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क्या पीएलआई योजनाएं काम कर रही हैं

पीएलआई योजना ने केवल एक सीमित सीमा तक ही वित्तीय प्रोत्साहन दिया है, अधिकांश मामलों में लाभार्थी देने में विफल रहा है। - के.के. श्रीवास्तव

 

कोविड महामारी के विश्वव्यापी प्रकोप ने इंसानी विवशताओ को उजागर करने के साथ ही जाहिर कर दिया कि तमाम देशों को आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए जोरदार प्रयासों की दरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आत्मनिर्भर अभियान के लिए देशवासियों को तैयार किया ताकि हालात जटिलता की गिरफ्त में ना आए। केंद्र की सरकार ने आर्थिक पैकेज की घोषणा की। आपूर्ति श्रृंखला की खामियों को उजागर करते हुए उत्पादकता को प्रोत्साहन देने के लिए पीएलआई योजना की शुरुआत की। भारत के प्रधानमंत्री ने घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने और आयात के बोझ को कम करने के लिए पीएलआई के जरिए भारतीय कंपनियों को उत्पादों की बिक्री के आधार पर प्रोत्साहन देने का निर्णय किया था। सरकार विकास दर को बढ़ाने के साथ-साथ रोजगार सृजन में बढ़त, निर्यात में वृद्धि तथा आयात को कम करने के लिए प्रतिबद्ध थी। निश्चित रूप से घरेलू विनिर्माण के लिए एक सक्षम वातावरण प्रदान करने में यह आवश्यक कदम था। उम्मीद थी कि सकल घरेलू उत्पादों में विनिर्माण का हिस्सा 16 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाएगा। वर्तमान में सेवा क्षेत्र में यह मुकाम हासिल है। अगर विनिर्माण के क्षेत्र में भी बढ़त मिलेगी तो अर्थव्यवस्था में अंतरक्षेत्रीय संतुलन आएगा। लेकिन परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं रहे। 

आत्मनिर्भर भारत के लिए जो नीतिगत घोषणा हुई उसमें मूल रूप से ऐसे विनिर्माण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र स्थापित करना मूल उद्देश्य रहा है जो लागत, गुणवत्ता, विश्वसनीयता और अन्य मापदंडों के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी और उन्नत हो। आशा की गई कि हमारी अर्थव्यवस्था विदेशी पूंजी को भी आकर्षित करेंगी। देश की जनता भी बदलाव के इस अभियान में आगे आए। आत्मनिर्भर भारत के तहत बड़े पैमाने पर गुणवत्ता वाले उत्पादों का उत्पादन सुनिश्चित करने, घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करने, उत्पादित वस्तुओं के के निर्यात को बढ़ावा देने के साथ-साथ विनिर्माण क्षेत्र में मेक इन इंडिया के जरिए रोजगार सृजन को मुख्य माना गया। इसके लिए साथ ही कौशल विकास योजना शुरु की गई। रक्षा उत्पादन में इस नीति को बढ़ावा दिया गया। विनिर्माण में एफडीआई कि सीमा 49 प्रतिशत से बढ़कर 74 प्रतिशत कर दी गई।

पूरी दुनिया चीन प्लस वन की रणनीति के बारे में विचार कर रही थी कि उसी समय भारत की मेक इन इंडिया पहल निश्चित रुप से सबको आकर्षित करने वाली थी। आत्मनिर्भरता के लिए दुनिया के तमाम देशों में इस तरह की पहल हुई। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर विश्व दृष्टि की गुलाबी तस्वीर उभर कर आई। लेकिन मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने की नीति बहुत सार्थक नहीं रही। अतीत के अनुभव बताते हैं कि बिना दृढ़इच्छा शक्ति के प्रोत्साहन राशि देना एक जुआ की तरह ही होता है। भारत में भी आर्थिक टिप्पणीकारों ने आरोप लगाया कि उत्पादन प्रोत्साहन योजना जिस तरह डिजाइन  की गई है, जिस तरह से इसे कार्यांवित किया जा रहा है, दरअसल यह एक शार्टकट है। इसमें मजबूत और व्यापक नीतिगत ढांचे का ठोस विकल्प नहीं हैं। इस क्रम में हम कह सकते हैं कि पीएलआई योजना आमतौर पर जटिल होती गई है। इसके दुरुपयोग से बचने के लिए कुशल और प्रभावी प्रशासन की आवश्यकता होती है। इसकी सफलता निर्यात में वृद्धि, गुणवत्ता में वृद्धि और रोजगार उत्पन्न करने की उच्च क्षमता से मापी जा सकती है। टिकाऊ प्रतिस्पर्धी  बनने की दिशा में यह लक्ष्य महत्वपूर्ण है। यह रणनीति शिशु उद्योग आर्गुमेंट के समान है जहा सरकार घरेलू उद्योगों को सुरक्षा प्रदान करती है। 

वैश्विक बाजार में फर्म के प्रतिस्पर्धी और उच्च गुणवत्ता वाले उदार व्यापार ढांचे की आवश्यकता होती है। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। और न ही वर्तमान व्यवस्था के आर्थिक क्रियाकलापों के संदर्भ में इसकी संभावना दिख रही हैं। उदाहरण के लिए सबसे अधिक दबाव वाला मुद्दा सूर्यास्त चरण तक पहुंचने के लिए निशिचत समय सीमा के बारे में है जो कि अब भी अस्पष्ट है। दूसरा यह रिकॉर्डेड तथ्य है कि कुछ क्षेत्रों में पीएलआई के बावजूद आयातित वस्तुएं उपयोगकर्ता के लिए सस्ती रहती हैं।  तीसरा पीएलआई संरचना पूंजी गहन विकास की पक्षधर है जिसमें श्रम रोजगार सृजन को बढ़ावा देने की संभावना नहीं है, बल्कि इससे बेरोजगारी का संकट और बढ़ सकता है। चौथा कुछ उद्योग  उच्च केपैक्स आवश्यकताओं की शिकायत करते हैं। कुछ अन्य लोग भूमि अधिग्रहण में देरी पर भी सवाल उठाते हैं। पांचवा इसकी गैर संघीय प्रवृत्ति के कारण दिया गया प्रोत्साहन सामान्य की तरह सामने आता है। घरेलू आर्थिक व्यवस्था की संरचना को मजबूत करने की खातिर प्रदान की गई वित्तीय सहायता की वापसी मुश्किल हो जाती है। छठवां, पहले पीएलआई योजना के तहत सरकार द्वारा दिए गए लाभों को बड़े उद्योगपति कब्जा कर लेते हैं। छोटों के हाथ प्रोत्साहन की सिर्फ मूंगफली ही आती है। 

तथ्य यह है कि सत्तारूढ़ सरकारों द्वारा 90 के दशक के आर्थिक सुधार चरण के बाद दी गई सब्सिडी से भारतीय विनिर्माण को कोई खास मदद नहीं मिली। अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान नहीं बढ़ा।  यह 16 प्रतिशत के आंकड़े पर स्थिर रहा है। विनिर्माण क्षेत्र कुल रोजगार का 10 प्रतिशत से भी कम का योगदान देता है। 

यहां आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का सुझाव उल्लेखनीय है कि भारत को दुनिया का कारखाना बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह केवल इच्छाधारी सोच है, जहां ठोस सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र और अन्य देशों के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा है। जरूरी नहीं कि रघुराम राजन की सोच से सब लोग सहमत हो, लेकिन तथ्य है कि पीएलआई योजना में शामिल मेक इन इंडिया अबतक मात्र एक नारा ही साबित हुआ है, क्योंकि भारत का तंत्र कमजोर है और इसकी महत्वकांक्षा को वास्तविकता में बदलने के लिए समर्थन प्रणाली भी अलग है। 

निराशाजनक तथ्य यह भी है कि वैश्विक आकार के हिसाब से हम सभी मोर्चों पर अभी प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हो सकते, इसलिए विश्व बाजार में बेचने में कमोबेश विफल ही है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पीएलआई योजना ने केवल एक सीमित सीमा तक ही वित्तीय प्रोत्साहन दिया है, अधिकांश मामलों में लाभार्थी देने में विफल रहा है। 

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