आरसीईपी से बाहर निकल, बड़े संकट से बचा भारत
हाल ही में जापान, चीन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया सहित 15 देशों ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस व्यापार ब्लॉक से पिछले साल ही भारत बाहर आ गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते साल 4 नवंबर को आरसीईपी समझौते में शामिल होने से इंकार कर दिया था। यदि भारत इस समझौते में शामिल हो जाता तो उसे इन मुल्कों से 74 से 92 प्रतिशत उत्पाद शून्य टैरिफ पर आयात करने पड़ते। देश में इस समझौते का विनाशकारी परिणाम होने की आशंका के कारण प्रधानमंत्री को यह निर्णय लेना पड़ा। क्योंकि इस समझौते का विनिर्माण क्षेत्र, डेयरी, कृषि, फार्मास्यूटिकल पेटेंट कानून और सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि के माध्यम से विध्वंसकारी परिणाम हो सकता था।
कई लोगों के द्वारा यह धारणा बनाई जा रही है कि आरसीईपी से बाहर होने के कारण भारत इस व्यापार ब्लॉक के देशों से पूरी तरह से कट जाएगा, जबकि सच्चाई यह है कि इन 15 देशों में से 10 देश आसियान के हैं और आसियान देशों के साथ हमारा पहले से ही एक मुक्त व्यापार समझौता है। यह बात अलग है कि इस आसियान समझौते के बाद इन देशों के साथ हमारे व्यापार घाटे में ढाई गुणा से भी ज्यादा वृद्धि हो गई है। इस बढ़ते व्यापार घाटे के कई कारण है, जिसमें से एक कारण यह भी है कि इस समझौते का गलत इस्तेमाल करते हुए चीन इन देशों के माध्यम से भारत को भारी मात्रा में माल निर्यात कर रहा है। यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) भारत के हितों के सर्वथा खिलाफ है और उसकी पुनर्समीक्षा की आवश्यकता है। आश्चर्य का विषय यह रहा कि इस एफटीए में समीक्षा का प्रावधान ही नहीं था। लेकिन राहत की बात है कि वर्तमान वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल के प्रयासों से आसियान देशों ने हाल ही में एफटीए की समीक्षा के लिए सहमति दे दी।
जापान और दक्षिण कोरिया के साथ भी हमारे पहले से ही मुक्त व्यापार समझौते हैं। इन मुक्त व्यापार समझौतों के बाद भी हमारा इन देशों के साथ भी व्यापार घाटा ढाई से तीन गुणा बढ़ गया। यानि कह सकते हैं कि अभी तक इन 12 मुल्कों के साथ जो एफटीए हुए हैं, उसका भारी खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा है। देश के कृषि, डेयरी और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्रों में यह भय व्याप्त हो गया था कि यदि अब हमने चीन, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को भी शामिल करते हुए अधिक व्यापक व्यापार समझौता किया तो हमारी अर्थव्यवस्था को और भी बड़ा नुकसान होगा।
यदि भारत ने आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर किए होते, तो हमारा डेयरी उद्योग समाप्त ही हो जाता। दूध पाउडर की हमारी घरेलू कीमत 290 रुपये प्रति किलोग्राम के मुकाबले, न्यूजीलैंड से यह 180 रुपये प्रति किलो आयात होता। अगर इतना सस्ता दूध आता है, तो लोग भारत में गायों को पालना ही बंद कर देंगे। इसी तरह, यह समझौता कृषि क्षेत्र को भी बुरी तरह से प्रभावित करता। जब आरसीईपी की वार्ता चल रही थी, हर उद्योग संगठन इस समझौते को रोकने के लिए पुरजोर प्रयास कर रहा था। जब बिना आरसीईपी समझौते के ही चीन ने भारतीय उद्योगों पर कहर ढा रखा है, तो आरसीईपी समझौते में निहित 74 प्रतिशत चीनी उत्पादों को शून्य शुल्क पर चीन से आयात करने की अनुमति हम कैसे दे सकते हैं?
जापान ने पहले घोषणा की थी कि यदि भारत आरसीईपी में शामिल नहीं होता है, तो वो भी शामिल नहीं होगा। पर अमेरिका में जो बाईडेन के चुनाव के बाद, जापान का रुख बदला गया। हालांकि, विशेषज्ञ आरसीईपी के मंच पर हाल के घटनाक्रमों को आश्चर्य के साथ देख रहे हैं, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से सदस्यों के दृष्टिकोण से अलग दिखता है, खासकर जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया के। ये देश चीन को, उसके विस्तारवादी मंसूबों से अलग करके नहीं देख सकते, क्योंकि चीन अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों का भी अनादर करता रहा है।
विशेषज्ञों की राय है कि आरसीईपी से चीन को सबसे ज्यादा फायदा होगा, जबकि अन्य देशों को अल्पकालिक तौर पर कुछ फायदा हो सकता है लेकिन ये देश चीन के विस्तारवादीवादी मंसूबों से बचे नहीं रह सकते। सवाल यह है कि शेष साझेदार देश चीन के आक्रामक रवैये से कैसे बचेंगे? जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया के लिए, यह आत्महत्या जैसा प्रयास प्रतीत होता है। यह समझौता इसलिएभी अजीब है कि जब पूरी दुनिया चीन के खिलाफ हो रही है, 14 देशों ने चीन को फायदा देते हुए उसके साथ आर्थिक संबंध गहरे किए हैं।इन देशों में शायद यह धारणा है कि ये देश चीनी बाजारों में पैर जमा सकते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन में लोहे का पर्दा सा है। कोई नहीं जानता कि उनके उत्पादों की लागत क्या है? चीनी सरकार द्वारा उत्पादकों को दी जाने वाली सब्सिडी कितनी है? कैसे चीनी सरकार अपने उद्योगों को दुनिया के बाजारों पर कब्जा जमाने के लिए मदद करती है? उल्लेखनीय है कि विभिन्न देश शेष विश्व से आने वाले आयातों पर कई गैर टैरिफ अवरोध भी लगाते हैं। चीन उन देशों में शामिल है जो अधिकतम गैर टैरिफ अवरोध लगाते हैं। हमें खुद को उनके लिए बाजार क्यों बनने देना चाहिए? हम अपने लिए उत्पादन क्यों नहीं करते और अपने लोगों को रोजगार क्यों नहीं देते? भारत ने बहुत दबाव के बावजूद आरसीईपी से बाहर निकलने का निर्णय लिया है।
हर देश अपनी आत्मनिर्भरता के बारे में सोचता है। ज्ञात हो कि वैश्वीकरण, एफटीए और डब्ल्यूटीओ जैसे बहुपक्षीय समझौतों के कारण, हमारा विनिर्माण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। हम विनिर्माण क्षेत्र में पहले ही बहुत पिछड़ चुके हैं। देश अपने विनिर्माण, डेयरी और कृषि को और नष्ट नहीं कर सकता। यदि हम आरसीईपी स्वीकार करते हैं, तो हमें अपनी आत्मनिर्भरता की नीति को छोड़ना होगा, क्योंकि एक तरफ घरेलू उद्योगों के माध्यम से आत्मनिर्भरता, और दूसरी तरफ टैरिफ से मुक्त आयात साथ साथ नहीं चल सकती।
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