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‘जय-अनुसंधान’ः आत्मनिर्भरता का सुघर सारथी

प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप में संदेश दिया कि आत्मनिर्भर भारत के लिए प्रौद्योगिकी विज्ञान, अनुसंधान एवं नवोन्मेष के सतत् संप्रेषण की नीतियों को आगे करना होगा, ताकि देश रफ्तार के साथ आगे बढ़ सके। — अनिल तिवारी

 

अन्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था - ‘जय जवान, जय किसान’। पोखरण विस्फोट से दुनिया को चकित करने वाले वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने इस नारे में ‘जय विज्ञान जोड़ा’। अब देश जब आजादी के अमृत काल में प्रवेश कर रहा है तो लाल किले की प्राचीर से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस नारे को और थोड़ा विस्तार देते हुए इसमें ‘जय अनुसंधान’ जोड़ दिया है। अब मुकम्मल नारा है, ‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान और जय अनुसंधान’। उम्मीद की जा रही है कि अमृत काल में अगले 25 वर्षों के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान से जुड़ी ठोस उपलब्धियां धरातल पर दिखाई पड़ेगी।

भारत के बृहत बाजार की आवश्यकताओं के मद्देनजर निजी विनिर्माण उद्योग में भी शोध के प्रोत्साहन सरकार की दूरगामी पहल है, जो भविष्य की संभावनाओं का सृजनकर्त्ता सिद्ध हो सकती है। वर्तमान कर कानून सीएसआर के तहत अनुसंधान के क्षेत्र में भी निवेश पर अब भारी छूट की सकारात्मक नीति अपना रहे हैं। इस दिशा में नए-नए शोध बिंदुओं का सृजन अनुसंधान के दायरे को और अधिक बढ़ाएगा। स्वदेशी तकनीक आधारित निर्माण उद्योग को तीव्र गति देने के लिए वृहद परियोजनाओं के तहत देशभर में कई अनुसंधान एवं विकास निर्यात केंद्र सृजित किए जाने की योजना अपने आपमें एक अनूठी पहल है।

आजादी के बाद पहली बार लालकिला से स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगे को आधिकारिक रूप से स्वदेशी तोपों द्वारा सलामी दी गई। देसी तोपों की गड़गड़ाहट के बीच प्रधानमंत्री ने ‘जय-अनुसंधान’ के नारे का आह्वान किया। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट रूप में संदेश दिया कि आत्मनिर्भर भारत के लिए प्रौद्योगिकी विज्ञान, अनुसंधान एवं नवोन्मेष के सतत् संप्रेषण की नीतियों को आगे करना होगा, ताकि देश रफ्तार के साथ आगे बढ़ सके।

मालूम हो कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने अनुसंधान एवं विकास को सकल घरेलू उत्पादन का कम से कम 2 प्रतिशत तक बढ़ाने की सलाह दी है। अगर ऐसा होता है तो भविष्य में न केवल विदेशी निर्यात धीरे-धीरे कम होगा, अतीत के वर्षों से चले आ रहे असंतुलन को भी संतुलित किया जा सकेगा। एक तरफ भारत विश्व में विदेशों से रक्षा संयत्र करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया है, वहीं अनुसंधान मद पर खर्च करने में विश्व के निम्नतम पायदान के देशों में अभी शुमार है। तकनीक के युग में भारत में अनुसंधान पर जीडीपी का मात्र 0.6 प्रतिशत ही खर्च हो रहा है, जोकि अफ्रीका से भी कम है। नतीजा यह है कि 140 करोड़ का सामर्थ्यवान भारत रक्षा के क्षेत्र में ही नहीं अपितु अन्य क्षेत्रों में भी विदेशी तकनीकी का उपभोक्ता बनकर रह गया है। यह और भी पीड़ादायी तब हो जाता है जब स्वदेशी प्रतिभा को खरिजकर विदेशी तकनीकी के वर्चस्व का शिकंजा देश के बाजारों को अपने पाले में करता जा रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि स्वतंत्रता मिलने के बाद से ही भारतीय तकनीकी की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता सबसे ऊंची रही है। आज इसका उदाहरण है - भारतीय यूपीआई, जो वर्तमान में दुनिया के वित्तीय डिजिटल लेनदेन का 40 प्रतिशत तक का भागीदार बन गया है। वहीं भारत जैसे देश की भूमिका संस्थाओं की चुनौती को स्वीकारते हुए देसी दूरसंचार को 5जी के युग में प्रवेश करवाने के लिए इसरो द्वारा निर्मित स्वदेशी संस्थानों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। इसका वाणिज्य, अंतरिक्ष, वर्तमान में शोध के व्यवसायीकरण एवं निजी क्षेत्र के बीच समन्वय का सार्थक उदाहरण है। वहीं डीआरडीओ, जिसकी भारत में 50 से अधिक प्रयोगशालाएं हैं, ने कहीं न कहीं शिक्षा एवं निजी क्षेत्र में न्यूनतम भागीदारी का खामियाजा उठाया है। इसी कारण सरकार सजग है कि अमेरिकी और इजराइली तकनीकी के उपहार को केवल सरकारी तंत्र तक सीमित न रखें, बल्कि निजी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।

देश में अभी भी सटीक तकनीकी परामर्श, संसाधनों का अभाव जैसी समस्याएं खड़ी होती रही हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहायता प्लेटफार्म बहुत कारगर है, पर इन्हें प्राप्त करने के लिए हमें वैश्विक मानकों पर खरा उतरने की जरूरत होगी। इसके लिए भारतीय शोधार्थियों और प्रयोगशालाओं को भी अपनी कमर कसनी होगी। वास्तव में इसके लिए प्रारंभिक स्तर से ही विद्यार्थियों को शोध उन्मुख शिक्षण के प्रति जागरूकता के साथ आगे ले जाना होगा। इस दिशा में एनसीईआरटी के सजग प्रयासों से पाठ्यक्रम को विचार संगत बनाने के लिए भरसक प्रयत्न किए गए हैं, परंतु शिक्षा के व्यवसायीकरण की दौड़ में शैक्षिक अनुसंधान, शीघ्र परिणाम देने की होड़, पारस्परिक प्रतिस्पर्धा के चलते कहीं न कहीं शोधोन्मुक्त प्रतिभा की अनदेखी के मामले भी बहुत देखें जाते रहे हैं। देश के आईआईटी संस्थानों ने शोध व ज्ञान की समग्रता का सटीक उदाहरण पेश किया है। विभिन्न क्षेत्रों में नई तकनीक विकसित करने के कई कीर्तिमान स्थापित किए, परंतु यह दुर्भाग्य भी जुड़ा हुआ है कि प्रतिभा पलायन के संकट से हम सर्वदा घिरे रहे।

भारत के हर क्षेत्र में पारंपरिक अनुसंधान मुख्य रूप से विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग विश्वविद्यालय अनुसंधान परिषद सीएसआईआर आईसीएआर आज केंद्रीय संस्थानों की निगरानी में चलाए जा रहे हैं, परंतु इनमें भी पारस्परिक समन्वय के अभाव के कारण योजनाओं के दोहराव की प्रवृत्ति, शोध प्राथमिकताओं का भटकाव, फंड का दुरुपयोग, आवंटन की अनियमितताएं, योग्य शोधार्थियों की अनदेखी, मौलिकता का अभाव जैसी चुनौतियां दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई हैं। इन्हीं मूलभूत समस्याओं के निराकरण के लिए ‘नई शिक्षा नीति 2020’7 के तहत एनआरएस नेशनल रिसर्च फाउंडेशन का गठन आशा की किरण जैसा है, जो देश में स्वतंत्र रूप से विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट शोधकर्ताओं के मार्गदर्शन में गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान को विकसित करेगा और उनकी प्रगति का मूल्यांकन भी करेगा। इसका काम भारत में अनुसंधान की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए शिक्षा तंत्र के साथ सामंजस्य को बढ़ाना भी होगा ताकि भारत में शोधार्थियों की संख्या को एक निश्चित मानक तक ले जाया जा सके। ज्ञात हो कि देश में वर्तमान में शोधकर्ताओं की संख्या प्रति 10 लाख पर केवल 200 के आस-पास ही है, जो वर्तमान में अमेरिका के 4000 के आंकड़े के समक्ष नगण्य है।

आवश्यक कोष के आभाव में ढेर सारे क्षेत्र अनुसंधान की दृष्टि से अछूते ही रह जाते हैं, जिन क्षेत्रों में अपार संभावनाएं छिपी हुई है, वहां काम करने को लेकर हिचकिचाहट बरकरार है। दुर्लभ खनिजों की खोज देश की काया पलट सकते हैं लेकिन अभी हमारे पास इसकी कोई सटीक जानकारी के लिए कोई शोधपूर्ण अध्ययन नहीं हुआ है। इसी तरह जैव प्रौद्योगिकी चिकित्सा एवं कृषि में भी भारतीय जीवन शैली आधारित शोध बिंदुओं के प्रोत्साहन से स्वदेश निर्मित उत्पाद मानव जीवन की गुणवत्ता को किफायती दरों पर उपलब्ध करा सकते हैं। इसे लेकर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के संस्थान पूर्वानुमान एवं मूल्यांकन परिषद टाइफेक ने एक दृष्टि पत्र जारी कर नई तकनीकी को भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रारूप प्रस्तुत किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मंत्रालय द्वारा अनुसंधान की दिशा में उठाया गया यह कदम अमृत काल के लिए वांछित लक्ष्य के प्राप्ति की दिशा में एक गुणात्मक परिणाम देने वाला कदम साबित हो सकता है।         

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