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बिन पानी सब सून: परंपरागत जल प्रबंधन की उपेक्षा का दुष्परिणाम

भारत में जल को सहेजने की, उसे पवित्र मानने की, उसे शुद्ध रखने की और उसे अगली पीढ़ियों को सुरक्षित देने की समृद्ध परंपरा एवं समृद्ध संस्कृति रही है। पिछले 7 दशकों में हमने जिस तरह आपनी इस संस्कृति को खोया है, उसने हमारी एक विशिष्ट पहचान को संकट में डाल दिया है। कोई समाज आधुनिकता की चकाचौंध अथवा बाहरी प्रभावों से इतना प्रभावित हो जाए कि वह अपनी विरासत खो बैठे तो उसे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। —डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्रा

 

बीते 7 जून को राजस्थान के जालौर जिले के रानीवाड़ा में पानी के अभाव में 6 साल की एक मासूम बच्ची अंजलि ने तड़प तड़पकर दम तोड़ दिया। बच्ची के साथ उसकी नानी सुखी देवी थी, कण्ठ सुखने के कारण बेहोश होकर गिर गई। प्यास से हुई मौत की दिल दहला देने वाली इस घटना के बाद अब इस पर राजनीति शुरू हो गई है। केंद्रीय जल मंत्री ने घटना को दुखद बताते हुए राजस्थान की गहलोत सरकार पर निशाना साधा है। पानी के अभाव में हुई इस मौत को अमानवीय, दुर्भाग्यपूर्ण और बेहद दुखदाई बताते हुए जल जीवन मिशन के मोर्चे पर राजस्थान सरकार की विफलता को इंगित किया है। वहीं राज्य सरकार ने मामले की जांच कराने तथा राजनीतिक दलों से मौत पर राजनीति नहीं करने की बात कही है।

हमारी धरती के कुल जल भंडार का 97 प्रतिशत भाग समुद्र है। समुद्रों की औसत गहराई 1200 मीटर और महासागरों की करीब 4000 मीटर है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल साफ पानी का 24 प्रतिशत भाग भूमि के अंदर होता है, जिसे हम भूमिगत जल कहते हैं। साफ पानी का 75 प्रतिशत भाग हिमनदी और बर्फ के रूप में जमा रहता है और बाकी मात्र 1 प्रतिशत नदियों, झीलों, जलाश्यों आदि में पाया जाता है। भारत में सतत बहने वाली 18  प्रमुख नदियां हैं। आमतौर पर प्राणियों और वनस्पतियों का 90 प्रतिशत भाग पानी होता है। मानव शरीर का दो तिहाई से अधिक का भाग पानी से बनता है। रक्त का 90 प्रतिशत भाग पानी है और मांसपेशियों का 85 प्रतिशत भाग पानी से बना होता है। एक मनुष्य साल भर में औसतन एक टन पानी पीता है। चारों ओर इतना पानी होने के बावजूद एक मासूम बच्ची चुल्लू भर पानी के लिए तड़प-तडपकर मर जाए, बच्ची की मौत से दुखी उसकी नानी सुखी पानी-पानी की रट लगाते हुए बेहोश होकर गिर जाए, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, शासन सत्ता के संतुलनकारों को भी कटघरे में खड़ा करने वाला है।

बालिका अंजलि की मृत्यु पानी के अभाव में राजस्थान के रेतीले टीलों में हुई। किंतु पानी की किल्लत राजस्थान के साथ-साथ देश के अधिकांश हिस्सों में भी है। राजस्थान के एक बहुत बड़े भाग में लोग पानी की किल्लत से परेशान हैं तथा पानी के भयावह अकाल से त्रस्त ग्रामीण पलायन कर रहे हैं। पशुओं को तिलक लगाकर छोड़ा जा रहा है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं। सूखी नदियों के पात प्यास बुझाने के लिए फिर से खोदे जा रहे हैं कि शायद कहीं पानी मिल जाए। पेड़-पौधे सूख रहे हैं और पशु प्यास से मर रहे हैं। सरकारी तंत्र इस विभीषिका से निपटने की कोशिश में है, परंतु सरकारी प्रयास असरकारी सिद्ध नहीं हो रहे।

प्रश्न उठता है कि आखिर पानी की इतनी कमी कैसे हुई? इसका सपाट उत्तर दिया जा सकता है कि कम बारिश और सरकारी लापरवाही के चलते यह दिक्कत आई लेकिन परंपरा कहती है कि नहीं हमने पानी को संभालने का, उसकी बूंद-बूंद को सहेजने का मूल्य ही नहीं समझा। पानी आसपास स्वाभाविक रूप से दिखता है और हम उसके प्रति बेपरवाह हो जाते हैं। जिस राजस्थान में पानी का अकाल हुआ है, वहां पानी की बूंद-बूंद का मूल्य समझने वाला एक पूरा समाज था और उसका अपना एक अलग शास्त्र था। दूर से दूर गांव देहातों से लेकर चारागाहों तक और बियाबान से लेकर एकांत में बने मंदिर तक, पानी मिले इसकी चिंता हमारे समाज ने की थी। हमारे पुरखों ने पानी का मूल्य समझा था। फिर वह पानी चाहे बारिश का हो, नदी झरने का हो अथवा भूगर्भ का हो, पानी को संभालने की चिंता थी, उसके लिए योजना थी और एक योग्य तकनीक थी। 

हमारे पुरखों ने जल का दोहन करते हुए हमेशा इस बात की भी योजना की कि धरती में जल बराबर बना रहे। धरती तो पानी की गुल्लक है और गुल्लक में बिना पैसा डाले लगातार पैसा कोई नहीं निकाल सकता। कल को अगर गुल्लक से पैसा चाहिए तो आज गुल्लक में पैसा डालना ही होगा। धरती से कल पानी चाहिए तो आज उसको पानी से समृद्ध बनाना ही होगा। परंतु पश्चिमी देशों की नकल के चक्कर में हम यह सीधा सा गणित आजादी के बाद से भुला बैठे हैं। हमने पहाड़ों को उनकी हरी चादर से वंचित किया तो उनसे बहने वाले पानी के सोते सूख गए। गांधीजी ने अपनी किताब ‘हिंद स्वराज’ में हिंसा और पर्यावरण विनाश तथा आधुनिक तकनीकी से उत्पन्न मानवीय  भूल के खतरों को चिन्हित किया था। उन्होंने कहा था कि प्रौद्योगिकी ने अर्थव्यवस्था, सामाजिक चेतना तथा समाज की रचना को विपरीत रूप से प्रभावित किया है। इसीलिए हमें जीवन की एक नई डिजाइन की दरकार है।

आज पानी की समस्या केवल राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों की ही नहीं है, अपितु हर राज्य का हर शहर पानी की समस्या से जूझ रहा है। प्रधानमंत्री जी के जल जीवन मिशन के अंतर्गत घर-घर नल से जल पहुंचाने की महत्वाकांक्षी योजना भी लक्ष्य से पीछे है। 

यूनेस्को और यूएन वाटर के सहयोग से तैयार वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व को अगले कई दशकों तक जल सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन दो बड़े संकटों का सामना करना पड़ेगा। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार जल संकट से घिरे 122 देशों की सूची में भारत का 120वां स्थान है। दुनिया के सर्वाधिक जल समस्या ग्रस्त 20 शहरों में भारत के चार प्रमुख शहर चेन्नई, कोलकाता, मुंबई तथा दिल्ली शामिल हैं, जिनका नाम उक्त सूची में क्रमशः पहले, दूसरे, 11वें तथा 15वें स्थान पर अंकित है। द वर्ल्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत सहित 17 अन्य देशों में पानी की समस्या अत्यंत गंभीर है। 

डब्ल्यूआरआई ने भूजल भंडार और उसमें आ रही निरंतर कमी, बाढ़ और सूखे के खतरे के आधार पर विश्व के 189 देशां को वहां पर उपलब्ध पानी को दृष्टि में रखकर श्रेणीबद्ध किया है। जल संकट के मामले में भारत विश्व में 131वें स्थान पर है। भारत के लिए इस मोर्चे पर चुनौती बड़ी है, क्योंकि उसकी आबादी जल संकट का सामना कर रहे अन्य समस्याग्रस्त 16 देशों से 3 गुना ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार भारत के उत्तरी भाग में जल संकट भूजल स्तर के अत्यंत नीचे चले जाने के कारण अत्यधिक गंभीर है तथा ’डे जीरो’ की कगार पर है। इस स्थिति में नलों का पानी भी सूख जाता है। विगत दिनों बंगलौर एवं चेन्नई में यह स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। 

देश के लगभग 70 प्रतिशत घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। लोग प्रदूषित पानी पीने के लिए बाध्य हैं, जिसके चलते लगभग 4 करोड़ लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित पानी पीने से बीमार होते हैं तथा लगभग 6 करोड लोग फ्लोराइडयुक्त पानी पीने के लिए विवश हैं।  

ऐसे में जलसुलभता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि वर्षा जल को पूर्णरूपेण संरक्षित किया जाए तथा येनकेन प्रकारेण भूगर्भ के जल स्तर को बढ़ाया जाए। साथ ही इसके लिए पूर्णरूपेण सरकारों पर ही आश्रित न होकर जनभागीदारी एवं सामाजिक सहयोग प्राप्त कर भारतीय परंपरा के अनुसार जल स्रोतों जैसे कुआ, बावड़ी, जोहड़ इत्यादि स्थान-स्थान पर खुदवाकर जहां एक ओर भूगर्भ जल स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर समस्त जीव-जंतुओं को भी पीने के लिए पानी उपलब्ध कराया जा सकता है। पूर्व में देश के सेठ साहूकारों एवं धन्ना सेठों द्वारा जल केंद्रों का निर्माण कराया जाता था, किंतु अब यह परंपरा लगभग समाप्त हो गई है। भारतीय शास्त्रों उपनिषदों में जल केंद्रों के निर्माण को पुण्य कर्मों की श्रेणी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त रहा है, किंतु आज नए निर्माण तो हो ही नहीं रहे, पुराने जल केंद्र एवं जल स्रोत भी अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। उनके संरक्षण, संवर्धन की परम आवश्यकता है जिससे पानी की समस्या का निदान हो तथा भविष्य में न केवल अंजलि जैसी मासूम बच्ची को अकाल काल के गाल में समाना पड़े बल्कि समस्त जीव जंतुओं का जीवन भी बचाया जा सकेगा। 

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