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क्या इतिहास मायने रखता है?

केवल मिथकों दृष्टांतों और अपुष्ट तथ्यों के आधार पर इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास निंदनीय है, क्योंकि शिक्षार्थियों को इतिहास से जानने और सीखने का अधिकार है। ऐसे में शासकों के इच्छानुसार तैयार नया दस्तावेज इतिहास हो ही नहीं सकता। — डॉ. जया कक्कड़

 

यह जानते हुए भी कि किसी भी शिक्षित व्यक्ति के लिए इतिहास का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है, के बावजूद इसके उचित पठन-पाठन का इंतजाम स्कूल के स्तर पर अब तक नहीं हो पाया है। इसका एक कारण शायद विज्ञान और वाणिज्य के मुकाबले इतिहास का बाजार मूल्य कम होना हो सकता है। स्थापित सत्य है कि हमारे अतीत का ज्ञान हमें न केवल हमारे भविष्य का सामना करने के लिए तैयार करता है बल्कि भविष्य को आकार भी देता है। एक युवा मस्तिष्क को इतिहास का ज्ञान प्रदान करके तर्कसंगत सोच में ढ़ाला जा सकता है। वहीं उसे उसी इतिहास का ज्ञान रंगीन प्रिज्म के माध्यम से देकर हठधर्मिता की दिशा भी दी जा सकती है। इतिहास अतीत को हमारे वर्तमान से जोड़ता है। इतिहास एक सार्वजनिक लोकाचार बनाता है। यह हमारी संस्कृति, हमारे सोचने के तरीके और अभिनव को आकार देता है। मूर्त और अमूर्त विरासत प्राचीन से लेकर आधुनिक तक अतीत की घटनाओं और समाज शासन नैतिकता से संबंधित वर्तमान मानदंडों के बीच इतिहास एक कड़ी स्थापित करता है। यदि इतिहास को धर्म, जाति या वाद के चश्मे से देखा जाएगा, पक्षपात किया जाएगा तो यह हमारी वर्तमान बाधाओं से निपटने की हमारी क्षमता से गंभीर रूप से समझौता ही करेगा। हमारे भविष्य को उत्पादक तरीके से आकार देने के लिए टिकाऊ समाधान देने की वजाए ऐसा अभिनव खड़ा कर सकता है जिसके परिणामस्वरूप हमारे चारों तरफ अराजकता फैलने की संभावना बनी रहेगी।

वर्तमान समय में देश में इतिहास शिक्षण गहरे राजनीतिक विवादों में घिर गया है। हालांकि इस तरह की परिघटना केवल भारत में ही नहीं है। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि कोई भी देश अपने अतीत के बारे में इस तरह की बहसों से अछूता नहीं है। उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं कि अमेरिका, हिरोशिमा की ऐतिहासिक विरासत से असहज है। ब्रिटेन कभी भी गांधी के साथ शांति नहीं पा सकता। इसका सीधा अर्थ यह है कि इतिहास सार्वजनिक रूप से साझा अतीत के अलावा और कुछ नहीं है। इतिहास सामूहिक स्मृति और पहचान प्रदान करता है। ऐसे में जब एनसीईआरटी जैसे सार्वजनिक संस्थानों द्वारा इस इतिहास को आधिकारिक तौर पर पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से बताया जाता है तो इसे प्रमाणीकरण और अनुमोदन की मुहर लगती है। एक तरह से सरकार के संरक्षण में निकले पाठ्यक्रम ब्रह्म वाक्य की तरह हो जाते हैं। युवा मस्तिष्क जब इन अधिकारिक स्रोतों से सीखते हैं, पढ़ते हैं, तो जल्दी ही उस रंग में ढ़ल जाते हैं अथवा उन्हें उसी के अनुरूप ढ़ाला जा सकता है। ऐसे युवा दिमाग भले ही अगोचर रूप से राजनीतिक स्वभाव प्राप्त कर लेते हैं, पर बाद में उन्हें राजनीति सोशल अर्थव्यवस्था में शासकों आदि के बारे में कुछ और सत्य स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यही कारण है कि अधिकांश राष्ट्र सामूहिक स्मृति और पहचान बनाने के लिए इतिहास का उपयोग करते हैं। ऐसी शिक्षा को किसी समस्या का हल करने के साधन के रूप में नहीं माना जा सकता है बल्कि एक सामूहिक पहचान का दलदल बढ़ाने का प्रयास हो रहा है जो एक अन्य विरोधी के खिलाफ लड़ रहा है।

पहले जो कुछ भी हुआ, इतिहास उन सभी घटनाओं का एक वफादार निष्पक्ष क्रॉनिकल है। यह लोगों के कार्यों, निर्णय, एैच्छिक क्रियाओं और व्यवहारों का अध्ययन है। इससे हमें आज के पाठों को पूरा करने में मदद मिलनी चाहिए। इसका अध्ययन करने का उद्देश्य समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था के बारे में बहुत सहिष्णु और बौद्धिक रूप से कठोर बहस के केंद्र में खड़ा होना है। किंतु वर्तमान में विरोधी विचार और मुक्त बहस को एक तरह से दबा दिया गया है। इतिहास उन लोगों से जुड़ी घटनाओं कार्यों और व्यक्तियों को बदनाम करने की क्षमता प्रदान करता है, जो कथा को नियंत्रित करते हैं। यह सभी शासन के लिए सच है। लेकिन इतिहास को समझना और इसे उन लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करना, जो इसे नियंत्रित कर सकते हैं, एक तरह से इसका दुरुपयोग है। इतिहास सांस्कृतिक युद्धों से लड़ने का उपकरण नहीं है। दुर्भाग्य रूप से अधिकांश शासन तंत्र में यह उन लोगों द्वारा संचालित किया जाता है जो जानबूझकर अपने स्वयं के वैचारिक एजेंडे को थोपते हैं। इतिहास अस्मिता की राजनीति और आत्म अभिमान की दासी बन गया है। यह एक आयामी समझ की ओर ले जा रहा है। ऐसे में चौराहे पर खड़े इतिहास को समय के रुझानों का पालन करने से इंकार कर देना चाहिए।

वर्तमान में अति राष्ट्रवाद बहुसंख्यकवाद और सांस्कृतिक अधिपतिवाद की एक लकीर खींची गई है। इस दृष्टिकोण के मुताबिक भारत अनिवार्य रूप से हिंदू सभ्यता की विरासत है। इसलिए इसी आईने में इतिहास को फिर से लिखने का एक सचेत प्रयास हो रहा है। इस दृष्टिकोण की तुलना पहले के विचारों से की जा सकती है। आज के राष्ट्रवाद की तुलना ब्रिटिश शासन के विरोध वाले राष्ट्रवाद से होनी चाहिए। आजादी की लड़ाई में राष्ट्रवाद के नाम पर सभी को जोड़ने का प्रयास किया गया था। सभ्यता की विरासत को हिंदू धर्म से जोड़ने का कोई प्रयास नहीं था, वह एक अलग इतिहास था, जो लिखा गया था। लेकिन इतिहास के पाठ्यक्रम को अपने मुताबिक सेट नहीं किया जाना चाहिए। विपरीत विचारों के लिए जगह होनी चाहिए, विचारों को विचारों से लड़ने की आजादी होनी चाहिए। एक पाठक को सभी दृष्टिकोण से परिचित कराया जाना चाहिए और उसे आलोचनात्मक रूप से बहस करने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक लोकतांत्रिक सिद्धांत का भी उल्लंघन नहीं होना चाहिए। विचारों को दबाया नहीं जाना चाहिए और न ही बहसों को मारा जाना चाहिए बल्कि रूढ़िवादी और सुधारवादियों के बीच चर्चा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से हमारा इतिहास लेखन समय के प्रमुख राजनीतिक विचारों से मुक्त नहीं रहा है, चाहे वह पहले का नेहरूवाद हो या अब का बहुसंख्यकवाद।

इतिहास काल्पनिक नहीं, बल्कि तथ्यात्मक होना चाहिए। इतिहास को राय बनानी चाहिए, राय से इतिहास बनाने का प्रयास नहीं होना चाहिए। हालांकि अधिकांश समाज शिक्षार्थियों के मन, विचार और भावनाओं को नियंत्रित करने का प्रयास कर सकते हैं। आज युवाओं को चिंतनशील या विश्लेषणात्मक होने से दूर करने का तेजी से प्रयास किया जा रहा है और रट्टू संस्कृति को प्रोत्साहित किया जा रहा है जो कि अत्यधिक प्रतिस्पर्धी माहौल से निकलती है।

इतिहास कोई आकर्षक विज्ञान नहीं है, जिसमें प्रबंधन, निर्माण, चिकित्सा, ऊंची पगार वाली नौकरी 16 लेन का राजमार्ग आज के सुनहरे सपने दिखाए जा सके, इसीलिए आज का इतिहास मध्यवर्ग की आकांक्षाओं के परिदृश्य से लगभग बाहर हो गया है। फिर भी स्थापित तथ्य है कि इतिहास पक्षपाती या निष्पक्ष राष्ट्र, राज्य के बड़े राजनीतिक लोकाचार को आकार देने में एक महान भूमिका निभाता है। इसके पठन-पाठन को लेकर अत्यधिक सावधानी की जरूरत होती है, क्योंकि खराब ढंग से पढ़ाया गया इतिहास वास्तविक ढंग से पढ़ाये गए इतिहास से कई बार ज्यादा मायने रखता है। क्योंकि खराब शिष्य विश्लेषण की क्षमता से दूर रहता है। अन्य तरह की जिज्ञासाएं जगाने में पूरी तरह से विफल रहता है, इसीलिए खराब इतिहास भावनात्मक अवरोध पैदा करता है।

इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य लेकिन सच्चाई है कि हम अपना इतिहास खुद लिखते हैं। ज्ञान के निकाय के रूप में इतिहास की धारणा सही या गलत अपने समाज के अनुसार बनाया और तैयार किया गया है। वास्तव में अतीत की घटनाओं का कोई उद्देश्य पूर्ण इतिहास शायद अब तक प्रस्तुत नहीं है। केवल मिथकों दृष्टांतों और अपुष्ट तथ्यों के आधार पर इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास निंदनीय है, क्योंकि शिक्षार्थियों को इतिहास से जानने और सीखने का अधिकार है। ऐसे में शासकों के इच्छानुसार तैयार नया दस्तावेज इतिहास हो ही नहीं सकता।        

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