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पश्चिमी देशां का प्रपंच है पर्यावरण रैंकिंग

आजादी के 75वें साल यानि कि अमृत काल में भी अगर हम विदेशियों के गढ़े सांचे में खुद को फिट करने की कोशिश करेंगे तो वे कभी भी हमें वह मान नहीं देंगे, जिसके हम वास्तव में हकदार है। — अनिल तिवारी

 

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘जिस तरह लोगों को धूल, धूप, धुआं, गर्मी और गरीबी भूले से भी रास नहीं आती, ठीक वैसे ही अमीर मुल्कों को गरीब मुल्कों की तरक्की फूटी आंख नहीं सुहाती।‘ भारत के गोर्की कहे जाने वाले प्रेमचन्द की उक्त उक्ति का संदर्भ भले ही अलहदा था, पर पर्यावरण की रैंकिंग को लेकर अमीर विकसित पश्चिमी मुल्कों का नजरिया अफ्रीकी, एशियाई, गरीब और विकासशील देशों के प्रति कुछ इसी तरह का है। मनमाने मानकों के आधार पर तैयार की गई हालिया अमेरिकी रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है।

गत दिनों आए एनवायरनमेंट परफारमेंस इंडेक्स में दुनिया भर के 180 देशों में से भारत को 180वें स्थान पर रखा गया है। अमेरिका की येल और कोलंबिया यूनिवर्सिटी की ओर से जारी इस रैंकिंग को लेकर काफी हंगामा भी हुआ है। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने इस रैंकिंग को अवैधानिक बताया है, वहीं कई शोध संस्थाओं का कहना है कि इसमें बहुत सारी खामियां है। इसकी गहराई में जाने पर पता चलता है कि इसकी जो आलोचनाएं हो रही है, वह बिल्कुल सही है।

अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों द्वारा की गई रैंकिंग को दुनिया के कई देशों ने नजरअंदाज किया है। चीन को इस रैंकिंग में 160वें नंबर पर रखा गया है, लेकिन चीन ने इसे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया है। 164वें स्थान पर इंडोनेशिया है। वहां की सरकार ने भी अब तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। सिर्फ भारत में ही इस रैंकिंग को लेकर बहुत चिंता जताई जा रही है। इसकी वजह क्या है? यह अपने आपमें एक पड़ताल का विषय है। मेरी अपनी राय है कि आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी लगता है हम औपनिवेशिक सोच से अभी पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाए हैं, वरना हम यूरोप और अमेरिका की किसी भी रैंकिंग को इस तरह से तवज्जो नहीं देते। यह हमारे असुरक्षा के भाव को दिखाता है। हमारे मन के भीतर कहीं न कहीं अभी भी यह बात छिपी हुई है कि यूरोप और अमेरिका हमारी समय-समय पर बड़ाई करें। इसी कारण हम चाहते हैं कि उन विकसित देशों के छोटे इंस्टिट्यूशन भी समय-समय पर अगर हमें शाबाशी देते हैं, हमारी पीठ ठोकते हैं, तो हम और हमारे शासक अपने आपको धन्य मानते हैं तथा उस शाबाशी का ढ़िढौरा हम दुनिया भर में पीटते हैं। लेकिन ठीक इसके उलट वहां के जब कोई छोटे से भी संस्थान हमारी बुराई करते हैं तो हम खाद, पानी लेकर उसके खिलाफ बोलने लगते हैं। यहां सवाल केवल हमारे दायित्व बोध का ही नहीं, बल्कि हमारी मानसिकता का भी खड़ा होता है। यह जानते हुए भी कि वे विकसित देश हमें तभी मान्यता देंगे जब हम उनकी बात को आंख मूंदकर मानेंगे और जैसा वह कहेंगे उसी तरह सोचेंगे। अगर यह नहीं होगा तो वह हमें कभी भी अच्छी रैंकिंग नहीं दे सकते।


ईपीआई के शीर्ष पांच देशों का कार्बन और कचरा बनाम भारत

क्र.       देश                                                       कार्बन उत्सर्जन                                           कचरा

1.        डेनमार्क                                                          0.85                                                   5.8
2.        ब्रिटेन                                                              0.46                                                   5.4
3.        फिनलैंड                                                         0.57                                                   8.0
4.        माल्टा                                                             0.69                                                   3.2
5.        स्वीडन                                                           0.45                                                   4.2
           भारत                                                             0.09                                                   1.8

स्रोतः फोरेस्ट डिपार्टमेंट


ईपीआई का एक फार्मूला है कि अगर आपका देश अमीर है, अगर आपकी जनसंख्या कम है, अगर आपका देश छोटा है, तो आपको अच्छा कहेगा। अगर आपका देश गरीब है, अगर आपकी जनसंख्या अधिक है, अगर आपके देश का आकार बड़ा है, तो वह हर हाल में खराब ही कहेगा। रिपोर्ट को सरसरी नजर से देखने पर भी यह तथ्य अपने आप बाहर निकल आता है कि ईपीआई रैंकिंग में यूरोप के छोटे-छोटे देशों को टॉप पर रखा है। अबकी बार दोनों विश्वविद्यालयों द्वारा प्रकाशित सूची में डेनमार्क, ब्रिटेन, फिनलैंड, माल्टा और स्वीडन टॉप पर हैं। वहीं खराब देशों की सूची में बड़ी आबादी वाले एशिया और अफ्रीका के बड़े देश हैं। क्या ऐसी रैंकिंग उचित है? आज की तारीख में पर्यावरण की जो चुनौतियां भारत या चीन में है, क्या वही माल्टा या फिनलैंड जैसे देशों में नहीं है। दिल्ली में किसी एक कॉलोनी की जनसंख्या माल्टा से ज्यादा है। फिनलैंड की जनसंख्या हमारे छोटे-छोटे जिलों के बराबर है, तो क्या भारत या चीन जैसे उप महाद्वीपों को माल्टा, फिनलैंड, डेनमार्क और ब्रिटेन से आप रैंक कर सकते हैं। इसका जवाब है कि ‘हां’ आप रैंक कर सकते हैं, लेकिन उस रैंकिंग के लिए आपको एक बहुत ही सटीक वैज्ञानिक तरीके का प्रयोग करने की जरूरत होगी। दुर्भाग्य से वह सटीक वैज्ञानिक तरीका विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली इस तरह की रैंकिंग में प्रयोग नहीं होता है।

ईपीआई ने अपने अध्ययन में गलत मानकों का प्रयोग किया। जलवायु परिवर्तन के हिस्सों को मनमाफिक दर्ज किया है। जलवायु परिवर्तन की रैंकिंग को भी ग्रोथ रेट के आधार पर निकाला है। ज्यादा ग्रोथ रेट पर कम नंबर दिया, वहीं पर कैपिटा कार्बन उत्सर्जन का मान भी कम कर दिया। यही नहीं उपभोग और कचरे के इंडिकेटर का तो उसने प्रयोग ही नहीं किया।

इस तरह की रैंकिंग से दुनिया भर के अविकसित या विकासशील देश हमेशा पिछडे ही रहेंगे, क्योंकि उनकी शुरुआत ही बहुत कम अंकों से होती है। वहीं विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन की स्थिति भले ही एकदम उच्च स्तर पर हो, लेकिन उनका ग्रोथ रेट कम होगा। विकसित और विकासशील देशों का उत्सर्जन कम होने पर भी इनका ग्रोथ रेट ज्यादा हो जाएगा। इस तरह के अनेक ऐसे मानक उन लोगों द्वारा तैयार किए गए हैं जो केवल उन्हीं अमीर देशों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए हैं। पर्यावरण की रैंकिंग के लिए पश्चिम के देशों ने षडयंत्रपूर्वक इस खेल को रचा है। उनकी एक ही मंशा है कि दुनिया भर के गरीब और अविकसित देशों को अपना पिछलग्गू  बनाए रखना।

इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया की तरह भारत में भी पर्यावरण की समस्या है, लेकिन भारत में पर्यावरण की समस्या दुनिया की सबसे ज्यादा बड़ी है, यह कहना न्यायोचित नहीं है। ऐसे में ईपीआई के आकलन की आलोचना अवश्य होनी चाहिए। लेकिन भारत के पर्यावरण के बारे में यहां के वैज्ञानिकों की जो राय है उसे नजरअंदाज करना घातक होगा। आज पानी से लेकर वायु प्रदूषण, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, जलवायु परिवर्तन, जंगलों का विनाश जैसे किसी भी इंडिकेटर को देखा जाए तो पता चलता है कि भारत में भी स्थिति संतोषजनक नहीं है।

ऐसा नहीं है कि भारत में पर्यावरण की सुरक्षा पर काम नहीं हो रहा है, यहां  अक्षय ऊर्जा सिस्टम पर तेजी से काम चल रहा है, अभी-अभी 1 जुलाई 2022 से हमने सिंगल यूज प्लास्टिक की 19 चीजों को बैन कर दिया है। स्वच्छ भारत मिशन पहले से ही चलाया जा रहा है। इन सबके बावजूद जो पर्यावरण के मुद्दे हैं और जो समस्याएं हैं उनके बाबत अभी और भी काम किया जाना चाहिए। इसलिए अब समय आ गया है कि हम अपना खुद आकलन करें, हम अपनी खुद की रैंकिंग करें, ताकि हम अपने देश की तरक्की खुद से कर सके और हर साल देख सके कि पर्यावरण के मुद्दे पर हम कितना आगे बढ़े या तय मानक से पीछे हटे। हमारे देश में बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं, जो यह काम कर सकती है। खुद नीति आयोग यह कर सकता है। जिससे हम राज्यों को रैंक करते हुए देख सकते हैं कि कौन सा राज्य पर्यावरण के मामले में कितना आगे है और कौन सा राज्य कितना पीछे हैं। फिर इस प्रतिस्पर्धा के साथ हम राज्यों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी कर सकते हैं।

वर्तमान में बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन निर्विवाद रूप से मानव इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। मानव जनित जलवायु परिवर्तन जैव विविधता का क्षय, मरुस्थलीकरण, जलवायु और प्रवाह, रसायनिक प्रदूषण, मिट्टी का क्षरण, जंगल का विनाश, आदि का प्रभाव अब वैश्विक परिस्थितिकी तंत्र जो धरा पर जीवन के संग कई स्वरूपों में, जिसमें मानव जीवन भी शामिल है, का मूल है कि अमित असंतुलन के रूप में सामने आ रहा है। प्रकृति के संचरण की विकराल होती समस्या की सुगबुगाहट हालांकि पिछली सदी से ही शुरू हो गई थी और विज्ञान की सटीक व्याख्या के आधार पर जलवायु परिवर्तन सहित तमाम पर्यावरणीय मुद्दों को लगभग वैश्विक स्तर पर आधी सदी पहले ही उठाया गया था, पर इस दिशा में किए गए सारे प्रयास अब तक नाकाफी साबित हुए हैं।

पृथ्वी की उत्पत्ति से अब तक के 4.6 बिलियन सालों का जलवायु और पर्यावरण का इतिहास काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है, पर आखिरी हिमयुग के बाद से लगभग संतुलन की स्थिति रही जो पिछले 200 सालों में खासकर पिछले 5 दशकों में अभूतपूर्व से रूप से असंतुलित होकर मानव जीवन के अस्तित्व के संकट का रूप ले चुकी है। पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति 3.8 बिलीयन वर्ष पहले के साथ पर्यावरणीय घटकों और जीवन की मूलभूत प्रक्रिया एक दूसरे को प्रभावित करते हुए वर्तमान स्वरूप तक पहुंची है। पृथ्वी की उत्पत्ति के समय की संरचना प्रक्रिया काफी उम्र थी, पर घटक काफी सरल थे। प्रारंभ में केवल 12 मिनिरल्स रहे थे। जीवन की उत्पत्ति भी आप सीजन के बिना हुई, फिर एक कोशीय प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से पहली बार ऑक्सीजन बनने लगी जो सबसे पहले अथाह समुद्र में धुली और धीरे-धीरे पृथ्वी की मूल संरचना को संतुलित करने लगी जिससे कि मिनिरलों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई और आज लगभग तिरालिस सौ  मिनरल्स मौजूद हैं प्रकाश संश्लेषण वाले एक कोशीय जीवन की प्रचुरता ने वायुमंडल को भी ऑक्सीजन से संतृप्त कर दिया और 600 मिलीयन साल पहले ओजोन की परत बननी शुरू हुई जिसके कारण समुद्र से ईतर जमीन का वातावरण जीवन के अनुकूल ठंडा हुआ इसके बाद शुरू हुई जीवन की विविधता का दौर और इसमें मानव का स्वरूप सबसे ऊंचे आसन पर विराजमान हुआ। जीवन की उत्पत्ति से अब तक प्रकृति के घटकों और असंख्य जीवो के बीच के आपसी अंतर संबंधों का एक गुण परंतु गतिशील संतुलन का जाल बनता रहा जो बदलती परिस्थितियों में भी निरंतर अनुकूल और अनुकरणीय रहा है, जिसमें हर एक घटक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे को प्रभावित करता रहा है। विकास के क्रम में मनुष्य ने ही मशीनों को बढ़ावा दिया औद्योगिकरण, उपभोक्तावाद के बाद वैश्वीकरण की लहर आई, जिसका असर दुनिया के हर भौगोलिक बसावट में दिखा। मुनाफे की अंधी दौड़ के पीछे फिर अचानक से केवल तकनीक आधारित उत्पादन और उपभोग का दौरा आ गया। जिसके मूल में बाजारवाद और मुनाफा आधारित विकासवाद का झंडा ऊंचा था। लेकिन जब तक हम सह पाते मुनाफा आधारित आर्थिक विकास बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या भोक्ता बाद वैश्वीकरण और सूचना क्रांति पर सवार होकर कब प्राकृतिक घटकों के अंतर संबंधों के गूढ़ अंतरजाल को तोड़ जलवायु परिस्थितिकी की तबाही आ पहुंची हमें पता ही नहीं चला। अब तो हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए धरती भी छोटी पड़ने लगी है।

समाधान केवल तकनीकी से नहीं हो सकता जब तक हम सामाजिक व्यवहार और व्यक्तिगत आचरण को नहीं जोड़ेंगे तब तक प्रकृति के आधार को हम ठीक नहीं कर पाएंगे प्लास्टिक उपयोग की लत समुद्र की सांसे रोक रही है यहां तक कि समुद्री नमक में भी मिलकर वह खाने के साथ हर आदमी के पेट में जा रही है भारत सरकार ने प्लास्टिक पर बैन लगा कर एक उम्दा काम किया है अब जरूरत है कि समाज इसके लिए आगे बढ़े तथा सुरक्षा से ऐसे जहरीली चीजों का परित्याग करें।

हम पर्यावरण रक्षा के लिए स्वदेशी तकनीक का अधिकाधिक प्रयोग करें। साथ ही साथ भौतिक दुनिया की चकाचौंध और विकसित देशों की नकल की आदत से दूर रहते हुए अपने विकास और विकास से संबंधित आंकड़ों और बड़े पैमाने पर रैंकिंग की पद्धति विकसित करें। भारत के डिजीटल मानकों का दुनिया ने लोहा मान लिया है। अब अगर विभिन्न क्षेत्रों की रैंकिंग चाहे वो शिक्षा की हो, चिकित्सा की हो, पर्यावरण की हो, हमें अपनी तासीर के मुताबिक मानक तय करने होंगे। आजादी के 75वें साल यानि कि अमृत काल में भी अगर हम विदेशियों के गढ़े सांचे में खुद को फिट करने की कोशिश करेंगे तो वे कभी भी हमें वह मान नहीं देंगे, जिसके हम वास्तव में हकदार है।       
 

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