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आयुर्वेदः विश्वास ही नहीं, विज्ञान भी

अब आधुनिक विज्ञान को भी प्राचीन पारंपरिक चिकित्सा के साथ जोड़ना शुरु किया गया है। आयुर्वेद काफी हद तक विश्वास का विज्ञान रहा है।  — डॉ. जया कक्कड़

 

कोरोना की काली छाया से बाहर निकलने तथा अपने शरीर की इम्यून शक्ति को बढ़ाने के लिए लोगों ने आयुर्वेद की ओर रुख किया है। बाजारों में अश्वगंधा च्यवनप्रास, हल्दी, गिलोय, शहद की बिक्री में गुणात्मक वृद्धि हुई है। वही लोगों में जागरूकता भी बढ़ी है। कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद से उपभोक्ता तेजी से हर्बल प्राकृतिक और आयुर्वेदिक उत्पाद पसंद कर रहे हैं। यह लोकल के प्रति बढ़ती निष्ठा का द्योतक तो है ही  आत्मनिर्भर भारत और आयुर्वेद को समर्थन करने वाला भी है।

प्राचीन चिकित्सा प्रणाली में बीमारियों का इलाज और एक स्वस्थ जीवन शैली का नेतृत्व करने के सर्वोत्तम तरीकों में आयुर्वेद को उच्च स्थान प्राप्त है। वर्तमान में आयुर्वेद ने अपनी ओर सभी का ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि भारत सरकार ने वैश्विक महामारी कोविड-19 से लड़ने के प्रयासों में प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए आयुर्वेदिक संघटकों के उपयोग का आह्वान किया है। सरकार ने कोविड-19 के रोकथाम हेतु प्रतिरोधी तथा उपचार में चयनित और मानकीकृत आयुर्वेदिक दवाओं के सुरक्षित और प्रभावी उपयोग का मूल्यांकन करने के लिए अभिनव नैदानिक दवा परीक्षणों की घोषणा की है। आयुष मंत्री द्वारा ऐसे उत्पादों को प्रोत्साहन देने के बाद डाबर, हिमालय, झंडू, जैसी कंपनियों को अत्यधिक मुनाफा हुआ है।

 

कोविड-19 के दौरान चयनित उत्पादों का प्रदर्शन
(समाप्त वर्ष 2021)
श्रेणी                                   योगदान प्रतिशतता           प्राकृतिक विकास         श्रेणी वृद्धि
शैम्पू (हेयर वास)                       12 प्रतिशत                     15 प्रतिशत             7 प्रतिशत
टूथ पेस्ट                                  41 प्रतिशत                     16 प्रतिशत           10 प्रतिशत
स्कीन क्रीम                              15 प्रतिशत                     30 प्रतिशत           12 प्रतिशत
बेबी क्रीम                                 58 प्रतिशत                    32 प्रतिशत           21 प्रतिशत
बेबी स्कीन क्रीम                        58 प्रतिशत                    46 प्रतिशत           44 प्रतिशत

 

कोरोना काल में अस्पतालों में मची अफरा-तफरी के बीच अधिकांश भारतीय इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए घरेलू उपचार और समग्र दवाओं पर निर्भर होकर खुद को वायरस से बचाने में जुटे हुए हैं। कोरोना रोग के मामले में एलोपैथी की तुलना में आयुर्वेद पर लोगों का विश्वास बढ़ा है। एक सर्वेक्षण में यह बात निकल कर के आई है कि आधे से अधिक कोरोना प्रभावित लोगों ने देसी इलाज के जरिए अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली विकसित और मजबूत की है। सर्वेक्षण में वर्ष 2023 तक आयुर्वेदिक उत्पादों की मांग बढ़ने तथा आयुर्वेद को 15 बिलियन डालर का उद्योग बनने का आकलन किया गया है। आयुर्वेदिक कंपनियों ने अपने आरएंडी खर्च में भी वृद्धि की है और कंपनियां यह सुनिश्चित कर रही हैं कि नवाचार लक्षित बाजार में तेजी आए। दवाओं का क्लीनिकल परीक्षण किया जा रहा है और आयुर्वेदिक और हर्बल उत्पादों पर प्रोफिलैक्सिस अध्ययन किए जा रहे हैं। अध्ययन के नतीजे में बताया गया है कि बीमारी से ग्रस्त अधिकांश लोगों ने आयुर्वेद की दवाइयों का सेवन किया और  बीमारी पर विजय प्राप्त की। इसमें कोई दो राय नहीं कि अधिकांश लोग अब रासायनिक आधारित उत्पादों से दूर भागने लगे हैं। यही कारण है कि प्राकृतिक प्रतिरक्षा बूस्टर उत्पादों जैसे कि च्यवनप्राश, शहद, हर्बल चाय आदि में  2020-21 के दौरान 38 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई।

हालांकि आयुर्वेद मौजूदा विज्ञान और स्वस्थ जीवन जीने की कला से दूर है। यह मालिश, ध्यान, योग और हर्बल उपचार के उपयोग के साथ आहार परिवर्तन जैसे जीवन शैली वाली पारंपरिक पुरानी प्रथाओं के माध्यम से बीमारियों की रोकथाम और उपचार पर केंद्रित है। लेकिन यहां उपचार संपूर्ण है जो शरीर को और शरीर के साथ मन को भी ठीक करने का दावा करता है। एलोपैथ रोग के प्रबंधन पर केंद्रित होती है, जबकि आयुर्वेद रोग की रोकथाम और रोग को उत्पन्न करने वाले मूल कारण को निष्कासित करने पर केंद्रित होता है। आयुर्वेद में शरीर को नियंत्रित करने वाले प्राथमिक गुणों को दोष कहा जाता है। माना जाता है कि मानव शरीर 3 प्राथमिक दोष वात, पित्त और कफ से बना है। जब यह दोष पूरी तरह से संतुलित हो जाते हैं तो शरीर पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद लेता है।

अमेरिका में भी लगभग एक तिहाई आबादी किसी न किसी रूप में पूरक और वैकल्पिक उपचारों का उपयोग करती है। लेकिन पूरी पश्चिमी दुनिया और यहां तक कि भारत भी यह पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि क्या वास्तव में जड़ी बूटियों के कारण अनुभव किए गए प्रभाव वास्तव में होते हैं या अनुवांशिक है अथवा प्रायोगिक प्रभाव तो नहीं? क्या मन इलाज की प्रत्याशा में ही शरीर को ठीक कर रहा है? प्राचीन संस्कृतियों में पारंपरिक चिकित्सा का ज्ञान जैसे कि आयुर्वेद पीढ़ियों से मौखिक परंपराओं या लिखित ग्रंथों के माध्यम से पारित किया गया था। आयुर्वेद विशिष्ट बीमारियों के लिए औषधि के रूप में प्राकृतिक जड़ी बूटियों की सिफारिश करता है। यह दवाएं भारत में 5000 से अधिक वर्षों से प्रचलित है। इन दवाओं का वर्णन करने वाले प्राचीन ग्रंथ लगभग दो सौ ईसा पूर्व के हैं। आज की दुनिया में इन्हें अकेले या पश्चिमी दवाओं के संयोजन में निर्धारित किया जा रहा है।

वर्षों से वैज्ञानिक आयुर्वेद के पीछे के तंत्र को समझने के लिए उत्सुक रहे हैं कि जड़ी बूटियां शरीर के साथ कैसे परस्पर क्रिया करती हैं और एक विशेष प्रभाव प्रदर्शित करती है। क्या इस तरह के ज्ञान के पीछे विज्ञान की कोई  वैधता है? क्या होगा अगर हम इन पारंपरिक दवाओं के काम करने के पीछे के रहस्यों को उजागर कर सकें? हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने प्राचीन ग्रंथों में सुझाए गए बेहतरीन गुणों वाले हल्दी, अश्वगंधा, लहसुन आदि जड़ी बूटियों का अध्ययन किया है। उदाहरण के लिए अश्वगंधा मुख्य रूप से तंत्रिका संबंधी  विकारों में अनुप्रयोगों के लिए जाना जाता है। वैज्ञानिक अध्ययनों में सुझाव दिया गया है कि जड़ी-बूटी ऑक्सीडेटिव छाती को रोक सकती है। इसी तरह हल्दी का भी इसके विरोधी गुणों के लिए बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है। परिणाम इस विश्वास का समर्थन करते हैं। लहसुन को एक ऐसे यौगिकों के लिए जाना जाता है जो मजबूत एंटीऑक्सीडेंट एंटी बैक्टीरियल एंटी फंगल एंटी कैंसर और एंटीमाइक्रोबॉयल गुणों का प्रदर्शन करते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि लहसुन का आवश्यक तेल मूल्यवान प्राकृतिक एंटीवायरस का स्रोत है जो मानव शरीर में कोरोना वायरस के खतरों को रोकने में योगदान देता है।

किसी भी औषधि उत्पाद की पूरी जांच के लिए इसकी गुणवत्ता, संदूषण, संरचना विश्लेषण और कुछ और दोष तथा बीवो दोनों में इसकी जैविक  गतिविधिकी आवश्यकता होती है। इसके पर्याप्त शोध के अभाव में निराशा हाथ लग सकती है। यह भी संभव है कि खराब गुणवत्ता, संदूषण और भराव के कारण हर्बल उत्पाद की गुणवत्ता और शक्ति कम हो। गुणवत्ता वाले उत्पादों के बिना हम वांछित दीर्घकालिक प्रभाव का अनुभव नहीं कर सकते।

आज तक हम जड़ी बूटियों में पाए जाने वाले रासायनिक यौगिकों की जटिलताओं को समझने की कोशिश करते रहे हैं कि वे शरीर के बिना कैसे काम करते हैं और अब हम बदले में आनुवांशिक रूप से उन पर प्रतिक्रिया करने के लिए पूर्व निर्धारित हैं। आयुर्वेद में निश्चित रूप से इसका समर्थन करने वाला कुछ विज्ञान है। यही कारण है कि अब आधुनिक विज्ञान को भी प्राचीन पारंपरिक चिकित्सा के साथ जोड़ना शुरु किया गया है। आयुर्वेद काफी हद तक विश्वास का विज्ञान रहा है। जब हम क्लीनिकल परीक्षण सत्यापन के साथ विश्वास प्रणाली को विस्तृत करते हैं तो फिर उसके प्राकृतिक आवयवो के निर्माण के लिए अच्छा उत्पाद अभ्यास का पालन करते हैं। अगर ऐसा होता है तो निश्चित रूप से आयुर्वेद को विज्ञान की दुनिया में भी एक मजबूत स्थान हासिल होता है। आयुर्वेद के विश्वास को सांख्यिकी और वैज्ञानिक रूप से मान्य निष्कर्षों द्वारा समर्थित किया ही जाना चाहिए।

वर्तमान में इंटरनेट के दौर में झूठी सूचनाओं की बाढ़ है। आयुर्वेद को लेकर भी तरह-तरह के अनर्गल प्रचार होते रहते हैं। सोशल मीडिया के जरिए अनाप-शनाप आयुर्वेदिक नुस्खों के कचरे का ढेर चारों तरफ फैला हुआ है। यह सब नीम हकीम खतरे जान से ज्यादा नहीं है। किसी भी मामले में आयुर्वेद को मुख्यधारा के विकल्प के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, कम से कम अभी तो नहीं ही। भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य और भलाई के लिए हमें प्राचीन और आधुनिक ज्ञान को सर्वोत्तम और सर्वांगीण प्रभाव के लिए संयोजित करने की जरूरत है।

वैसे भी एलोपैथी के साथ आयुर्वेद का टकराव रहा है। लेकिन महामारी के दौरान इसने एक बदसूरत मोड़ ले लिया जब आई एम एस और रामदेव के बीच वाक युद्ध छिड़ गया। भारत में एलोपैथिक चिकित्सक आयुर्वेद सहित वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों से जुड़ने से इनकार करते हैं और आयुर्वेदिक उपचार के समर्थक अक्सर अपनी खुद की स्वामित्व वाली दवाओं का वितरण करते हैं। भले ही उनका निर्माण प्रमुख आयुर्वेदिक औषधि सिद्धांतों को त्याग कर किया गया हो। फिर भी जब कोविड-19 से लड़ने की बात आती है तो अब अधिकांश लोग एलोपैथी की वजह आयुर्वेद पर भरोसा कर रहे हैं। निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि अब एक झटके में आयुर्वेद को खारिज नहीं कर सकते हैं लेकिन आयुर्वेद को आधुनिक विज्ञान के रूप में वैधता हासिल करने से पहले अभी बहुत सारी वैज्ञानिक जांच की आवश्यकता है।          

 

डॉ. जया कक्कड़ श्याम लाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास, संस्कृति और पर्यावरण की अध्यापिका हैं।

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