मानव के कुकर्मों के कारण ही पर्यावरण का राक्षसीपन है। तो इसे अपने पक्ष में करना भी हमारी जिम्मेदारी है! — के.के. श्रीवास्तव
पर्यावरण संबंधी चिंताओं को दरकिनार कर धड़ल्ले से चल रहे औद्योगीकरण, शहरीकरण और भौतिक विकास के कारण वातावरण में हानिकारक जहरीले तत्व के उत्सर्जन से धरती तेजी से गर्म हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग और उसके फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन हाल के दिनों में सबसे अधिक चिंता का सबब बन गया है। हममें से कोई भी (उपभोक्ता, व्यवसाय और औद्योगिक अर्थव्यवस्था) इस भयावह तबाही में योगदान करने की जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकता है, क्योंकि हम खतरनाक दर से प्रकृति का दोहन और विनाश कर रहे हैं। दूसरी ओर शासक वर्ग सहित संबंधित हितधारकों द्वारा पर्यावरण के संरक्षक के रूप में कार्य करने के प्रयास ना के बराबर है।
अत्यधिक खपत, जनसंख्या दबाव, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने मानव कल्याण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। यदि पर्यावरण का शोषण इसी तरह अनियंत्रित रहता है तो यह जीवन और आजीविका को बनाए रखने वाली प्रणालियों को कमजोर कर देगा और भारत जैसे विकासशील देशों के लिए जीवन स्तर में सुधार के प्रयासों को पटरी से उतार देगा। वर्ल्ड वाइल्ड फोरम (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ.) के अनुसार सन 1970 से 2016 के बीच जानवरों की आबादी में 68 प्रतिशत की गिरावट आई है। संयुक्त राष्ट्र संघ वैश्विक जैव विविधता दृष्टिकोण-5 ने चेतावनी दी है कि विश्व, वन्य जीव और पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश को धीमा करने के लिए 2010 में निर्धारित सभी 20 लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहा। इस अस्थिर, अनिश्चित जटिल और अस्पष्ट दुनिया में हमें सतत विकास करने की जरूरत है और इस विकास के लिए हमें प्रकृति के अनुरूप नए प्रतिमान गढ़ने की जरूरत है। प्रकृति की महत्ता को नजरअंदाज कर बदलाव की कोशिश हमें पेरिस जलवायु लक्ष्यों और 2015 के सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयासों को कमजोर कर देगी।
भारत जैसे विकासशील देशों में विकास घाटा है और इसे पाटने के लिए आर्थिक विकास को बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन विकास योजनाओं में प्रकृति को मुख्यधारा में लाना चाहिए। जैव विविधता की हानि से अपूरणीय क्षति होती है, जैसे कम परागढ़ से पैदावार कम हो जाती है और जंगली आग जो समुदाय को दुर्लभ सुंदर रचनाओं के विलुप्त होने के लिए तबाह कर देती है। यदि हम रसायनों को विनियमित नहीं करते, विषाक्त पदार्थों को समाप्त नहीं करते हैं तो ग्रह कोई सार्थक विराम नहीं ले सकता। निरंतर बढ़ती उपभोग की वर्तमान दर से विनाश का डर निराधार नहीं हो सकता है, पर आइए इसका सामना करते हैं।
आधुनिक लिंगों में एक शब्द है - ‘ओक’, जो ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, टिकाऊ उत्पादन, खपत सहित सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूक होने का उल्लेख करता है। आम धारणा के विपरीत भारत तथाकथित विकसित पश्चिम की दुनिया से संरचनात्मक रूप से अधिक जागृत है। पश्चिमी देश बताते हैं कि भारत प्रदूषित है जबकि वास्तविकता यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन मात्र 1.8 प्रतिशत टन है जो वैश्विक औसत 4.7 टन से कम है और अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया की तुलना में तो बहुत ही कम है। अमेरिका प्रति व्यक्ति 16.2 टन और आस्ट्रेलिया 16.9 टन यानी 8 गुना से अधिक प्रदूषित करता है। भारत में कम कार्बन उत्सर्जन के लिए कम मोटरीकरण दर को चिन्हित किया जा सकता है। भारत में प्रति एक हजार की जनसंख्या पर 18 है, जबकि यूरोपीय संघ के लिए 206 और अमेरिका के लिए 747 है। मीथेन पैदा करने वाला मांसाहारी सामान की खपत भी भारत में कम है क्योंकि भारत स्वाभाविक रूप से जागृत आहार वाला देश है। 172 देषों की सूची में सिर्फ 18 में वार्षिक प्रति व्यक्ति मांस की खपत 90 किलोग्राम से अधिक है जबकि भारतीय खपत उसके 20वें हिस्से से भी कम है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत बहुत कम प्रदूषण करता है। अधिक मितव्ययी रूप से उपभोग करता है और सबसे अधिक की तुलना में अधिक स्थाई रूप से रहने में विश्वास रखता है। लेकिन यह आत्म संतुष्ट और आत्ममुग्ध होने वाली बात नहीं है। जलवायु के मुद्दे ने हमें महामारी की तरह मारा है। वाह्यताओं के कारण किसी को भी नहीं बख्शा गया है। क्योंकि हमें अन्य राष्ट्रों से अलग करने वाली कोई कृत्रिम रूप से खींची गई सीमाएं नहीं है, इसलिए भारत भी 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य तय कर भौतिक संपदा के मामले में तेजी से प्रगति करने का प्रयास कर रहा है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। औद्योगीकरण के कारण पर्यावरण, पृथ्वी ग्रह और व्यवसाय की सुरक्षा के साथ-साथ स्थिरता भी संकट में है। दरअसल मानव प्रगति तीन भुजाओं वाले त्रिभुज की तरह है। लोग, ग्रह और लाभ हानि यानि थ्री पी (पीपल, प्लेनेट, प्रॉफिट)। यदि हम त्रिभुज का आकार बढ़ाना चाहते हैं तो त्रिभुज की सभी भुजाओं को एक साथ लंबा करने से ही परिणाम प्राप्त होगा। ऐसे में केवल अधिक लाभ निचोड़ने की कोशिश होगी तो निश्चित रूप से मानव संसाधन और पृथ्वी ग्रह के लिए उसका प्रभाव बुरा ही होगा। हालांकि कोई माकूल विकल्प नहीं है, लेकिन दुविधा वास्तविक है।
भारत ने 2015 से 2019 के बीच जीवाश्म ईंधन उद्योग में 4 प्रतिशत प्रदूषकों की कमी की, जबकि जी-20 के देश अपनी प्रतिबद्धताओं पर खरे नहीं उतर रहे। जी-20 में 2019 में जीवाश्म ईंधन के लिए 636 बिलियन डॉलर प्रदान किए। हालांकि एक विपरीत तथ्य है कि हमारे पास अभी 66 कोयला संचालित संयंत्र है। यह भी सच है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है, लेकिन तथ्य यह है कि हमें विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए निश्चित रूप से सस्ती और विश्वसनीय बिजली की आवश्यकता है। सबसे पहले तो भारत को 80 करोड लोगों को स्वच्छ खाना पकाने की ऊर्जा और 20 करोड लोगों को बिजली उपलब्ध कराने की। दूसरा, शहरी परिवर्तन के लिए बड़ी ऊर्जा की जरूरत है और तीसरा हमें अधिक संख्या में रोजगार सृजित करने हैं। इसीलिए हमें ऊर्जा की जरूरत है। इसी तरह भारत प्रतिदिन 15000 टन प्लास्टिक का त्याग करता है, जिसमें 43 प्रतिशत एकल उपयोग वाला है। यह एक भयावह खतरा है। प्लास्टिक, एलुमिनियम, स्टील, जूट ने अब प्राकृतिक रेशों की जगह ले ली है, लेकिन यह पुनर्चक्रण उद्देश्यों के लिए स्थापित अपशिष्ट संग्रह प्रणाली से परे है और लंबे अरसे से पृथ्वी और महासागर की सतह पर तैर रहा है। इसका क्या विकल्प होगा? निश्चित रूप से स्पष्ट नहीं है।
ऐसा नहीं है कि औद्योगिक प्रगति से समझौता किए बिना पर्यावरणीय क्षति को नियंत्रित करने के लिए निवारक कदम उठाना संभव नहीं है लेकिन मानवीय जड़ता और उदासीनता के कारण यह कार्यवाही में तब्दील नहीं होता है। सवाल है कि आतंकवाद की तुलना में मानव ने पर्यावरण के नुकसान के बारे में सचेत होकर तत्काल क्यों नहीं सोचता है। ऐसा इसलिए ह,ै क्योंकि सामाजिक स्तनधारियों के रूप में हम केवल जीवित प्राणियों और उनके बुरे डिजाइनों के बारे में सोचते हैं, यदि एक निर्दयी तानाशाह द्वारा हम पर ग्लोबल वार्मिंग थोपी गई होती तो हम तत्काल चिंतित होते। दूसरा यदि कोई उल्लंघन नैतिक सीमाओं का उल्लंघन करने में विफल रहता तो वह मस्तिक को सचेत नहीं कर सकता। वायुमंडलीय रसायन विज्ञान के बारे में किसी भी मानव समाज के पास नैतिक संहिता नहीं है और तीसरा, हम स्पष्ट और समकालीन हमले के बारे में चिंतित होते हैं न कि किसी ऐसी चीज के लिए जो हमारी दृष्टि में नहीं है। यह खतरा अभी भी दूर के भविष्य में कहीं छुपा हुआ है और कुछ नकली पर्यावरणविद् भी है जो इससे आंखें चुराने का मौका प्रदान करते हैं।
ऐसे में जब तक हम खुद को हरित उपभोक्ताओं में परिवर्तित नहीं करेंगे तब तक व्यवसाय खुद को ढालने के लिए दबाव महसूस नहीं करेगा। यह तभी संभव है जब हम व्यवसायिक प्रथाओं को हरा-भरा करने के लिए बात करें। हमें सक्रिय हरित बनने की आवश्यकता फिर हमें बाजार को यह बताने की जरूरत है कि हम पर्यावरण के अनुकूल है। वैकल्पिक उत्पादों के संबंध में क्या चाहते हैं और किस मूल्य पर चाहते हैं। इन उत्तरों के आधार पर विपणक को सामग्री के उपयोग, स्काउंटिंग सेवाओं और स्वयं विपणन में नवाचार के माध्यम से बेहतर व्यवसायिक प्रथाओं को विकसित करने की आवश्यकता है। ग्राहक अतरगंता और प्रतिस्पर्धात्मक लाभ को नए रणनीतिक ढांचे से देखने की जरूरत है। ताकि उपभोक्ताओं के बदले हुए खरीदारी पैटर्न पर जलवायु के प्रभाव को शामिल किया जा सके। क्योंकि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उत्पादों के उत्पादन और उपभोग के तरीकों को बदलने में उत्पादकों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। संक्षेप में कंपनियों को यह महसूस करना चाहिए कि लंबे समय में स्थिरता तभी संभव है जब वह ग्रह की जरूरतों के प्रति संवेदनशील हो। जिम्मेदार उपभोक्ता, व्यापार, प्रक्रिया, उत्पाद, सरकार की नीतियां और आवश्यक कार्यवाही एक साथ स्थिरता सुनिश्चित कर सकते हैं।
लेखक एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और प्रबंधन विचारक हैं।