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लोकलुभावनवाद में लिप्त हैं सभी दल

योग्य लोगों के लिए एक स्थाई कल्याणकारी प्रावधान तो हो, लेकिन वही राजकोषीय बोझ को कम करने के बारे में भी गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है। — के.के. श्रीवास्तव

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने शॉर्टकट और नगदी लूटाने के बजाय देशवासियों के लिए बुनियादी जरूरतों मसलन सड़कों, घरों, शौचालय के लिए जोर दिया है, जो विकास के अवसर और सामाजिक न्याय की बुनियाद को मजबूती देता है। सरकार की यह सोच दरअसल एक तरह का नवकल्याणवाद है। मोदी के नेतृत्व में सरकार ने सबसे ज्यादा जरूरतमंदों को बुनियादी सुविधाओं (बैंकिंग, स्वच्छता, पानी, आवास, बीमा, बिजली) तक पहुंच प्रदान करके असमानता को कम करने में सराहनीय काम किया है। इससे भारतीय मानव संसाधन की उत्पादकता में वृद्धि होती है तथा समाज में सशक्तिकरण आता है। पर जरूरत इस बात की है कि योग्य लोगों के लिए एक स्थाई कल्याणकारी प्रावधान तो हो, लेकिन वही राजकोषीय बोझ को कम करने के बारे में भी गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है।

मालूम हो कि 1991 के बाद से भारत की आर्थिक नीतियों में हुए विवर्तनिक और सकारात्मक बदलाव से बाजार के अनुकूल सुधारों की शुरुआत हुई थी। हालांकि धन की असमानता, बुनियादी संरचनात्मक कमजोरियां अब भी बनी हुई है। यहां तक की यह बढ़ भी रही है। इसमें कई अन्य कारकों के साथ-साथ प्रतिकूल राजनीति भी आम है। विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के अनुसार वर्ष 2018 में 10 प्रतिशत लोगों ने 57.1 प्रतिशत आय अर्जित की, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत ने केवल 13.1 प्रतिशत आय प्राप्त की। इसी तरह के आंकड़े वर्ष 1991 में भी थे जब 10 प्रतिशत ने 34.4 प्रतिशत और 50 प्रतिशत ने 20.3 प्रतिशत आय प्राप्त की थी। वर्ष 1991 से 2000 के बीच शीर्ष 10 प्रतिशत की संपत्ति का हिस्सा 50 प्रतिशत से बढ़कर 74.3 प्रतिशत हो गया जबकि निचले 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी 8.8 प्रतिशत से गिरकर केवल 2.8 प्रतिशत रह गई। गरीब ने न केवल अपना हिस्सा खोया बल्कि उनके अपने अधिकारों, सामाजिक सुरक्षा तक की पहुंच में गिरावट देखी गई। इसका उदाहरण श्रम संहिता है जो अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को कोई सफलता नहीं प्रदान करती है बल्कि इसके उलट अनिवार्य रूप से पूंजीवाद के दावे को पुष्ट करती है। क्योंकि श्रमिक आलसी और लालची होते हैं इसलिए श्रम बाजार ने ‘हायर एंड फायर’ मोड में सबसे अच्छा काम किया।

यह दोनों घटनाक्रम जिसमें एक और आवश्यक प्रावधानों जैसे भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सहित बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को अपनाने की मांग और दूसरी ओर ऐसा मानताओ में खतरनाक वृद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राज्य व्यवस्था के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। आर्थिक सलाहकार परिषद की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्ष 2018 में शीर्ष 1 प्रतिशत ने कुल आय का 6.14 प्रतिशत अर्जित किया यह आंकड़ा 2019-20 में 6.82 प्रतिशत हो गया। इसे दूसरे शब्दों में कहे तो आय वितरण की अत्यधिक विषम प्रकृति लगातार बदतर होती जा रही है इसे दूर करने के लिए सार्वभौमिक बुनियादी आय की शुरुआत, कमाई के बेहतर वितरण का आश्वासन, गरीबों के लिए मनरेगा की तरह योजना शुरू करने, सामाजिक क्षेत्र के लिए व्यय के उच्च हिस्से का आवंटन आदि का सुझाव दिया है। यह भी कहा गया है कि खाद्य और ईंधन की सब्सिडी को समाप्त करके एक राजकोषीय तटस्थ सार्वभौमिक बुनियादी आय प्रारंभ हो जिसकी लागत सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत हो सकती है, संयोग से वर्ष 2017 में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने इसकी मंजूरी भी दे दी थी।

संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या संभावना 2022 के अनुसार भारत जनसंख्या के मामले में आगे है लेकिन विकास संकेतकों पर बहुत पीछे है।


संकेतक                                    इकाई                       ब्राजील         रूस            भारत         चीन              विश्व
कुल जनसंख्या                           मिलियन                        214           145             1408        1426            7909
जन्म के समय लिंगानुपात             पुरुष प्रति सौ महिला       105           106                108          112              106 
जन्म के समय जीवन प्रत्याशा        वर्ष                                72.8          69.4               67.2         78.2             71
बच्चा पैदा करने की आयु             वर्ष                                27.7          28.7               27.9         28.8             28.2 
शिशु मृत्यु दर                           प्रति 1000 जीवित जन्म      12.8            3.9               25.5           5.7             27.9            


निसंदेह जो देश जितना गरीब है विकास संकेतकों पर उसके प्रदर्शनों की संभावना उतनी ही खराब है। इससे पता चलता है कि यह उसके आय और उसके खर्चे के बारे में नहीं है, यह सारा मसला दुर्लभ संसाधनों के उपयोग से जुड़ा हुआ है जो हमारे आय और हमारे खर्चे को भी बयां करता है।
आजादी के 75 साल बीत जाने पर भी अगर यह संकेत है तो इसकी पृष्ठभूमि में हमें ‘रेवड़ी कल्चर’ के बारे में चल रही बहस की निष्पक्ष जांच करनी ही चाहिए। इस क्रम में पोषण सुरक्षा का उदाहरण ले तो संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट कहती है कि जब दुनिया भूख मिटाने के प्रयास के मोर्चे पर पीछे की ओर मुड़कर देख रही है तब भारत 80 करोड़ लोगों को फ्री राशन बांट रहा है। विश्व में कुपोषितों की संख्या पिछले 15 सालों में 45 मिलियन बढ़ी है लेकिन भारत में 23.5 मिलियन कम हो गई है। 

हालांकि हमारे यहां महिलाओं के एनीमिक होने की, बच्चों में विटामिन और खनिजों में कमी को प्रमुखता से रेखांकित किया जाता है लेकिन क्या इसे आगे कर मुफ्त उपहार संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए? मुफ्त उपहारों के प्रतिस्पर्धी लोकलुभावन वाद को छोड़ना चाहिए और देश को जरूरतमंदों के लिए लक्षित खर्च के लिए कदम बढ़ाना चाहिए। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय ने भी चुनी हुई सरकारों के चुनावपूर्ण घोषणाओं में की जाने वाली अतार्किक मुफ्तखोरी पर कड़ा प्रहार किया है। प्रधानमंत्री ने भी रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ बोला है। लेकिन क्या उनका दल भाजपा इस संस्कृति के आरोप से खुद को मुक्त कर सकता है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने 2017 के चुनाव की पूर्व संध्या पर कृषि ऋण को माफ करने का वादा किया था। सभी पार्टियां मुफ्त सुविधाओं का वादा करती है जिसमें मुफ्त बिजली, पानी, आवास, साइकिल, लैपटॉप आदि शामिल है। हालांकि ऐसी घोषणाएं नई नहीं है लेकिन अब सरेआम किया जा रहा है। जो दल या नेता ऐसा नहीं करते वे खुद को दुविधा में महसूस करते हैं। चाहते सब है कि यह बंद हो, लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने की हिम्मत कोई नहीं करता।

सवाल है कि क्या खराब वित्त वाले राज्यों को मुफ्त की घोषणा करनी चाहिए? तो वास्तव में वित्तीय रूप से यह विवेकपूर्ण या टिकाऊ नहीं है। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बिजली देने का वादा किया है लेकिन मार्च 2022 तक राज्य का कुल बकाया उसके जीडीपी के 53 प्रतिशत तक पहुंच गया है। एन.के. सिंह का सुझाव है कि राज्यों को पांच साल की बजाय वार्षिक मदद दी जानी चाहिए और खराब प्रदर्शन पर उन्हें दंडित करने का भी प्रावधान होना चाहिए। लेकिन क्या इसे लागू किया जा सकता है? शायद नहीं, क्योंकि राज्य की स्वायत्तता का मामला आगे आता है।

ऐसे में जरूरी है कि ‘योग्यता सब्सिडी बनाम गैर योग्यता सब्सिडी’ के उपचार के बारे में आगे बढ़ना चाहिए। एक सवाल यह भी है कि क्या आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भी सब्सिडी वाले पानी, बिजली, आवास, ईंधन, शिक्षा से वंचित किया जाए तो कोई भी कहेगा कि यह एक खराब कदम हो सकता है, लेकिन जरूरतमंदों की पहचान तो हो सकती है। हम उन्हें चिन्हित कर लक्षित लाभ दे सकते हैं लेकिन सभी राजनीतिक दल लापरवाह लोकलुभावनवाद में लिप्त है। इस तरह के अनुत्पादक खर्च सरकार की क्षमता को भी बाधित करते हैं। ऐसे में जरूरी है कि राजकोषीय घाटे के बोझ को कम करने के लिए एक स्थाई कल्याणकारी प्रावधान तैयार किया जाए।    

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