तक चीन की पहुंच को काफी हद तक प्रतिबंधित करना चाहता है। यदि इसे सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया गया तो यह चीन की तकनीकी प्रगति में बाधा ही खड़ा करेगा। चीन भी होशियारी से चिप बनाने में उपयोगी खनिजों की आपूर्ति तक पहुंच हासिल करने की कोशिश कर रहा है।

कुल मिलाकर चीन एक तरफ घरेलू स्तर पर विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ विश्व मंच पर तकनीकी प्रतिबंध और पश्चिमी दुनिया के साथ शीत युद्ध की समस्याओं का सामना कर रहा है। भारत के लिए यह एक मौका जैसा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी दुनिया चीन से अलग हो सकती है। हमें यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि चीन एक कम से कम लागत वाला निर्यातक देश है। चीन की अर्थव्यवस्था पश्चिमी निर्यातकों के लिए मुंह में पानी ला देने वाली अर्थव्यवस्था है। इसलिए भारत को अपना आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए सावधानी से चलने की जरूरत है।           

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