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जीएम फसलः छोटे फायदे के लिए बड़ा नुकसान तो नहीं !

जीएम फसलों के लुभावने आंकड़ों के बावजूद हमें इसे खाद्य शृंखला में शामिल करने से पहले जरुरत, विकल्प और नियामकीय पहलुओं पर विचार करना होगा। बीज की आनुवांशिकी में बदलाव का कोई भी प्रयास जैव विविधता, मानवीय सेहत और भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करना होगा। — अरविंद कुमार मिश्रा

 

मिस्र के शर्म अल शेख शहर में 6 से 18 नवंबर 2022 तक दुनिया भर के वैज्ञानिक धरती को बचाने के उपायों पर मंथन करेंगे। कोप-27 के दौरान पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए गए कदमों की समीक्षा होगी। जलवायु परिवर्तन को ठीक करने का वैश्विक प्रयास सिर्फ धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की कमी लाने तक सीमित नहीं है। इसमें तितली, चील, सरीसृपों और विलुप्त होते कीट-पतंगों को बचाने पर भी जोर है। यह कभी हमारे पारिस्थितिक तंत्र के अहम घटक थे, लेकिन मिट्टी, पानी, हवा और खाद्य श्रृंखला में हुई छेड़छाड़ से हर सप्ताह एक जीव या पादप प्रजाति विलुप्त हो रही है।

देश में इन दिनों आनुवांशिक रूप से संशोधित (जेनेटिकली मोडिफाइड) सरसों के जरिए प्रकृति और विज्ञान की सरहद पर बहस छिड़ी है। पर्यावरण मंत्रालय के अधीन आने वाले बायोटेक रेगुलेटर जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) ने जीएम सरसों के बीज उत्पादन के लिए आवश्यक पर्यावरणीय स्वीकृति दी है। अब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा तय मानकों के अधीन धरा मस्टर्ड हाइब्रिड (डीएमएच-11) पर परीक्षण होंगे। इससे देश में जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती का रास्ता खुलेगा। यदि ऐसा होता है तो डीएमएच-11 देश की पहली जीएम खाद्य फसल होगी। 2017 में जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती की सिफारिश की गई थी, लेकिन उस समय पर्यावरण मंत्रालय ने इस पर और शोध की जरुरत बताकर रोक लगा दी थी। हालांकि जीएम कपास, तेल आज भी खुले बाजार में बिक रहा है। वह हमारी खाद्य श्रृंखला में शामिल हो चुका है। बीटी (बेसिलस थुरिनजेनिसस) कपास की खेती को 2002 में मंजूरी दी गई थी।

फसलों की इंजीनियरिंग

जीएम फसलों में पादप कोशिकाओं के डीएनए (जीनोम, माइक्रोकॉन्ड्रिया, क्लोरोप्लास्ट) में कुछ इस तरह बदलाव किए जाते हैं कि वह कुछ खास खरपतवारों (हर्बिसाइट) और रोग को लेकर प्रतिरोधी बन जाती हैं। इसका उद्देश्य परंपरागत बीज से अधिक उत्पादकता और पोषक तत्व हासिल करना है। जीएम फसलों के पैरोकारों का दावा है कि जीएम फसलों में ऊर्वरक और पानी का उपयोग कम होगा। यही नहीं आनुवांशिक अभियांत्रिकी से तैयार ये फसलें मौसम में आ रहे अप्रत्याशित बदलावों में भी अच्छी पैदावार देती हैं। जेनेटिक मोडिफिकेशन के अलावा आनुवांशिक रूप पृथक दो प्रजातियों की उप प्रजातियों के बीच संकरण (हाइब्रिडाइजेशन) से भी नई किस्म तैयार की जाती है, लेकिन सरसों के मामलें में यह संभव नहीं है। इसकी वजह इसका स्वयं परागण (सेल्फ पॉलिनेटिंग) गुण है। यही वजह है भारतीय वैज्ञानिक द्वारा जीन में बदलाव कर सरसों की एक नई स्वदेशी प्रजाति विकसित की गई है। हाइब्रिडाइजेशन के लिए क्रॉस पॉलिनेशन की प्रक्रिया में एक जीन स्थापित किया गया है। कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि इसकी पहचान तय करने के लिए हर्बिसाइड टॉलरेंट जीन डाला गया है। लेकिन इसको लेकर बायो सेफ्टी परीक्षण हुए हैं या नहीं और उनका स्तर क्या है, इस पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

तेजी से बढ़ रहा जीएम फसलों का रकबा

जीएम फसलों की बुआई 1994 में सबसे पहले अमेरिका में हुई। टमाटर की एक प्रजाति (फ्लेवर सेवर) के रूप में इसका विकास किया गया था। टमाटर की इस प्रजाति को लेकर दावा किया गया था कि यह पकने में अधिक समय लेने के साथ जल्द खराब नहीं होगा। ब्रिटेन की साइंस एकेडमी द रॉयल सोसाइटी के मुताबिक अमेरिका आलू, लौकी, कद्दू, सोयाबानी और चुकंदर, बांग्लादेश- बैगन, चीन- पपीता, भारत समेत 15 से अधिक देश कपास एवं 17 देशों में मक्का का उत्पादन जीएम प्रजाति से हो रहा है। रकबे के अनुपात में चीन, अमेरिका और अर्जेंटिना जीएम फसलों पर सबसे अधिक निर्भर हैं। 2015 में 28 देशों में लगभग 18 करोड़ हेक्यटेयर में जीएम फसलों की खेती होने लगी थी। 2016 तक यह कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 10 प्रतिशत है। आज सोयाबीन के कुल वैश्विक उत्पादन का 60 प्रतिशत जीएम प्रजाति पर निर्भर है। यूएस नेशनल सेंटर फॉर फ़ूड एंड एग्रीकल्चर पॉलिसी की रिपोर्ट के मुताबिक आनुवंशिक रूप से कपास के परिणामस्वरूप 50 लाख एकड़ में 85 मिलियन पाउंड फसल की पैदावार बढ़ी। लेकिन जितने बड़े रकबे में इसकी खेती की जा रही है, उस लिहाज से उत्पादन में यह अप्रत्याशित वृद्धि नहीं कही जाएगी।

आयात निर्भरता कम होने का दावा

जीएम सरसों की ओर कदम बढ़ाने के पीछे सबसे बड़ी वजह भारत की खाद्य तेलों पर विदेशी निर्भरता कम करना है। हम लगभग 1.17 लाख करोड़ रुपये की राशि हर साल खाद्य तेलों के आयात पर खर्च करते हैं। वनस्पति तेल की अपनी 70 प्रतिशत जरुरत के लिए हम मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्राजील, अर्जेंटिना, रूस और यूक्रेन पर निर्भर हैं। आयातित सोयाबीन तेल का बड़ा अनुपात जीएम श्रेणी का है।

भारतीय विकल्पों पर बढ़ने की जरुरत

सिर्फ दो दशक पहले की ही बात करें तो देश में सरसों की फसलों में किसी तरह की खाद और उर्वरक की जरुरत नहीं पड़ती थी। भारतीय किसान अपनी जरुरत के लिए सरसों की फसल एकल रूप में या फिर गेंहूं के साथ बुआई कर उसकी पैदावार करते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों में धान और गेंहू पर ज्यादा निर्भरता ने तिलहन, दलहन और मोटे अनाज को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। सवाल यह है कि क्या हमारे पास जीएम फसलों के अलावा तिलहन की पैदावार बढ़ाने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। देश को खाद्य तेलों की आत्मनिर्भरता हासिल करने और आयात कम करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अगस्त 2021 को 11,000 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश वाले राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत की। देश में खाद्य तेल के आयात में पाम तेल की हिस्सेदारी लगभग 56 प्रतिशत है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू खाद्य और पाम ऑयल के राष्ट्रीय मिशन (एनएमईओ-ओपी) से किसान पाम और तिलहन की खेती में वृद्धि के लिए प्रेरित हुए हैं। तिहलन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने बेहतर लागत प्रदान करने की नीति को भी अपनाया है। पिछले दो साल में केंद्र सरकार के प्रयासों से तिलहन उत्पादन में सकारात्मक वृद्धि देखी जा रही है। 2017-18 में तिलहन का उत्पादन 314.59 लाख टन रहा। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के मुताबिक पिछले तीन साल में तिलहन फसलों में उत्पादकता 1.271 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (2018-19) से बढ़ाकर 1.292 किलोग्राम/हेक्टेयर कर दी गई है। हालांकि वैश्विक औसत अब भी दो हजार किग्रा प्रति हेक्येटयर है। इस अंतर की बड़ी वजह हमारे यहां तिलहन का कम होता रकबा भी है। पिछले साल 191.75 लाख हेक्टेयर में तिलहन की बुआई हुई, इससे पहले यह 193.28 लाख हेक्टयेर था। देश में मूंगफली और सोयाबीन की बुआई का रकबा तेजी से घटा है। सरसों की पैदावार बढ़ाने के लिए आनुवांशिक रूप से संशोधित विकल्पों को ही एकमात्र विकल्प बताया जा रहा है, जबकि तिलहन का रकबा 103 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। इसमें सबसे अधिक वृद्धि सरसों में देखी गई है। पिछले वर्ष तो सरसों का भाव खुले बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,650 रुपये प्रति क्विंटल से भी अधिक रहा. हालही में केंद्र सरकार ने सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,450 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है.तिलहन उत्पादन 2014-15 में 27.51 मिलियन टन से बढ़कर 2021-22 में 37.70 मिलियन टन पहुंच गया है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत बीमित होने वाली फसलों में सरसों, मूंगफली, तिल को भी शामिल किया गया है। वैज्ञानिकों का एक धड़ा इस तथ्य को भी स्वीकार्य करता है कि जीएम सरसों के अलावा भी देश में अधिक पैदावार देने वाली सरसों की कई प्रजातिया हैं। तिलहन और दलहन आत्मनिर्भरता के सामने एक बड़ी चुनौती गेंहूं और धान को जरुरत से ज्यादा वरीयता देना भी है। कृषि अर्थशास्त्रियों के मुताबिक जितना पैसा खाद्य तेलों के आयात मोर्चे पर खर्च हो रहा है, उसे तिहलन किसानों को फसल की कीमत के रूप में देने की रणनीति अच्छे परिणाम देगी।

दूर करनी होंगी पर्यावरणीय और स्वास्थ्य चिंताएं

संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों को आज की जरुरत बताया है, लेकिन उन्होंने इसके परीक्षण और नियामक की कमजोर व्यवस्था पर भी चेताया है। जीएम फसलों के लिए जिस तरह ग्लाइफोसेट जैसे शाकनाशकों (हर्बिसाइट) का इस्तेमाल बढ़ा है, उसको लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चिंता जताई है। 2015 में डब्ल्यूएचओ ने ग्लाइफोसेट को संभावित कैंसरजनक के रूप में वर्गीकृत किया था।

एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 85 प्रतिशत से अधिक जीएम फसलें हर्बिसाइड टॉलरेंट (शाकनाशक प्रतिरोधी) हैं। इससे भले ही तात्कालिक रूप से कुछ सालों तक फसलों की उच्च पैदावार हासिल कर ली जाए, लेकिन इंसानी सेहत के साथ ही पर्यावरण पर दीर्घकालिक नुकसान का आकलन भी होना चाहिए।

अमेरिका समेत कई देशों के अनुभव बताते हैं कि जीएम फसलों का रकबा बढ़ने से ग्लाइफोसेट प्रतिरोधी हर्बिसाइड में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। वह खेत जो कभी अच्छी पैदावार के लिए जाने जाते थे, आज व्यापक रूप से खरपतवार से मुक्ति का संघर्ष कर रहे हैं। भारत में जहां पहले ही जोत का आकार छोटा और आबादी का दबाव अधिक है, यह संकट को और बढ़ा सकता है।

उत्साहजनक नहीं बीटी कपास का अनुभव

2002 में बीटी कॉटन के आनुवांशिक रूप से संशोधित बीज के उपयोग कोमंजूरी मिली थी। देश आज कपास का दुनिया भर में सबसे बड़ा उत्पादक है। इसके पीछे बीटी कपास को श्रेय दिया जाता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बीटी कपास पारंपरिक कपास के मुकाबले 24 प्रतिशत अधिक उपज देता है। इससे किसानों की आय में 50 प्रतिशत की वृद्धि होती है। लेकिन पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र में बीटी कपास की खेती करने वाले किसानों ने ऊर्वरक का उपयोग बढ़ने के साथ ही बीटी कपास में नई प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने की शिकायत की है। बीटी कॉटन को जिस पिंक बॉलवर्म (गुलाबी सुंड़ियों) से प्रतिरोधक माना गया था, वह फिर इसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन चुकी है। 2012 में कृषि संबंधी संसदीय समिति जीव-जंतुओं पर बीटी कॉटन के प्रतिकूल असर पर चिंता जाहिर कर चुकी है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इसके बीजों को जब मेमनों को खिलाया गया तो उनके यकृत, हृदय, गूर्दे, फेफड़ों और अमाशय के वजन में कमी आ गई। महज कुछ सालों में बीटी कॉटन किसान न सिर्फ पहले जैसी स्थिति में खड़े हैं बल्कि उस जमीन की ऊर्वरक शक्ति में भी काफी कमी आई है।

अमेरिका और यूरोप में उठे विरोध के स्वर

इसमें कोई दो मत नहीं कि पिछले कुछ दशकों में वैश्विक आबादी जिस तरह बढ़ी है, उसके लिए खाद्यान संकट को दूर करने में जीएम फसलों ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन जीएम फसलों को लेकर चिंताएं भी कम नहीं हैं। अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप मेंजीएम खाद्य पदार्थों के खिलाफ हो रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन इसकी बानगी हैं। इनमें कुछ देशों में नागरिकों द्वारा पूरी तरह जीएम फसलों पर प्रतिबंध की मांग हो रही है। कुछ साल पहले तक अमेरिका और यूरोपीय देशों में जीएम और गैर जीएम खाद्य पदार्थ में अंतर नहीं किया जाता था। अब उनसे जुड़े नियामक तय कर दिए गए हैं। जीएम और गैर जीएम खाद्य पदार्थों के लिए अलग-अलग मानक चिन्ह हैं। जीएम फसलों के विरोध का स्वर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार से भी जुड़ा है। अमेरिकी कंपनी मोंसेंटो अकेले जीएम बीज की वैश्विक बिक्री में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी रखती है।

जीएम फसलों के लुभावने आंकड़ों के बावजूद हमें इसे खाद्य श्रृंखला में शामिल करने से पहले जरुरत, विकल्प और नियामकीय पहलुओं पर विचार करना होगा। बीज की आनुवांशिकी में बदलाव का कोई भी प्रयास जैव विविधता, मानवीय सेहत और भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करना होगा। वह भी तब जब धरती गंभीर जलवायु संकट से गुजर रही है। ऐसी परिस्थितियों में आज भारत पर्यावरण अनुकूल विकास की दिशा में न सिर्फ नेतृत्वकर्ता की भूमिका में है, बल्कि विकास की जन आकांक्षाओं को पूरा करते हुए जैविक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में विश्व जगत को राह दिखा रहा है।

 

लेखक जी-न्यूज के मुख्य प्रतिलिपि संपादक हैं।

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