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क्रांतिकारी विचारों का न्यासी, एक सन्यासी

यह भारत की महानता ही है कि लगभग एक हजार वर्षों की गुलामी और रक्तपात के बाद भी हमने दुनिया को यूनिवर्सल ब्रदरहुड का संदेश दिया और अभी भी इस विचार को हम लगातार बढ़ावा दे रहे हैं।  — सतीश कुमार

 

उपनिवेशवादी दौर और मानसिकता के इतिहास लेखन में भले भारत को औघडों और सपेरों का देश कहकर मजाक उड़ाया जाता रहा हो, पर भारत को बगैर ऋषि और कृषि परंपरा के ज्ञान के समझना मुष्किल है। मिथकों, स्मृतियों, किवदंतियों के बाहर शंकराचार्य, गौतम बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद की एक लंबी परंपरा है, जो भारतीय मूल्य अध्यात्म, संस्कृति और ज्ञान की जड़ों को पुष्ट करते रहे हैं।

मौजूदा दौर युवा जुनून और उसकी तकनीक तथा प्रबंधकीय मेधा का है। भारतीय युवाओं की उपलब्धियां ग्लोबली सराही जा रही हैं, स्वीकारी जा रही हैं। बावजूद इसके देश के समय, समाज और परिवेश को बदलने में उनका कोई बड़ा क्रांतिकारी अवदान सामने नहीं आ पा रहा है। इसके उलट चिंता जताई जा रही है कि देश काल और अपने मूल्य बोध को लेकर नई पीढ़ी खासी लापरवाह हो रही है। ऐसे में स्वामी विवेकानंद के विषाल जीवन, अनुभव और अल्प आयु में किए गए बेषुमार कृतित्व के आलोक में एक अचरजकारी सवाल जरूर उठता है कि आखिर उन्होंने इतना सबकुछ और इतनी छोटी आयु मात्र 39 साल के जीवन खंड में वह कैसे कर सके थे, तो सहज ही उत्तर मिलता है कि यह हमारे प्रेम, सह अस्तित्व और आध्यात्मिक ऊर्जा के उन आदर्षों को दुनिया के सामने लाना था जो कि प्राचीन काल से हमारी विरासत रही है।

अगर हम भारत के गौरवषाली अतीत की ओर देखें और कुछ पवित्र आत्माओं को याद करें जिनके काम के चलते आज हम सुखपूर्वक हैं और जिन्होंने भारत के संदेष और दर्षन से दुनिया को रूबरू कराया, वह भी उस दौर में जब भारत बर्बर लोगों के सैकड़ों वर्ष की गुलामी के कारण अपना विश्वास और आत्मविश्वास लगभग खो दिया था तथा आर्थिक रूप से विपन्न हुई देष की जनता अपने पूर्वजों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को भूल गई थी और हर छोटी बड़ी बात में पष्चिम का अंधानुकरण ही सर्वोत्तम मानक माना जाने लगा था। ठीक उसी समय एक विषुद्ध भारतीय आध्यात्मिकता से लबरेज खाटी सन्यासी अपने देष से सहस्त्रों मील दूर अकेला शब्द के माध्यम से बिना अपने देष के किसी प्रकार का समर्थन पाए भारत माता के सम्मान की रक्षा करता रहा और जो लोग वेदांत की शब्दावली से भी परिचित नहीं थे उन्हें वेदांत का ज्ञान देकर उन्हें अध्यात्म का अनुभव करा रहा था। उस महान व्यक्तित्व का नाम था, परिचय था, ‘क्रांतिकारी विचारों का न्यासी एक सन्यासी स्वामी विवेकानंद’।

कर्म योगी स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1963 को हुआ था। भारत में इस दिन को हर साल राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि स्वामी जी को युवाओं में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। स्वामी जी ने अपने 39 साल के जीवन काल में जो काम किया वह इतिहास के पन्नों में सोने के अक्षरों में दर्ज है, जो सदियों तक याद किया जाएगा। एक मौके पर स्वामी जी को याद करते हुए बाबा साहब अंबेडकर ने कहा, हाल की शदियों में भारत में पैदा हुए सबसे महान व्यक्तित्व स्वामी विवेकानंद हैं।

सन्यासी बनने से पहले उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्ता था और सभी उन्हें बचपन में नरेन कहकर बुलाते थे। बचपन में नटखट बच्चा होने के नाते नरेन अपनी पढ़ाई में, संगीत में, गायन में, जिम में, खेल में, बहुत बुद्धिमान थे। बहुत कम उम्र में उन्होंने सभी रामायण और महाभारत की कहानियों को याद कर लिया था। अपनी हाजिर जवाबी और बुद्धिमता के कारण वह स्कूल में सभी के बीच प्रसिद्ध थे। एक बार उनके स्कूल के प्रिंसिपल ने कहा था कि वह जीवन में अपने जीवन को अद्वितीय बनाने के लिए बाध्य हैं। विद्यार्थी नरेंद्र कॉलेज के दिनों में ही भगवान के अस्तित्व के बारे में विचार करना शुरू कर दिया था। वह हर संप्रदाय के विभिन्न धार्मिक नेताओं से उनकी जिज्ञासा के बारे में उनके विश्वास के बारे में पूछते रहते थे। नरेन की जिज्ञासा ने ही उन्हें दक्षिणेश्वर जाने के लिए प्रेरित किया, जहां एक महान संत श्री रामकृष्ण परमहंस रहते थे। श्री रामकृष्ण ने उनकी जिज्ञासाओं का समाधान किया और कई सवालों और जिज्ञासाओं के बाद नरेन ने उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। सन 1886 में रामकृष्ण परमहंस की गले के कैंसर के कारण मृत्यु हो गई, तब नरेंद्र ने अपने सभी साथियों को संगठित किया तथा सबके साथ बेलूर के मठ में रहना शुरू कर दिया।

वर्ष 1891 में स्वामी जी मठ से बाहर निकले तथा ऐतिहासिक रूप से भारत भूमि की लंबाई और चौड़ाई का दो बार परिक्रमा किया। इस दौरान उन्हें अच्छे-बुरे सबका अनुभव हुआ। एक दिन उन्होंने किसी भिखारी के साथ खुद को पाया और फांके में रात गुजारी, तो दूसरे दिन क्रॉउन प्रिंस के अतिथि भी बनें। आम जनता के दुख-दर्द और अज्ञान ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। भारत की परिक्रमा करते हुए दिसंबर 1992 में वह कन्याकुमारी पहुंचे, जहां समुद्र में उन्होंने एक चट्टान देखी। स्वामी जी ने चट्टान पर जाकर 25 दिसंबर से 27 दिसंबर तक (3 दिनों तक) ध्यान किया। ध्यान में स्वामी जी ने भारत के भूत, वर्तमान और भविष्य पर विचार किया और अपने जीवन के महान मिषन की खोज की। उन्होंने महसूस किया कि मानवता की सेवा भगवान की सेवा है और षिकागो में होने वाले विश्व धर्म संसद में अपने धर्म का प्रतिनिधित्व करने के लिए अमेरिका जाने का फैसला किया।

षिकागो पहुंचने के बाद उन्हें पता चला कि विश्व धर्म संसद को सितंबर तक के लिए स्थगित कर दिया गया है तो वह हतप्रभ रह गए। यह जानकर कि धर्म संसद में प्रतिनिधि बनने के लिए एक वैध संदर्भ की आवष्यकता होती है, तो उन्हें और दुख पहुंचा। इस दौरान उन्होंने कोई आश्रय न होने और पैसे के अभाव में घर-घर जाकर भीख मांगीं बहुधा उन्हें अपमानित भी होना पड़ा। लेकिन वे अपने लक्ष्य से नहीं भटके। भगवान ने उनकी मदद की। उन्हें कुछ विदेषियों से मदद मिली और विश्व के धर्म संसद में हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें स्वीकार किया गया।

षिकागो में 11 सितंबर 1893 को विष्व धर्म संसद शुरू हुई। मानव जाति के 1200 मिलियन के प्रतिनिधि वहां मौजुद थे, जो अपने-अपने धर्म विषेष का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उन्हीं के बीच एक हिंदू सन्यासी के रूप में स्वामी विवेकानंद भी थे, जिन्होंने किसी विषेष संप्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं किया था, लेकिन वेदों का सार्वभौमिक दर्षन के साथ वे वहां मजबूती से डटे थे। अन्य सभी प्रतिनिधि अपने साथ लिखित भाषाण लेकर आए थे। लेकिन स्वामी जी के पास ऐसा कुछ नहीं था। जब स्वामी जी की बारी आई तो उन्होंने ज्ञान की देवी सरस्वती को प्रणाम किया और पांच शब्दों सिस्टर एंड ब्रदर्स आफ अमेरिका (स्वामी विवेकानंद का पूरा काम 1907 प्रथम संस्करण) के संबोधन के साथ अपना भाषण शुरू किया। इसका असर ऐसा हुआ कि हाल में मौजूद 7000 लोग खड़े हुए और 2 मिनट से अधिक समय तक ताली बजाते रहे। दर्षकों द्वारा जबरदस्त तालिया इस कारण से थी कि स्वामी जी ने औपचारिकता की भावना से परे उन्हें सच्चे प्यार और स्नेह के साथ संबोधित किया, जो किसी अन्य प्रतिनिधि ने नहीं किया था।

स्वामी जी ने कहा, मुझे ऐसे धर्म पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों सिखाया है। हम सभी धर्मों को सच मानते हैं। उनका भाषण सुनने के बाद न्यूयार्क के हेराल्ड ने कहा, स्वामी जी की बातें प्रकाष पुंज की तरह थी, निंदा का एक शब्द भी उनके होठों से नहीं निकला। उन्हें सुनने के बाद हम महसूस करते हैं कि मिषनरियों को इनके सीखे सिखाएं हुए देष में भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है। (तेजस्व आनंद 1940)

रातो रात एक युवा और अज्ञात सन्यासी धार्मिक दुनिया के एक उत्कृष्ट व्यक्ति के रूप में परिवर्तित हो गया। नाम और प्रसिद्धि उनके चरणों में थी, हालांकि उनका उद्देष्य ऐसा नहीं था। उनकी बेचैनी और पीड़ा एक रात इतनी तीव्र हो गई कि वह फर्ष पर लुढ़क गए और बोले हे मां मुझे नाम और प्रसिद्धि की क्या जरूरत है जबकि मेरी मातृभूमि अत्यंत गरीबी में डूबी रहती है। (तेज संधा 1940)

यह भारत की महानता ही है कि लगभग 1000 वर्षों की गुलामी और रक्तपात के बाद भी हमने दुनिया को यूनिवर्सल ब्रदरहुड का संदेष दिया और अभी भी इस विचार को हम लगातार बढ़ावा दे रहे हैं। हमारे गौरवषाली अतीत से स्पष्ट होता है कि हमने कभी किसी से युद्ध नहीं किया था और न ही किसी से युद्ध शुरू किया था, हम कभी भी खून बहाने के पक्षधर नहीं रहे है। हमारा उद्देष्य हमेषा शांति, सहानुभूति, प्रेम का ही रहा है। हमारे समावेषी दृष्टिकोण का ही नतीजा है कि अन्य धर्मों के भी लोग जब हमसे मदद मांगी हमने उन्हें शरण दी और सभी को शामिल करने के लिए हमारे दिलों में अभी भी अनंत स्थान है। हालांकि हर धर्म एक तरह से भाईचारे का प्रचार करता है लेकिन हम वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास करते हैं और मानते है कि पूरी दुनिया एक परिवार है।

समाज में जो लोग एक नेता की भूमिका निभाना चाहते हैं उनके लिए स्वामी विवेकानंद ने कहा, आपको नौकरों का सेवक होना चाहिए और फिर आप एक सच्चे गुरु हो सकते हैं। उन्होंने मैसूर के महाराजा को लिखा कि जो लोग दूसरे के लिए जीते हैं, वहीं दरअसल जीते है, बाकी लोग जीवित होकर के भी मरे जैसे होते हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की प्रगति के लिए युवाओं का आगे आना बहुत जरूरी है, अगर युवाओं की प्रगति होगी तो राष्ट्र की भी प्रगति होगी। चरित्र निर्माण की षिक्षा पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि हमारी षिक्षा ऐसी हो जो अच्छे चरित्र का निर्माण कर सकें।

आप सबने सुना होगा ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’ अपनी माता और पिता को भगवान के रूप में देखें, लेकिन यह केवल स्वामी विवेकानंद ही थे जिन्होंने कहा ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’ यानी अज्ञानी और मूर्ख आदमी के साथ-साथ गरीब आदमी भी आपका भगवान हो। स्वामी जी ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के मालिक थे जिन्होंने न केवल भारतीय नेताओं, बल्कि विदेषों के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी प्रभावित किया। महान वैज्ञानिक निकोला टेस्ला, जिनके पास अपनी प्रयोगषाला से बाहर आने का समय नहीं था, वह भी स्वामी विवेकानंद से मिले और उनसे बहुत प्रभावित हुए। जान राकलर अमरीका के सबसे अमीर और बड़े उद्योगपति थे, उस समय स्वामी जी से मिलने के लिए बेताब थे और मिलने के बाद वे उनकी बातों से इतना प्रभावित हुए कि अपनी सारी संपत्ति दान कर परोपकारी बन गए।

स्वामी विवेकानंद ने कहा दुनिया एक महान व्यामषाला है, जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं। राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर हमें अपने दैनिक जीवन में स्वामी जी की षिक्षाओं को जागृत और व्यावहारिक रूप से लागू करना चाहिए। एक साधारण सा बच्चा नरेन अपनी साधना और काम से एक असाधारण आदमी बन सकता है तो हम खुद को कितना मजबूत बनाते हैं यह पूरी तरह से हमारे खुद पर निर्भर करता है।

स्वामी विवेकानंद का पूरा जीवन केवल और केवल भारत माता के लिए था। यही कारण है कि रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा, यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद का अध्ययन करें, उनमें सब कुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं है। हम मातृभूमि के लिए उनके प्यार की कल्पना नहीं कर सकते हैं, उन्होंने दो बार भारत भ्रमण किया था। उन्होंने कहा था कि मैंने देखा है कि भारत माता और जगदंबा में कोई भेद नहीं है। भारत माता की पूजा ही जगदंबा की पूजा है। भारत माता की सेवा का अर्थ है - भारत की संतानों की सेवा और हमारी दो ही समस्याएं हैं - दरिद्रता और अशिक्षा।

लेखक- नगर युवा प्रमुख, विवेकानंद केंद्र

 

संदर्भः 1. https://www.panchjanya.com/Encyc/2020/11/12/Babasaheb-said-that-Swami-Vivekananda-is-the-greatest-man-born-in-India-in-recent-centuries.html
2. Tejasnanda (1940), A short biography of Swami Vivekananda, Advaita Ashrama, Ramakrishna Math, Belur Math.
3. Response to welcome, Complete Works of Swami Vivekananda (Volume-1), 1907 (First Edition), Advaita Ashrama, Ramakrishna Math
4. Ranade, Eknath (1963), Rousing Call to Hindu Nation, Vivekananda Kendra Prakashan Trust.
5.https://www.thenationalistview.com/opinion-commentary/swami-vivekananda-words- of-wisdom-for-the-youth/

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