swadeshi jagran manch logo

उच्च शिक्षा के मोर्चे पर बेहद सावधानी की जरूरत

शिक्षा को किसी भी रूप में एक निजी बसतु नहीं माना जा सकता इसके बजाय इसे योग्यता वस्त्तु के रूप में लिया जाना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो राज्य सभी पढ़ने योग्य विद्यार्थियों के लिए उच्च गुणवत्ता वाली विश्वविद्यालय प्रणाली प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता। - डॉ. जया कक्कड़

 

वर्ष 2020-21 के दौरान उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रों का नामांकन 4.1 करोड़ तक पहुंच गया। यह वर्ष 2019-20 से 7.5 प्रतिशत और वर्ष 2014-15 से 2.1 प्रतिशत की वृद्धि के साथ सकल नामांकन अनुपात भी 27.3 प्रतिशत तक पहुंच गया है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसमें महिलाओं का नामांकन 2.1 करोड़ था। वर्ष 2019-20 की तुलना में वर्ष 2020-21 में 70 प्रतिशत नए विश्वविद्यालय तथा 1453 नए कालेज जोड़े गए थे। देश में कुल 1043 उच्च शिक्षण संस्थान है, जिनमें 184 केंद्रीय वित्त पोषित है, जबकि बाकी राज्य पोषित है। 

विश्व गुरु बनने की राह पर चल रहा भारत एक ज्ञानी समाज के रूप में अपनी उपस्थिति चाहता है, लेकिन शिक्षा में निवेश की मात्रा अपेक्षाकृत बहुत ही कम है। भारत शिक्षा पर औसतन अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.9 प्रतिशत ही खर्च करता है। भारत की प्राथमिकताएं उलझी हुई हैं। निवेश के मामले में शिक्षा, यहां तक कि स्वास्थ्य और पोषण का भी बुरा हाल है। हालांकि यह सभी जानते हैं कि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य का निवेश परम आवश्यक होता है। क्योंकि व्यापक शिक्षा न केवल हमारी समग्र समृद्धि में इजाफा करती है बल्कि अमीरों और वंचितों के बीच मौजूद खाई को पाटने में भी मदद करती है। बावजूद व्यवस्था में बैठे हुए लोगों की प्राथमिकता में शिक्षा और स्वास्थ्य कभी भी महत्वपूर्ण स्थान नहीं हासिल कर सका है। समय के साथ समाज में हुए परिवर्तनों के कारण भी शिक्षा की उपेक्षा होती रही है। नव-उदारवादी दौर आने के साथ ही राज्य धीरे-धीरे लोक कल्याण के मामलों से पीछे हटते गए और शिक्षा का अधिकाशत निजीकरण होता गया। अब भारत में भी विदेशी विश्वविद्यालयों को निमंत्रण दिया जाना, इसका जीता जागता उदाहरण है।

कई एक अर्थशास्त्री शिक्षा को सार्वजनिक वस्तु के रूप में देखते हैं। जिसमें बहुत सारी सकारात्मक बाहरीताएं होती है, या कम से कम योग्यता वस्त्तु (यह एक ऐसी वस्तु है जिसकी आपूर्ति बाजार के माध्यम से की जा सकती है लेकिन समाज के सर्वोत्तम हित में अतिरिक्त लाभप्रदता के हिसाब से इसे सार्वजनिक वस्तु के रूप में प्रदान किया जाता है)। लेकिन भारत में अभी भी शिक्षा निजी वस्तु के रूप में माना जाता है। मानकीकृत, कमोडिटीकृत पैकेज्ड और मांग और आपूर्ति के सिद्धांतों के आधार पर बेचा जाता है। जिनके पास क्रय शक्ति नहीं है वह अच्छी शिक्षा की पहुंच से बहुत दूर है। यही कारण है कि भारत में एक ओर निजी घरेलू विश्वविद्यालयों, जिनमें जिंदल, शिव, नाडर, अशोक और कई अन्य शामिल हैं, को लगातार आगे बढ़ने का मौका दिया जा रहा है, वहीं विदेशी विश्वविद्यालयों को आने और अपनी पेशकश करने के लिए खुला निमंत्रण भी सौंपा गया है।

तथ्यात्मक रूप से भी शिक्षा कोई समरूप विचार नहीं है, जिन्हें समान, दक्षता और प्रभावशीलता के साथ किसी भी मिट्टी पर आयात किया जा सकता है। समान विचार की धारणा ही असत्य है। अगर ब्रिटेन, अमेरिका का कोई विश्वविद्यालय भारत आता है तो क्या वह दादा भाई नौरोजी या किसी आरसी दत्त के कार्यों को अपने विद्यार्थियों के बीच पढ़ायेगा? क्या ऐसे विश्वविद्यालय इस स्थापित दृष्टिकोण से सहमत होंगे कि अल्प विकास का साम्राज्यवाद से संबंध है? उपनिवेशवाद तो संभवत पाठ्यक्रम का हिस्सा ही नहीं होगा? यहां तक कि विज्ञान के क्षेत्र में भी क्योंकि हमारी अपनी अनूठी समस्याएं हैं (पानी स्वच्छता सस्ती बिजली प्रदान करना आदि)। ऐसे में हमारे पाठ्यक्रम की सामग्री को विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में जगह क्या मिल सकती है? इसका उत्तर होगा, नहीं। और आवश्यक रूप से यह विश्वविद्यालय अपना अलग पाठ्यक्रम लेकर आएंगे। अगर हम अपने प्राचीन के अद्भुत ज्ञान के बल पर वैदिक गणित, प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद जैसी विद्या का मोती पा रहे हैं तो सवाल है कि क्या यह विदेशी विश्वविद्यालय इन्हें अपने शिक्षण का हिस्सा बनाएंगे? निश्चित रूप से बिल्कुल नहीं। ऐसे में हमें हर हाल में तृतीयका स्तर सहित बेहतर सार्वजनिक शिक्षा की आवश्यकता को मुखर करने की जरूरत है।

अगर हम उच्च शिक्षण संस्थानों की एचईआई के नेशनल इंशुरंस रैकिंग फ्रेमवर्क रैकिंग को देखें, तो पाते हैं कि ज्यादातर भारतीय विश्वविद्यालय बेहद खराब प्रदर्शन करते हैं। खासकर राज्य द्वारा संचालित उच्च शिक्षण संस्थान। राज्यों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के खराब प्रदर्शन का मुख्य कारण है, उनकी खराब वित्तीय स्थिति। राज्यों के द्वारा संचालित हो रहे विश्वविद्यालय बहुत खराब शैक्षणिक और प्रशासनिक बुनियादी ढांचे से पीड़ित हैं। पठन-पाठन से लेकर संसाधनों तक की स्थिति बहुत ही निचले दर्जे की हो गई है। दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। यहां एक एक कक्षा में 100 से 150 छात्र तक हो जाते हैं जबकि आदर्श रूप में एक कक्षा में 50 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए। देश के अधिकांश विश्वविद्यालय स्वाभाविक रूप से संकाय शक्ति, शिक्षक छात्र अनुपात, सीखने के संसाधन, भौतिक आधारभूत संरचना सहित खराब अकादमिक प्रदर्शन संकेतक होने से पीड़ित है। इसकी सूची अंतहीन है। उच्च शिक्षण संस्थानों की खराब स्थिति के कारण देश से अच्छी शिक्षा की चाह में लगातार प्रतिभा का पलायन हो रहा है और इसके चलते भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा का नुकसान भी हो रहा है। ऐसे में हमें अपनी प्रतिभा को रोकने तथा अपने विश्वविद्यालयों की दशा-दिशा ठीक करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन विडंबना है कि हम त्रिस्तरीय प्रणाली स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। पर विदेशी विश्वविद्यालय जब आएंगे जिन्हें अपने स्वयं के कर्मचारियों को अपनी शर्तों पर नियुक्त करने और अपने स्वयं के पाठ्यक्रम को तैयार करने की लगभग पूर्ण स्वतंत्रता होगी। वह निश्चित रूप से अपनी प्रवेश प्रक्रिया और अपनी शुल्क संरचना भी तय करेंगे।

हमारे देश में जो कुछ निजी विश्वविद्यालय चल रहे हैं, उनमें से कुछ तो निश्चित रूप से अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन भारी तादाद में ऐसे विश्वविद्यालय केवल धन कमाने की मशीन के रूप में ही जाने जाते हैं। ऐसे निजी विश्वविद्यालय विदेशी विश्वविद्यालयों को दिए गए अधिकांश विशेष अधिकारों का अंडर द टेबल खूब आनंद उठाते हैं। इस क्रम में जो सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित उच्च शिक्षण संस्थान आते हैं, जिन पर कि कई प्रतिबंध लगाए गए हैं। ऐसे संस्थान एक तो हमेशा संसाधनों की कमी से पीड़ित रहते हैं, वह विदेशी फैकेल्टी की नियुक्ति नहीं कर सकते। वित्त पोषित संस्थानों में होने वाली नियुक्तियां भी साफ-सुथरी नहीं होती हमेशा संदेह के घेरे में ही देखी जाती है (आप केस स्टडी के रूप में आजकल दिल्ली में चल रही नियुक्तियों को ट्रैक कर सकते हैं)। ऐसे संस्थानों में पाठ्यक्रम की संरचना पाठ्यक्रम सामग्री यूजीसी के दिशा निर्देशों द्वारा निर्धारित की गई है, लेकिन इसके लिए आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए सहायता लगातार कम होती जा रही है।

सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में परंपरागत रूप से शुल्क बहुत कम लिया जाता है। अब केंद्र सरकार राज्य के कोष पर निर्भरता कम करने की वकालत कर रही है। यह सुझाव दिया जा रहा है कि फीस में बढ़ोतरी कर संसाधन जुटाना चाहिए। लेकिन सौ टके का सवाल है कि ऐसे में आर्थिक तंगी से गुजर रहे मेधावी छात्रों का क्या होगा? अमीर छात्र तो हर स्थिति में पढ़ लेंगे उन्हें अगर यहां के विश्वविद्यालयों में जगह नहीं मिलेगी तो अपने धन बल पर विदेशी विश्वविद्यालयों की शरण में चले जाएंगे लेकिन वह विद्यार्थी जिनके माता-पिता गरीब हैं उनके पास राज्य वित्त पोषित विश्वविद्यालयों के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।

उच्च शिक्षण संस्थानों में जो तीन स्तरीय मॉडल आगे बढ़ रहा है जहां पहुंच भुगतान करने की क्षमता के सिद्धांत पर आधारित होगा न कि ‘होने की जरूरत के आधार पर’। अधिकांश भारतीय लोकाचार और समाज की जरूरतों में निहित गुणवत्ता शिक्षा से वंचित रहेंगे। हम अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल मानव संसाधन विकसित करने में पीछे होंगे। दुर्भाग्य से भारत में शिक्षा परोपकार धार्मिक उद्देश्यों के लिए जितना व्यापक है उसका आधा भी नहीं बचेगा। आज की परिस्थितियों में एक औसत धनी भारतीय किसी वंचित बच्चे की शिक्षित करने और संस्थाओं को वित्त पोषित करने की वजाय मंदिरों में दान करना बेहतर समझता है। सब कुछ के बावजूद हमें समझना होगा कि हमारी सार्वजनिक विश्वविद्यालय प्रणाली हमारे राष्ट्र की आवश्यकताओं के लिए व्यवस्थित रूप से अपनाई गई है। इसमें एक उपयुक्त परिस्थितिकी तंत्र का विकास किया है। हमें इसकी कमियों को सुधार करने की जरूरत है, न कि किसी अन्य बाजार आधारित शिक्षा मॉडल को अपनाने की।    

Share This

Click to Subscribe