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आक्रामक चीन और भारत के हित

उभरता हुआ चीन भारत के लिए एक दुर्जेय विरोधी बना हुआ है, हमें कई मोर्चां पर खुद को तैयार करने की जरूरत है। — के.के. श्रीवास्तव

 

सन् 1976 के बाद यह पहला मौका है जब शी जिनपिंग को असाधारण तौर पर एक बार फिर पार्टी की कमान सौंपी गई है। जिनपिंग चीन के संस्थापक माओ से भी ज्यादा ताकतवर हो गए हैं। बीजिंग के ग्रेट हाल में अपने खास लोगों से बातचीत करते हुए जिनपिंग ने, हालांकि भारत का नाम तो नहीं लिया, लेकिन जो बातें उन्होंने कही है वह भारत की चिंता बढ़ाने वाली है। चाहे पीएलए को वर्ल्ड क्लास सेना बनाने का मामला हो या परमाणु हथियार का जखीरा बढ़ाने का। स्थानीय युद्ध में जीत का जिक्र कर उन्होंने भारत के साथ-साथ ताइवान के साथ जारी सीमा विवाद को रेखांकित कर यह संकेत दे दिया है कि चीन की रणनीति भारत के हित के विपरीत होगी। ऐसे में भारत को भी चीन का सामना आने वाले कुछ वर्षों तक करने के लिए खुद को तैयार करना ही होगा।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं राष्ट्रीय कांग्रेस के बाद जिनपिंग का पार्टी सेना और पूरे राज्य पर पूर्ण नियंत्रण लगभग हो गया है। जाहिर तौर पर तमाम मूलभूत परिवर्तन देखें जा रहे हैं। देंग शियाओपिंग के जमाने से चली आ रही वैश्विक खिलाड़ियों सहित निजी पूंजी के माध्यम से धन सृजन के मामले में भी नीतिगत मोड़ आएगा। अब राज्य की बड़ी भूमिका होगी, केंद्रीय नियोजन अधिक होगा और धन के केंद्रीकरण के स्थान पर साझी समृद्धि की खोज होगी। स्पष्ट शब्दों में कहें तो नए कार्यकाल में राज्य और निजी पूंजी के संबंधों में आमूलचूल बदलाव होंगे।

शून्य कोविड़ नीति के परिणामस्वरुप चीन का आर्थिक विकास धीमा हो गया है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार एक स्पष्ट संकेत भेज रही है कि अब राज्य आर्थिक एजेंटों को निर्देशित करेगा। इससे पहले चीन ने लगभग 3 दशकों तक उच्च आर्थिक विकास हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया था, लेकिन अब वह अमेरिका के अधिपत्य और श्रेष्ठता को सीधे चुनौती देना चाहता है। राजनीतिक तटस्थता का यह दृष्टिकोण व्यापार और निवेश प्रवाह को काफी हद तक बदल सकता है। ऐसे में हमें अपने हितों की रक्षा करनी है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जे बाइडेन ने इसे भांपते हुए प्रौद्योगिकियों और विनिर्माण क्षेत्र में अनुसंधान और विकास में भारी संघीय निवेश को बढ़ावा देने की मांग की है। जिन क्षेत्रों में चीन अभी हावी है वहां अमेरिका निवेश को बढ़ावा देने की नीति पर काम कर रहा है। एप्पल और टेस्ला जैसी कंपनियों की असहमति के बावजूद अमेरिका ने चीन के चिप आपूर्ति पर प्रतिबंध लगा दिया है।

भारत को भी अपने सामरिक और आर्थिक हितों की रक्षा करनी होगी। हम चीनी सैन्य और आर्थिक शक्ति की सम्मिलित शक्ति को देखते हुए अपने पड़ोसी का विरोध नहीं उठा सकते और न ही हम उसके सामने आत्मसमर्पण कर सकते हैं। वर्तमान की स्थिति ढुलमूल है। चीन के साथ व्यापार कम करने के तमाम घोषणाओं के बावजूद 2020-21 में भारत में चीनी आयात 90 अरब डॉलर से अधिक का हुआ था। भारत को फार्मास्यूटिकल जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना पड़ेगा, जिसके लिए चीन तीन सक्रिय अवयवों की आपूर्ति करता है।

अपने मार्गदर्शक सिद्धांत ‘‘प्रत्येक से उनकी क्षमताओं के अनुसार और प्रत्येक को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार’’ के आदर्शों वाला चीन अब पुराना कम्युनिस्ट देश नहीं रहा। चीन की चाल, उसका चरित्र और चिंतन बदल चुका है। सत्तारूढ़ दल ने रियल्टी क्रेडिट और फिनटेक क्षेत्रों को स्पष्ट संदेश दिया है। आर्थिक रणनीतिकारों के साथ उनकी लगातार चर्चा हो रही है। मालूम कि 2002 से 2012 के बीच हूं चिंताओं के जमाने में वहां की अर्थव्यवस्था 10.5 प्रतिशत की गति से बढ़ी थी लेकिन 2012 से 2021 के दरमियान घटकर 6.5 प्रतिशत ही रह गई है। शी कालस्य अगले दशक में चीन को मध्य स्तर का विकसित देश बनाना है, इसके लिए इसे लगभग 5 प्रतिशत वार्षिक दर की आवश्यकता है। लेकिन घटती जनसंख्या, घटती उत्पादकता वृद्धि और भारी कर्ज के बोझ जैसी प्रतिकूलता के कारण इसके 2.5 प्रतिशत की दर से ही बढ़ने का अनुमान है। संपूर्ण विश्व और विशेष रुप से भारत के लिए इसके कई निहितार्थ हैं। फिर भी चीन के निकट भविष्य में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि अमेरिका अपना ओहदा बचाए रखने के लिए आगे भी प्रयास जारी रखेंगा। इससे इतर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव योजना के माध्यम से चीन अपनी ऋण संचालित प्रगति का लक्ष्य वैश्विक प्रभुत्व के विस्तार के लिए बनाया है। लेकिन कर्जदार देश श्रीलंका के तरह की आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हैं तो उसकी हेकड़ी निकल सकती है और उसके लिए बड़ा संकट पैदा हो सकता है।

हालांकि शी ने चीन को आक्रामक संसोधन वादी विश्व नेता देश के रूप में पेश करने की कोशिश की है लेकिन असल में वह विश्व व्यवस्था को अपने हिसाब से आकार देना चाहता है और चीन से तय किए गए निर्णयों के आधार पर दुनिया को चलाना चाहता है। हालांकि यह सब अभी भी दूर की कौड़ी है। ऐसे में जबकि चीन की अर्थव्यवस्था की गति धीमी है प्रतिकूल जनासांख्यिकी के कारण श्रम शक्ति घट रही है। वहां की एक बड़ी आबादी धीरे-धीरे बूढ़ी हो रही है। ऐसे में एक बारगी निजी पूंजी से धन सृजन पर रोक लगा कर दुनिया पर राज करने का सपना उसके लिए दिवा स्वप्न जैसा ही है।

फिर भी विचारणीय प्रश्न है कि उक्त परिस्थितियों के मद्देनजर अमेरिका के सामने क्या चीन नवाचार तकनीक का महाशक्ति बना रहेगा। जहां तक भारत का संबंध है तो भारत को चीन के साथ शांति मिलने की संभावना न के बराबर है। इसलिए इसका एक मात्र उपाय है कि भारत अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे, चीन पर निर्भरता कम करे समान विचारधारा वाले देशों के साथ अपने हितों को संरेखित करे और अपने रक्षा तैयारियों को उन्नत करें।

शी की सरकार फिलहाल अपनी फाल्ट लाइनों को ठीक करने में जुटी हुई है। वहां से आ रहे संकेत सहज बता रहे हैं कि चीन भारत का दुश्मन बना रहेगा। चीन से निपटने के लिए तथा भारतीय हितों के खिलाफ मिल रही चुनौतियों को कुंद करने के लिए नई दिल्ली को कड़ी मेहनत करनी होगी तथा कामों में अपेक्षाकृत तेजी लानी पड़ेगी। शी ने साझा नियति के नाम पर शख्स राजनीतिक नियंत्रण आर्थिक विकास के लिए बाजारों के खिलाफ राज्य की बढ़ती निर्भरता और विदेशों में अधिक मुखर नीतियों को फायलानए का फैसला किया है निश्चित रूप से यह व्यक्ति वादी सता का विरोधाभास जैसा है जिसकी कलई कभी भी खुल सकती है। लेकिन नई दिल्ली को उससे निपटने के लिए सेना के साथ तैयारी करनी होगी। एक सशक्त सेना के साथ शत्रुता पर आमादा चीन के खिलाफ खड़ा होना होगा। शी के नेतृत्व में चीन की सरकार ने अपने विस्तृत भू राजनीतिक महत्वाकांक्षा को कभी भी ओझल नहीं होने दिया है इसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि भारत चीन के संबंधों के मधुर होने के आसार नहीं है। दरअसल हमें कैसे विरोधी का सामना कर रहे हैं जिसके पास दुनिया को देखने की एक श्रेणीबद्ध दृष्टि है उसे हम दुनिया की भागीदारी और अपनी उच्च राष्ट्रीय शक्ति के जरिए ही पीछे छोड़ सकते हैं।      

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