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ब्रिक्सः बड़ा लेकिन बेहतर!

अपनी भिन्न संरचना को देखते हुए ब्रिक्स ने केवल एक सीमित उद्देश्य पूरा किया है निकट भविष्य में इसके और अधिक विस्तृत होने पर भारत के सामने अवसर और चुनौतियां दोनों हैं। - के.के. श्रीवास्तव

 

ना ना करते अंततः ब्रिक्स के विस्तार पर भारत भी मान गया है। मूल ब्रिक्स देशों के नवीनतम शिखर सम्मेलन के बाद समूह का विस्तार हुआ है और इसमें 6 और देश - सऊदी अरब, ईरान, मिस्र, अर्जेंटीना, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात को शामिल किया गया है। ब्रिक्स समूह में इन देशों को शामिल करने के लिए चीन और रूस बहुत पहले से रणनीतिक मेहनत कर रहे थे। हालांकि भारत हाल तक एक तरह से अनिच्छुक था, लेकिन हानि-लाभ के जोड़ घटाव के बाद भारत ने भी अब हां कर दी है।

छः सदस्य देशों के शामिल होने के बाद विस्तारित समूह दुनिया की 46 प्रतिशत आबादी और इसके 30 प्रतिशत आर्थिक उत्पादन का प्रतिनिधित्व करेगा। वर्तमान में पांच सदस्यीय समूह दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी को नियंत्रित करता है और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 26 प्रतिशत ही उत्पन्न करता है। हालांकि सबसे बड़ा प्रभाव वैश्विक तेल उत्पादन की हिस्सेदारी के संदर्भ में होगा, जो मौजूदा 18 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो जाएगा। दूसरी ओर समूह की तेल खपत हिस्सेदारी 22 प्रतिशत से बढ़कर 36 प्रतिशत हो जाएगी। इसी प्रकार वैश्विक व्यापार में उनकी हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाएगी और वैश्विक सेवा व्यापार में उनकी हिस्सेदारी 12 प्रतिशत से बढ़कर 15 प्रतिशत हो जाएगी। अंततः वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में उनकी हिस्सेदारी दुनिया के कुल 39 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत हो जाएगी।

इस प्रकार यह एक तरह से एक नए दक्षिण के उदय का संकेत देता है, जो सभी मामलों में विशेष रूप से वैश्विक व्यापार, ऊर्जा, सुरक्षा, वैश्विक मामलों और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा में वैश्विक उत्तर के अधिपति को संतुलित चुनौती देगा। अगर समूह के सदस्य एकजुट होकर काम करेंगे तो व्यापार की नई निर्धारित शर्तों के तहत वैश्विक व्यापार दक्षिण के पक्ष में झुक जाएगा। वास्तव में एक नई वैश्विक व्यवस्था बन सकती है। समूह के भीतर चीन और भारत मिलकर सकल घरेलू उत्पाद में 74 प्रतिशत का योगदान दे सकते हैं। इस क्रम में एक जो महत्वपूर्ण बात होगी, वह यह है कि चीन ब्रिक्स के 70 प्रतिशत को नियंत्रित करता है। नए समूह के नए सदस्यों के जुड़ जाने के बाद केवल 62 प्रतिशत ही उसके हिस्से होगा, जबकि भारत के लिए यह संख्या 13 प्रतिशत से घटकर 12 प्रतिशत हो जाएगी। मिलकर बने नए समूह में 3.7 अरब लोग शामिल होंगे।

दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के कारण यह समूह एक महत्वाकांक्षाओं का समूह बन गया है। वहीं पश्चिम के अधिपति के खिलाफ एक मजबूत दीवार की तरह खड़ा हुआ है। वास्तव में इस ब्लॉक का जन्म मौजूदा वैश्विक आर्थिक परिदृश्य को चुनौती देने के लिए ही वर्ष 2009 में किया गया था। इसकी स्थापना उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के लिए की गई थी, जिसमें बाद में दक्षिण अफ्रीका को जोड़ा गया। जहां तक आर्थिक संभावनाओं का सवाल है, तो विशुद्ध रूप से भारतीय परिपेक्ष में भी चीज आशाजनक होती दिखाई देती हैं। लेकिन इससे पहले हमें समूह के कुछ लक्षित निहितार्थों के बारे में भी जानना होगा।

नई विश्व व्यवस्था में यह विकासशील देशों की आवाज का अधिक सशक्त रूप से प्रतिनिधित्व कर रहा है। इसके नियंत्रण में तेल होगा। इसके सदस्य देश एक साथ ही उत्पादक भी होंगे और उपभोक्ता भी होंगे। 2001 के शिखर सम्मेलन के दौरान सदस्यों के बीच व्यापार में उपयोग के लिए ब्रिक्स मुद्रा स्थापित करने की बात चल रही थी, लेकिन अंततः इस पर कोई काम नहीं हुआ। हाल ही में अब डी-डालरीकरण की संभावना बढ़ी है, लेकिन हम कई असुविधाजनक तत्वों से अपनी आंखें नहीं हटा सकते। अपनी मूल महत्वाकांक्षाओं के बावजूद यह अपने वादे को पूरा करने में काफी हद तक विफल रहा है। तो क्या सदस्य देशों के विस्तार से यह आपसी सहयोग हासिल करने में सफल हुआ है? चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि ब्रिक्स, जी-7 को चुनौती दे सकता है, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि जी-7 अमेरिका द्वारा संचालित विकसित देशों का एक राजनीतिक गठबंधन है। वे राजनीतिक और कूटनीतिक मुद्दों पर समान विचार रखते हैं और उनके बीच मतभेद भी बहुत ही कम है। 

दूसरी और ब्रिक्स में शासन मॉडल का मिश्रण है। लोकतंत्र से लेकर एक पार्टी शासन तक के देश इसमें शामिल है। इसके अलावा पड़ोसी देश चीन और भारत के बीच कई मामलों में एक दूसरे के प्रति अविश्वास के साथ आशंकापूर्ण संबंध है, दोनों के बीच सीमा विवाद अभी नहीं सुलझा है। हालांकि दोनों देशों ने लड़ाई नहीं की है। इसके अलावा रूस और चीन के बीच हाल ही में काफी खींचतान हुई है, जिससे भारत को काफी असुविधा झेलनी पड़ी है। इसी तरह ईरान का पश्चिमी प्रतिबंधों के अधीन रहने का एक लंबा इतिहास रहा है। हालांकि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात खुद को अनुचित पश्चिमी प्रभावों से मुक्त करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन समूह के भीतर ईरान का अरब साम्राज्यों के साथ एक तनावपूर्ण संबंध है।

बावजूद यह आशा की जानी चाहिए कि आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने से विस्तारित ब्रिक्स को इन लंबे समय तक चलने वाले संघर्षों से परे देखने और आम चुनौतियों का सामना करने के लिए काम करने में मदद मिलेगी। इसमें विकास की गतिविधियों के लिए धन सुरक्षित करना, बढ़ी हुई ट्रेडिंग को प्रोत्साहित करना, डॉलर की ताकत को चुनौती देने के लिए काम करना और सह क्रियात्मकता प्रदान करते हुए एक दूसरे को समर्थन करने से समूह मजबूत होगा। और सबसे बढ़कर की आपसी समूह को मजबूती प्रदान करने के लिए अर्थ एवं व्यापार को मूल मंत्र बनाना होगा।

जहां तक भारत का सवाल है, भारत और ब्रिक्स देश के बीच विपक्षी व्यापार बढ़ाने की गुंजाइश मौजूद है। उदाहरण के लिए भारत मिस्र से लकड़ी, खाद्य उत्पादों, प्लास्टिक और रबड़ का आयात बढ़ा सकता है। इसी तरह बहुत सारे उत्पाद हैं, जिन्हें भारत उन्हें निर्यात कर सकता है। वर्तमान में भारत का संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और यहां तक कि अर्जेंटीना के साथ नकारात्मक व्यापार संतुलन चल रहा है। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को शामिल करने के साथ 2022-23 में भारत के कुल व्यापार में संशोधित ब्रिक्स हिस्सेदारी लगभग 30 प्रतिशत है। इथोपिया के साथ भारत का व्यापार नगण्य है। भारत इथोपिया के साथ अपना व्यापार बढ़ा सकता है और सऊदी अरब के साथ अपने मौजूदा व्यापार को दुगना कर सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत अपना व्यापार बढ़ाकर वैश्विक व्यापार मंचों पर पश्चिमी हितों का भी मुकाबला करने में समर्थ हो सकता है। राजनीतिक मोर्चे पर भी भारत अपनी क्षमता के साथ समूह देश को लेकर सीमा पार आतंकवाद, चीन के साथ सीमा विवाद आदि को गंभीरता से उठा सकता है।

कोरोना महामारी के बाद से ही चीन वित्तीय मानदंडों पर लगातार संघर्ष कर रहा है, वैश्विक बाजार में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के लिए भारत के लिए यह एक महान अवसर साबित हो सकता है। भारत ब्रिक्स देशों को साथ लेकर अपनी व्यापारिक गतिविधियां तेज कर सकता है। क्योंकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन में इस समय आर्थिक विकास में गिरावट, निर्यात का सिमटना, परेशान संपत्ति बाजार, खपत की मांग में कमी आदि कई तरह की प्रतिकूलताएं उभर कर आई हैं।

हालांकि समूह के पिछले रिकार्ड को देखते हुए भी कोई भी आदमी आशावादी नहीं हो सकता, क्योंकि इसका एक राजनीतिक और आर्थिक विरोधाभास है, कुछ ऐसे अनसुलझे प्रश्न हैं जिसका सुलझना अभी न सिर्फ मुश्किल है, बल्कि इसके बढ़ने की संभावना अधिक है। नए संकेतों के मुताबिक चीन भारत के साथ टकराव के मूड में है। नई दिल्ली में आयोजित जी-20 के सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति ने आने से मना कर इसका संकेत दिया है। साथ ही चीन और रूस दोनों मिलकर ब्रिक्स को अमेरिका के नेतृत्व वाली बहुपक्षी प्रणाली के मुकाबले खड़ा करने की आकांक्षा रखते हैं, क्योंकि वह अधिकतम रूप से पश्चिमी प्रतिबंधों और दबाव का सामना करते हैं।

ऐसे में भारत के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि ब्रिक्स के विस्तारित समूह को चीन के प्रभुत्व वाला मंच बनने से रोके। भारत कूटनीतिक रूप से इसके लिए प्रयास कर रहा है लेकिन चीन और रूस की उपस्थिति में भारत कितना कर पाता है, यह भविष्य के गर्त में है। हालांकि भारत के लिए इसकी उपयोगिता पर अभी कुछ स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है, लेकिन आशा की जानी चाहिए कि भारत इस समूह का बेहतर इस्तेमाल कर सकेगा।

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